''राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस'' पर विशेष : आरोग्य के लिए आयुर्वेद

”राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस” पर विशेष : आरोग्य के लिए आयुर्वेद

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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाले एन.डी.ए. सरकार ने योग की तरह ही आयुर्वेद को भी राष्ट्रीय एवं अंर्तराष्ट्रीय परिदृश्य में लोकव्यापी बनाने के लिए धनतेरस यानि धन्वन्तरि जयंती को ”राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया है। आज समूचा देश चतुर्थ राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस मना रहा है। आयुर्वेद भारत की सदियों पुरानी स्वदेशी चिकित्सा पद्धति है जिसने स्वतंत्रता आंदोलन में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित किया था।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी प्राकृतिक चिकित्सा के साथ-साथ आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति पर बहुत भरोसा रखते थे। विडंबना है कि वैश्विक व्यापार और पश्चिमी उपभोक्तावादी संस्कृति के चलते देश में स्वदेशी वस्तुएं और परंपराएं लगातार अपनी पहचान खो रही है, इन्हीं विसंगतियों का शिकार देशी चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद भी हो रहा है। गौरतलब है कि आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति का इतिहास आधुनिक चिकित्सा पद्धति ”ऐलोपैथी” से हजारों बरस पुराना है।

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Dr. Sanjay Shukla

यह अतिश्योक्ति नहीं होगी कि ग्रामीण भारत की बुनियादी स्वास्थ्य सेवा और मातृ-शिशु स्वास्थ्य आज भी घरेलू नुस्खों के नाम पर आयुर्वेद पर ही टिकी हुयी है, लेकिन शहरी अभिजात्य तबका इस चिकित्सा पद्धति को महज सौंदर्य प्रसाधन, यौन शक्तिवर्धक साधन तथा हेल्थ व फूड सप्लिमेंट ही माने बैठा है जबकि यह संपूर्ण जीवन पद्धति है जिसे अपना कर व्यक्ति स्वास्थ्य और प्रतिष्ठा अर्जित कर सकता है। विडंबना है कि कतिपय लोग आयुर्वेद को चिकित्सा पद्धति मानने से इंकार करते हुए इसकी वैज्ञानिकता को ही खारिज कर देते हैं।

वास्तविकता है यह है कि आयुर्वेद ने पश्चिमी चिकित्सा विज्ञान यानि एलोपैथी को नयी राह दिखायी है, आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने न केवल संज्ञा आयुर्वेद के शल्यज्ञ आचार्य सुश्रुत को ”फादर ऑफ सर्जरी” की संज्ञा दी है वरन इस चिकित्सा पद्धति के कई नुस्खों तथा उपक्रमों को प्रभावकारी भी माना है। दूसरी ओर समूची दुनिया एलोपैथिक दवाओं के बढ़ते दुष्प्रभाव और उसके प्रभावशून्यता के चलते बड़ी तेजी से हर्बल मेडिसिन यानि वनौषधियों के प्रति आकर्षित हो रहा है जो आयुर्वेद का मूल आधार है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन यानि डब्ल्यू.एच.ओ. के अनुसार विश्व की तीन चैथाई आबादी विभिन्न रोगों के ईलाज के लिए हर्बल और अन्य पारंपरिक दवाओं पर निर्भर है। विडंबना है कि जहां पश्चिमी देश आयुर्वेद यानि हर्बल मेडिसिन को अपना रहे हैं वहीं कतिपय भ्रम और मिथकों के चलते आम भारतीय लोग प्रकृति के इस अमूल्य धरोहर को अपनाने से दूर भाग रहे हैं। गौरतलब है कि आयुर्वेद दवाओं तथा उपचार के बारे में एक तबके में यह भ्रम आम है कि इन दवाओं में हैवी मेटल्स (भारी धातु) तथा जानवरों की हड्डियां मिले रहते हैं तथा आयुर्वेदिक उपचार अत्यंत महंगा तथा लंबा होता है।

इन दवाओं का स्वाद कसैला व कडुवा होता है, आयुर्वेद ईलाज केवल पुराने रोग का बुजुर्गों के लिए होता है इत्यादि-इत्यादि। जबकि आयुर्वेदिक उपचार में प्रयुक्त की जाने वाली चूर्ण, बटी, आसव, अरिष्ट, अवलेह, तैल, स्वरस जैसी 90 प्रतिशत दवाओं में वनस्पतियों, जड़ी-बूटियों, फल-बीजों तथा रसों का प्रयोग होता है। महज रस और भस्म औषधियों में ही पारद, स्वर्ण, ताम्र, शिलाजीत जैसे धातु व मिनरल (खनिज तत्वों) का प्रयोग किया जाता है।

लेकिन इन धातुओं तथा खनिज तत्वों का संपूर्ण शोधन शास्त्रोक्त एवं वैज्ञानिक विधि से किया जाता है जिसे आधुनिकतम उच्च गुणवत्ता की कसौटी पर परखकर सरकारी औपचारिकताओं तथा प्रयोगशाला परीक्षण के बाद ही बाजार में उतारा जाता हैं। इन दवाओं का कुशल और योग्य आयुर्वेद विशेषज्ञों के निर्देशन में सीमित अवधि तक सेवन करने से यह स्वास्थ्यकर व सुरक्षित रहता है। दूसरी ओर केवल कुछ भस्में ऐसी होती है जिनका संबंध जानवरों से होता है लेकिन इनमें भी जानवरों की हड्डियों का प्रयोग बिल्कुल नहीं होता है।

बेशक कुछ भस्मों में कौडिय़ों, शंखों या मोतियों के प्रयोग होता है मगर इसमें से भी जीव निकल चुके होते हैं तथा ये कैल्शियम के प्राकृतिक स्त्रोत होते हैं। उल्लेखनीय है कि आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति जहां सस्ती और निरापद है वहीं लोगो के पहुंॅच में भी है। दुर्गम आदिवासी एवं ग्रामीण क्षेत्रों के रहवासी आज भी परंपरागत प्राचीन घरेलू चिकित्सा पर ही विश्वास करते हैं।

यह अतिश्योक्ति नहीं होगी कि देश की बड़ी आबादी के बुनियादी चिकित्सा तथा प्रसवोत्तर महिला-शिशु स्वास्थ्य आज भी इन देशी चिकित्सा पद्धतियों के नुस्खों पर ही निर्भर हैं। आयुर्वेदिक दवाओं के बारे में यह धारणा भी आम हो चली है कि ये दवाएं महंगी होती तथा ये देर से अपना प्रभाव दिखाती है व इन उपचारों को काफी समय तक लेना होता है।

सच यह है कि चूंॅकि अधिकांश दवायें वनौषधियों से निर्मित होती हैं इसलिए आयुर्वेद पद्धति न्यूनतम खर्च में उपचार की क्षमता रखता है। केवल कुछ रोग विशेष में दी जाने वाली दवायें ही महंगी होती है जबकि एलोपैथिक की अधिकांश एंटीबायोटिक्स, उपचार एवं जांच अत्यंत महंगे होते हैं। चूंकि ज्यादातर रोगी आयुर्वेद उपचार तब लेते हैं जब उन्हें अन्य पद्धतियों से लाभ नहीं मिलता तब तक रोग की गंभीरता व जीर्णता बढ़ जाती है। इन वास्तविकताओं के चलते आयुर्वेद उपचार से त्वरित लाभ की आशा बेमानी है। आधुनिकीकारण के चलते अधिकांश आयुर्वेदिक दवायें अब टेबलेट, कैप्सूल या सिरप के रूप में भी उपलब्ध है।

इन तथ्यों से आयुर्वेद दवाओं के बारे में जारी भ्रम का निराकरण होता है। दरअसल आज जरूरत आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति के बारे में प्रचलित भ्रम और मिथकों को तोड़कर इसे अजमाने की है। बहरहाल भारत जैसे विकासशील और कमजोर अर्थव्यवस्था वाले देश में जहां कि दो तिहाई आबादी खर्चीली चिकित्सा का बोझ उठाने में असमर्थ हो रहा हो तथा ऐसे दौर में जब एलोपैथिक एंटीबायोटिक दवाएं अपना असर खो रही हो तब रोगों से बचाव ही एकमात्र उपाय हो सकता है।

इन उद्देश्यों में आयुर्वेद शत-प्रतिशत खरा उतरता है क्योंकि इस चिकित्सा पद्धति में 85 फीसदी हिस्सा स्वस्थ्य रहने के लिए है तथा 15 फीसदी हिस्सा रोगों के उपचार के लिए है। आयुर्वेद का मूल प्रयोजन ”स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणम्, विकारस्य विकार प्रशमनं च्” यानि स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा तथा व्याधिग्रस्त व्यक्ति के रोग की चिकित्सा है, विश्व स्वास्थ्य संगठन का लक्ष्य भी इन्हीं उद्देश्यों पर केंद्रित है।

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