Parliament : चर्चा नहीं करनी तो करोड़ों के खर्च का क्या औचित्य?

Parliament : चर्चा नहीं करनी तो करोड़ों के खर्च का क्या औचित्य?

Parliament: If there is no discussion, then what is the use of spending crores?

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Parliament : संसद का पूरा मानसून सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया। विपक्ष की हठधर्मिता, शोर-शराबे और अपनी राजनीति चमकाने के फेर में आम आदमी से जुड़े तमाम मुद्दे संसद के समक्ष पेश ही नहीं हो सके। ये हालात तब हैं जब बीते अप्रैल-मई में करोड़ों देशवासियों ने कोरोना वायरस से प्रभावित हुए हैं। इस वायरस की वजह से न जाने कितने घर उजड़ गये। न जाने कितने लोग बेरोजगार हुए। न जाने कितने लोग मंहगे इलाज के चलते कर्ज में डूब गये। जिस महामारी ने देश के हर छोटे-बड़े व्यक्ति को प्रभावित किया हो, उसके विषय में कोई बात ही पूरे मानसून सत्र में नहीं हुई।

ये वही नेता हैं जो दूसरी लहर के समय अपनी राजनीति चमकाने और राज्य और केंद्र सरकार को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे। और अब जब देश में तीसरी लहर की आशंका जताई जा रही है, उससे पहले संसद में इस बारे में कोई चर्चा न होना, बेहद अफसोसनाक और शर्मनाक है। लेकिन माननीयों को लज्जा नहीं आएगी। उन्होंने अपनी राजनीति चमकाने और सरकार को घेरने का जो प्लान बनाया था, विपक्ष उसमें सफल रहा। लेकिन इन सबके बीच आम आदमी के सरोकार माननीयों के नारों, हुल्लड़बाजी और शोर शराबे की बीच दब गये। मानसून सत्र में संसदीय मर्यादाओं, नियमों और परंपराओं की धज्जियां विपक्षी सांसदों ने उड़ाई।

पेपर फाड़े, छीना झपटी, धक्कामुक्की, मेजों (Parliament) पर चढ़कर विरोध क्या नहीं हुआ? ये वो माननीय हैं जिन्हें देश की जनता ने इसलिये तो चुनकर संसद में भेजा था कि वो उनकी आवाज दिल्ली तक पहुंचाएंगे। लेकिन सांसदों का जनता का नहीं अपने दल का एजेण्डा चलाना है। और वर्तमान में लगभग पूरे विपक्ष का एक ही लक्ष्य है, केंद्र सरकार को बदनाम करना। पीएम मोदी और देश की छवि को बर्बाद करना। और विश्व के समक्ष ऐसी तस्वीर पेश करना कि मोदी के नेतृत्व में देश गहरे संकट में फंस चुका है। और उसका एकमात्र हल मोदी को हटाना ही शेष है। इस मानसून सत्र में विपक्ष की सत्ता की लालसा का नजारा पूरे देश ने देखा। विपक्ष ने पेगाासस मामले को जानबूझकर उछाला और संसद का कीमती वक्त नष्ट कर दिया।

क्या हमारे माननीय इतने संवेदनहीन है कि उन्हें आम देशवासी के दु:ख-दर्दे और परेशानियों से कोई मतलब नहीं रह गया है। कोरोना से जूझते देशवासियों के लिये एक भी शब्द माननीयों के मुंह से नहीं निकला। कोरोना की बजाय पेगासस पर शोर-शराबा मचाना ये साफ करता है कि विपक्ष के एजेण्डे में आम आदमी नहीं है। उसे सिर्फ अपनी राजनीति चलानी है। हां वो अलग बात है कि अगर देश में कोरोना की तीसरी लहर ने असर डाला तो, यही नेतागण केंद्र सरकार के माथे सारी गलतियों और कमियों का घड़ा फोडऩे में देर नहीं करेंगे। लेकिन जब कोरोना जैसे महत्वपूर्ण और आम आदमी से जुड़े मुद्दे पर व्यापक चर्चा हो सकती थी, तब विपक्ष पेगासस की माला जप रहा था।

लोकसभा के अध्यक्ष ओम बिरला ने सत्र स्थगित करने के बाद प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी, कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी, लोकसभा में नेता अधीर रंजन चैधरी सहित विपक्ष के बाकी नेताओं को एक साथ बिठाकर भविष्य में सदन की कार्यवाही सुचारु तरीके से संचालित करने के बारे में चर्चा की। राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू सदन में ये कहते हुए रो पड़े कि बीते दिन हुए हंगामे से दुखी होकर रात भर नहीं सो सके। लेकिन उनके रोने का भी विपक्ष ने अपने बयानों से उपहास ही उड़ाया।

संसद के मानसून सत्र (Parliament) में कहने को तो सरकार द्वारा अनेक विधेयक पार्रित करवा लिए गये लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग संशोधन को छोड़कर बाकी किसी पर भी न बहस हुई और न चर्चा। दोनों सदनों में आखिरी दिन तक सिवाय हंगामे के कुछ नहीं हुआ। सत्र की समाप्ति के बाद एक बार फिर बताया जा रहा है संसद को चलाने में प्रति मिनिट और पूरे सत्र पर कितने करोड़ खर्च हो गए। वैसे संसद में हंगामा, बहिर्गमन, नारेबाजी नई बात नहीं है जिसकी देखा-सीखी विधानसभाओं में भी वैसा ही नजारा देखने मिलने लगा। सदन नहीं चलने देने के लिए सत्ता पक्ष और विरोधी दल एक दूसरे को कठघरे में खड़ा करते हुए खुद को बेकसूर बताते हैं लेकिन असलियत यही है कि दोनों इस मामले में बराबर के दोषी हैं। विपक्ष ने पेगासस जासूसी मामले में चर्चा करवाने की जिद पकड़कर सदन की कार्यवाही नहीं चलने दी।

दूसरी तरफ सत्ता पक्ष ने उसकी इस कमजोरी को भांपकर बहस नहीं करवाने की जो रणनीति (Parliament) अपनाई उसमें विपक्ष उलझ गया। उसकी सबसे बड़ी विफलता ये रही कि सरकार ने तो अपना विधायी कार्य पूरी तरह संपन्न करवा लिया और बड़ी ही चतुराई से हंगामे के बीच भी आनन-फानन तमाम विधेयक सदन से विधिवत पारित करवा लिए किन्तु विपक्ष न जासूसी के मुद्दे पर बहस करवा सका और न ही कृषि कानून, कोरोना की दूसरी लहर के दौरान हुई जनहानि, पेट्रोल-डीजल के अलावा अन्य जरूरी चीजों की महंगाई जैसे मुद्दों पर ही सरकार को घेर सका। यदि वह पेगासस प्रकरण को पकड़कर नहीं बैठा होता तब सरकार को बात-बात पर घुटनाटेक करवा सकता था।

बावजूद इसके कि लोकसभा के साथ ही राज्यसभा में भी सरकार के पास बहुमत होने से वह विपक्ष के चक्रव्यूह से सुरक्षित बाहर निकलने में सक्षम है, विपक्ष के पास शब्दबाणों से हमले की जो ताकत है उसके उपयोग से वह जनता को अपनी मौजूदगी का एहसास करवा सकता था। इसमें कोई दो मत नहीं हैं कि आजकल सत्ता पक्ष बहुमत के बाद भी सदन में बहस से बचता है और मौका मिलते ही सत्रावसान करने की चाल चलकर विपक्ष को असहाय साबित कर देता है।

संसद के मानसून सत्र (Parliament) का चलना न चलना एक तरह से बराबर ही रहा। विपक्ष के पास अब सरकार को कोसने के अलावा और कुछ बचा ही नहीं है किन्तु संसद के माध्यम से जनता की तकलीफों को पेश करने का अवसर गंवाने के पीछे उसकी अपरिपक्व और गैर जिम्मेदार नीति ही रही। अब सवाल ये है कि जनता के कर से चलने वाली संसद को ठप्प करने का ये सिलसिला कब तक जारी रहेगा?

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