China War : चीन युद्ध के अधूरे सबक

China War : चीन युद्ध के अधूरे सबक

China War: Unfinished Lessons of China War

China War

शशि शेखर। China War : ‘अगर मुझे एक वाक्य में स्थिति की व्याख्या करनी पड़े, तो मैं यही कहूंगा कि हालात स्थिर हैं, लेकिन अप्रत्याशित भी।’ भारतीय थल सेनाध्यक्ष जनरल मनोज कुमार पांडेय का यह बयान भारत और चीन के बीच लड़ी गई जानलेवा जंग की 60वीं बरसी से ठीक दस दिन पहले आया। मतलब साफ है, चीन से व्यापारिक और व्यावसायिक मोहब्बत के बीच सीमाई अदावत जारी है।

इस शत्रुता की जड़ें हमारे जवानों के रक्त से सिंचित (China War) हैं। इन प्राचीनतम देशों के बीच पसरे विवाद को समझने के लिए 1947-62 के दिनों में लौटते हैं। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को सेना ने समय रहते चेता दिया था। मेजर जनरल डीके पालित के अनुसार, आजाद भारत के पहले कमांडर इन चीफ सर रॉबर्ट लॉकहार्ट पंडित जी से सीमाओं की स्थायी सुरक्षा के लिए रणनीतिक योजना के साथ मिले थे। बकौल पालित उन्हें रूखा-सा जवाब मिला- ‘हमें किसी रक्षा योजना की जरूरत नहीं। हमारी नीति अहिंसा है। हमें किसी सैन्य खतरे की आशंका नहीं। सेना को खत्म कर दें। हमारी सुरक्षा जरूरतों को पूरा करने के लिए पुलिस ही पर्याप्त है।’

यह अकेले जवाहरलाल नेहरू की सोच नहीं थी। कृष्ण मेनन को छोड़कर प्राय: सभी मंत्री इस मुद्दे पर यही राय रखते थे। मोरारजी देसाई युद्ध-काल में वित्त मंत्री हुआ करते थे। वह सैन्य-खर्च और आधुनिकीकरण को गांधी के सपनों की हत्या बताते थे। जंग के वक्त रक्षा मंत्रालय कृष्ण मेनन संभाल रहे थे, इसलिए सारा ठीकरा उनके सिर पर फोड़ा गया, मगर रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) और सैनिक स्कूलों की स्थापना जैसे दूरंदेश निर्णय भी उन्होंने ही किए थे। मिग-21 का पहला आयात उन्हीं के काल में हुआ था। अपनी इस सोच का खामियाजा उन्हें ही भुगतना होता था। कृपलानी, मोरारजी जैसे तमाम दिग्गज उनके आलोचक थे।

जनसंघ और समाजवादी भी उनसे सुर मिलाते थे। इनमें से कई न केवल सैन्य आधुनिकीकरण, बल्कि बातचीत के जरिये समझौते की भी मुखालफत करते थे। मोरारजी 1977 में देश के प्रधानमंत्री बन गए, पर उनके विचार नहीं बदले। उन्होंने ‘रॉ’ जैसी महत्वपूर्ण संस्था को ही भंग कर दिया था। सन् 1950 के दशक के उत्तराद्र्ध में सीमा पर हालात बिगडऩे लगे थे। चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया था और वहां के शासक दलाई लामा को ल्हासा छोडऩे पर मजबूर होना पड़ा। भारत ने उन्हें न केवल शरण दी, बल्कि दलाई लामा की निर्वासित सत्ता को भी स्वीकृति प्रदान की। तब से जंग की शुरुआत तक यह खाई लगातार चौड़ी होती चली गई। लाल सेना को रोकने की कोशिश में सात हजार के करीब भारतीय सैनिक और अफसर या तो शहीद हो गए अथवा कैद कर लिए गए। चीन के भी दो हजार के करीब सैनिक हताहत हुए थे।

विश्व के सैनिक इतिहास में यह लड़ाई अद्भुत मानी जाएगी। भारतीय सैनिक पूरे जज्बे, जोश और जुनून से लड़े, पर उनके पास न तो वहां के कठोर भौगोलिक हालात के हिसाब से कपड़े थे और न जूते, हथियार तो दूर की बात है। हमारे जवान द्वितीय विश्व युद्ध में ही ‘ऑब्सलीट’ मान ली गई ‘3नॉट3 राइफलों’ से मुकाबला करने के लिए अभिशप्त थे।

यह मुकाबला था या हाराकीरी!

नेहरू इस हमले से इतने आक्रांत हो ए थे कि उन्होंने अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी से मदद की गुहार लगाई। कहते हैं कि भारतीय प्रधानमंत्री ने उन्हें अनेक पत्र लिखे। हर अगली चि_ी में उनकी व्यग्रता कातरता में तब्दील होती जाती थी। केनेडी ने नेहरू के अनुरोध पर अपना जंगी बेड़ा भारत की ओर रवाना किया, पर इसी बीच चीन ने 20 नवंबर को एकतरफा युद्ध-विराम की घोषणा कर दी। शायद बीजिंग के पास भी लंबे समय तक टिके रहने की कोई योजना न थी। लाल सैनिक असम के तेजपुर से तो लौट गए, पर भारत के 38 हजार वर्ग किलोमीटर इलाके पर उनका कब्जा कायम रहा, जिसे हम आज तक नहीं छुड़ा सके हैं।

इस जंग के शुरू होने से पहले से न केवल सत्ता-सदन, बल्कि सैन्य प्रतिष्ठान में भी शक-शुबहे का माहौल था। जनरल एस थिमय्या 1957 से 1961 तक देश के सेना प्रमुख थे, पर उनका तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन से छत्तीस का आंकड़ा था। एक बार तो उन्होंने इस्तीफा तक दे दिया था, पर किसी तरह नेहरू उन्हें कुछ घंटे में मनाने में कामयाब रहे। जनरल थिमय्या के मित्र और कुछ साल पहले तक सहकर्मी रहे फील्ड मार्शल अयूब खान ने उन दिनों पाकिस्तान में तख्ता-पलट कर दिया था। नेहरू को डर था कि यदि सेना को नियंत्रण में नहीं रखा, तो भारत में भी लोकतंत्र का भविष्य खतरे में पड़ जाएगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि पंडित जी और उनके सहयोगी इस मामले में कामयाब रहे।

यहीं सवाल सिर उठाता है, क्या लोकतंत्र और संप्रभुता को अलग किया जा सकता है? इसके लिए राजनेताओं और सेना के बीच जैसे समन्वय की जरूरत थी, वह नदारद था। हतभागिता का यह अकेला मामला नहीं था। नेहरू के करीबी जनरल बीएन कौल उस समय नेफ (नॉर्थ-ईस्ट फ ्रंटियर एजेंसी) के कमांडर हुआ करते थे। वह युद्ध के दौरान ही ‘हाई एल्टिट्यूड सिकनेसÓ के शिकार हो गए। इसके तत्काल बाद वह दिल्ली लौट आए और यहीं से युद्ध का संचालन करने लगे। भारत के सैन्य इतिहास की भीषणतम त्रासदियों में से एक, यह जंग, हम यूं ही नहीं हारे थे।

इतिहास की इस दर्दनाक गाथा से क्या आने वाले सत्तानायकों ने कोई सबक लिया?

बहुत दूर जाए बिना पिछले नौ सालों की दो बड़ी घटनाओं के उदाहरण देता हूं। चीन ने अपनी अतिक्रमणकारी नीति को आगे बढ़ाते हुए मई 2013 में दीपसांग के राकी नाला के पास अतिक्रमण किया था। नई दिल्ली ने कूटनीतिक उपायों के जरिये अगले महीने तक यह सुनिश्चित कराने में सफलता हासिल की कि ‘पीपुल्स लिबरेशन आर्मीÓ के जवान वापस चले जाएं। उस वक्त दोनों ओर से एक भी गोली नहीं चली, पर उन्होंने अगला बड़ा अतिक्रमण गलवान घाटी में किया।

इस बार दोनों पक्षों में खूनी भिड़ंत हुई। 15 जून, 2020 की उस दुखद शाम हमारे कमांडिंग ऑफि सर संतोष बाबू सहित 20 जवान मारे गए। चीन ने हमेशा की तरह अपने हताहतों की कोई सूचना जारी नहीं की। उसके अखबार ‘ग्लोबल टाइम्सÓ ने चार सैनिकों के मारे जाने की जरूर पुष्टि की, लेकिन भारतीय खुफिया सूत्रों के अनुसार यह आंकड़ा काफी बड़ा था।
तब से अब तक हमारी सीमाएं गर्म बनी हुई हैं। दोनों देशों के बीच मामले को ठंडा करने के लिए 16 दौर की बात हो चुकी है, मगर ठोस नतीजे का अभी तक इंतजार है। तीस महीने का यह गतिरोध तमाम आशंकाएं पैदा करता है।

आज उस खूनी जंग को गुजरे 60 बरस पूरे हो रहे हैं, लेकिन हमारे (China War) रक्षा तंत्र को मजबूत बनाने और ड्रैगन के कब्जे से अपनी जमीन छुड़ाने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। संतोष की बात है कि देश का मौजूदा नेतृत्व इस दिशा में समूची संवेदनशीलता के साथ सक्रिय है।

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