सत्ता के नशे में 'दोषी' की पहचान : आलोक मेहता

सत्ता के नशे में ‘दोषी’ की पहचान : आलोक मेहता

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सिंहासन वही होता है। सत्ताधारी बदलते रहते हैं। पीछे लगे झंडे या सिर पर लगी टोपी का रंग बदल सकता है। अहंकार और आक्रोश समान रहता है। तभी तो संवेदनशील सुशासन के लिए प्रचारित नीतीश कुमार पटना और बिहार में भारी वर्षा, बाढ़, जल-भराव और लाखों लोगों की संकटमय स्थिति पर स्थिति में सुधार और राहत के सवाल पर बुरी तरह भड़क गए। नीतीश ने मीडिया को ही पूर्वाग्रही और दोषी ठहरा दिया कि पत्रकार बढ़ा-चढ़ाकर दिखा रहे लिख बोल रहे हैं।

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आपत्ति यहाँ तक कि देश के प्रमुख समाचार चैनल (media) के संवाददाता पटना क्यों आ गए? अनुभवी मुख्यमंत्री (chief minister nitish kumar) इतनी सी बात नहीं समझ सकते कि दिल्ली-मुंबई या देश-विदेश से आने वाले पत्रकार कम से कम पूर्वाग्रही हो सकते हैं। स्थानीय पत्रकार तो स्वयं बाढ़ या अन्य कारणों से सरकार से निजी नाराजग़ी रख सकता है। हाँ, कोप से बचने के लिए सिर झुकाकर लीपापोती करने वाले कुछ लोग हो सकते हैं। मुख्यमंत्री के अपने सहयोगी उप-मुख्यमंत्री सुशील मोदी तक जल जमाव की भारी अव्यवस्था से तीन दिन अपने घर में फंसे रहे। मेहरबान मुख्यमंत्री ने उन्हें निकालने की आपात व्यवस्था नहीं की।

अन्य नेता, अधिकारी, व्यापारी और सामान्य जनता मुसीबत झेलती रही। आश्चर्य की बात यह भी है कि नीतीश कुमार ने मुंबई और अमेरिका में भी भारी वर्षा और जल जमाव से तुलना कर दी। निश्चित रूप से मुंबई के भी कुछ इलाके, सड़कें कुछ दिन प्रभावित होती हैं। लेकिन अधिकांश दिनों में जनजीवन लोकल ट्रेन और अन्य सेवाओं से सामान्य बना रहता है।

बिहार में भी हर साल कहीं न कहीं बाढ़ हाती है। लेकिन सर्वाधिक संपन्न कही जाने वाली पाटलिपुत्र कालोनी में पिछले 25 वर्षों में जल निकासी की व्यवस्था न होने और पिछले वर्षों की तरह अस्पताल के आपात वार्ड तक में पानी भर जाने, पुलिस यानों में जल भराव को रोकने के लिए सरकार ने समय रहते कदम क्यों नहीं उठाए? यों अकेले नीतीश कुमार और उनकी सत्तारूढ़ पार्टी जनता दल (यू) ही नहीं भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल तथा कांग्रेस बिहार में राज करती रही है।

सत्ता या प्रतिपक्ष में रहकर वे भी एक-दूसरे को और मीडिया को ‘अपराधी’ ठहराने में नहीं चूकते। लालू प्रसाद यादव सत्ता या जेल में रहते हुए भी अपने विरोधियों और मीडिया के विरुद्ध जहर उगलते रहते हैं। भाजपा के कई नेता पुरानी धारणा के कारण मीडिया के एक वर्ग को पूर्वाग्रही मानकर चलते हैं।

सोलह साल से राजनीति कर रहे राहुल गांधी अपने-पराये की पहचान नहीं कर पाते और मीडिया को ‘कायर’, ‘बेचारा’ साबित करने में लगे रहते हैं। सुश्री मायावती, सुश्री ममता बनर्जी, साध्वी प्रज्ञा ठाकुर या दक्षिण भारत के चन्द्रबाबू नायडू, स्टालिन इत्यादि भी विरोधियों को दुश्मन तथा मीडिया कर्मी को ‘खलनायक’ अथवा ‘गुलाम’ की श्रेणी में रखने की कोशिश करते हैं।

यों पिछले चार वर्षों के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने मीडिया से नफरत के सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं। हाँ, संवैधानिक नियम-कानूनों की वजह से वह कोई कानूनी दंड देने की स्थिति में नहीं हैं। भारत में प्रदेशों के कुछ सत्ताधारी और उनकी पुलिस कानूनों को ताक पर रखकर झूठे मामले दर्ज करवाने से नहीं हिचकते।असली समस्या वर्तमान दौर में असहनशीलता की है।

असहमतियों को बर्दाश्त करना दूर रहा, लोगों को सुनना भी अच्छा नहीं लगता। स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश में विचारों के लिए हर खिड़की, दरवाजे खुले रखने की जरूरत होती है। चीन में कम्युनिस्ट राज के बावजूद दीवारों और पोस्टरों पर समस्याओं पर नाराजगी की बातें लिखी, देखी-पढ़ी जाती हैं।

ईरान में बुर्काधारी महिलाओं के प्रदर्शन के दृश्य मैंने स्वयं देखे हैं। पाकिस्तान में इन दिनों कुछ समाचार चैनलों या अखबारों में प्रधानमंत्री इमरान खान के कारनामों की धज्जियां उड़ाई जा रही है। फिर भारत जैसे देश में समझदार नेता इतने कठोर, अहंकारी क्यों होते जा रहे हैं?

इसका दूसरा बड़ा कारण यह है कि नेता ‘चुनाव प्रबंधन’ में माहिर हो गए हैं, लेकिन जमीन से कटते जा रहे हैं। यहाँ तक कि अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं और समर्थकों से दूरी बढ़ती जा रही है। वे ‘डिजिटल’ संपर्क पर विश्वास करने लगे हैं। इससे आवश्यक सूचनाएं मिल सकती हैं, दिल-दिमाग के दर्द का पता नहीं चल सकता है।

यही नहीं विभिन्न सरकारी या निजी व्यावसायिक एजेंसियों से सूचना पाने या प्रचार करवाने पर निर्भर रहने लगे हैं। प्रशांत किशोर जैसे अमेरिकी रिर्टन लोगां की चांदी हो जाती है, लेकिन संगठन, पंचायत, पार्षद, विधायक, दूसरी-तीसरी पंक्ति के मंत्री-सांसद तक की महत्ता नाम मात्र की रह जाती है। इसी वजह से समाज में हो रहे अ’छे काम, रचनात्मक गतिविधियों, यहां तक कि सरकार के जन कल्याण कार्यक्रमों-योजनाओं की सही जानकारियाँ लोगों को नहीं पहुंचती।

वैसे सत्ताधारी यह भी जानते हैं कि जनता की भागेदारी के बिना गाँव, शहर, प्रदेश, देश की प्रगति संभव नहीं है। महाराष्ट्र-गुजरात हो अथवा हरियाणा-पंजाब या आदिवासी बहुल छत्तीसगढ़- झारखंड ग्राम पंचायतों, सामाजिक -राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने सामाजिक- आर्थिक बदलाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

दुर्भाग्यवश बिहार-उत्तर प्रदेश जैसे प्रदेशों में राजनीतिक सत्ताधारियों ने जमीनी संस्थाओं को जेबी बना दिया। हाँ, भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने संगठनात्मक ढांचे का उपयोग किया। इसी का परिणाम हुआ कि उसे राष्ट्रीय स्तर पर पूर्ण बहुमत मिल गया। कुछ राज्यों में गुटबाजी या विधायकों-मंत्रियों की निष्क्रियता ने उसे पराजित भी किया है। लेकिन हरियाणा जैसे प्रदेश में पंचायत चुनाव में मैट्रिक की शिक्षा की अनिवार्यता से हुए चुनाव तथा पंचायतों को मिले अधिकारों से गाँवों में चमत्कारिक ढंग से बदलाव किया है।

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