Tulsa Racial genocide : अंधेरा अतीत को मिटा नहीं सकता

Tulsa Racial genocide : अंधेरा अतीत को मिटा नहीं सकता

Tulsa Racial Genocide : Darkness Can't Erase the Past

Tulsa Racial Genocide

आशीष वशिष्ठ। Tulsa Racial genocide : अमरीकी इतिहास के पन्नों पर टुल्सा नस्लीय नरसंहार अंकित है। 1921 में टुल्सा नरसंहार में 300 अफ्रीकी-अमरीकी लोग मार डाले गये और दस हजार से ज्यादा बेसहारा और बेघर हो गये। बीते वर्ष 2 जून को टुल्सा नस्लीय नरसंहार के 100 साल पूरे होने पर राष्ट्रपति बाइडेन पीडि़तों को श्रद्धांजलि दी। इस अवसर पर राष्ट्रपति जो बाइडन ने इतिहास को लेकर जो टिप्पणी की, वो काबिलेगौर है। राष्ट्रपति बाइडन ने कहा, ‘एक अरसे से इतिहास उस घटना की मूक गवाही दे रहा है, जो यहां घटी थी और अंधकार में दब कर रह गई।

परन्तु अगर अतीत चुप है तो इसका मतलब यह नहीं कि घटना घटी ही नहीं। और अंधेरा सिर्फ छिपा सकता है, अतीत को मिटा नहीं सकता। कुछ अन्याय इतने भयावह होते हैं कि उन्हें भुलाया नहीं जा सकता। केवल सच, न्याय और अतीत में मिले घावों पर मरहम लगाना ही एकमात्र उपाय है। सच का सामना कर हमें स्वीकारना होगा कि हमारे पास यह विकल्प नहीं है कि जो हम जानना चाहते हैं, सिर्फ वही जानें, और वह नहीं, जिसके बारे में जानना चाहिए। महान राष्ट्र अच्छे-बुरे सभी तरह के अतीत को स्वीकार करते हैं। जरूरत है अतीत को मुकम्मल कर राष्ट्र का पुनर्निर्माण किया जाए।’

बात अगर अपने देश की जाए तो हमारे इतिहास के पन्नों पर कई ऐसी दर्दनाक घटनाएं अंकित है, जिन्हें स्मरण करने मात्र से ही आंखों में आंसू भर जाते हैं। ऐसी ही एक दु:खद घटना है, कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों का पलायन। 19 जनवरी 1990 की सर्द सुबह थी। कश्मीर की मस्जिदों से उस रोज अजान के साथ-साथ कुछ और नारे भी गूंजे। यहां क्या चलेगा, निजाम-ए-मुस्तफा, कश्मीर में अगर रहना है, अल्लाहू अकबर कहना है और असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान मतलब हमें पाकिस्तान चाहिए और हिंदू औरतें भी मगर अपने मर्दों के बिना।

यह संदेश था कश्मीर में रहने वाले हिंदू पंडितों के लिए। सड़कों पर इस्लाम और पाकिस्तान की शान में तकरीरें हो रही थीं। हिंदुओं के खिलाफ जहर उगला जा रहा था। उस रात घाटी से पंडितों का पहला जत्था निकला। मार्च और अप्रैल के दरम्यान हजारों परिवार घाटी से भागकर भारत के अन्य इलाकों में शरण लेने को मजबूर हुए। कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अनुसार, जनवरी 1990 में घाटी के भीतर 75,343 परिवार थे। 1990 और 1992 के बीच 70,000 से ज्यादा परिवारों ने घाटी को छोड़ दिया। एक अनुमान है कि आतंकियों ने 1990 से 2011 के बीच 399 कश्मीरी पंडितों की हत्या की। पिछले 30 सालों के दौरान घाटी में बमुश्किल 800 हिंदू परिवार बचे हैं।

कश्मीर घाटी से हिंदुओं के विस्थापन और जिहादियों की ओर से उन पर हुए अत्याचारों पर केंद्रित फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्सÓ इन दिनों चर्चा में है। इस विषय पर अनेक पुस्तकें पहले ही आ चुकी थीं किन्तु उनकी पहुंच उतनी व्यापक न हो पाने से चर्चित होने के बाद भी वे बहुत ज्यादा प्रसारित नहीं हो सकीं किन्तु इस फिल्म को लेकर पूरे देश में विरोध और समर्थन के स्वर सुनाई दे रहे हैं। अमूमन इस तरह की फिल्में कब आती और चली जाती हैं ये पता ही नहीं चलता। इसीलिये उसके प्रदर्शन हेतु मात्र 600 सिनेमा स्क्रीन उपलब्ध करवाई गईं किन्तु महज तीन दिनों के भीतर उनकी संख्या 2200 तक पहुंचना इस बात का प्रमाण है कि दर्शक उसे हाथों-हाथ ले रहे हैं। फिल्म में अनुच्छेद 370 का और कांग्रेस का जिक्र होने से इसका सियासी फलक बड़ा हो गया है। कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी इस फिल्म को लेकर आमने-सामने खड़े दिखाई दे रहे हैं।

प्रधानमन्त्री सहित अनेक विशिष्ट हस्तियों ने उसे देखकर न सिर्फ प्रशंसा की अपितु उसे देखने की सिफारिश भी कर डाली। भाजपा शासित अनेक राज्यों ने उसे टेक्स फ्री भी कर दिया। दूसरी तरफ एक वर्ग विशेष उसके विरोध में मुखर हो उठा है। इसमें वामपंथियों के अलावा बुद्धिजीवियों और राजनेताओं की वह वर्ग भी शामिल है जिसे कश्मीर फाइल्स में मुस्लिम विरोध नजर आ रहा है। इनका कहना है कि तीन दशक पुराने उस हादसे को लोग भूलने लगे थे लेकिन इस फिल्म के कारण जो घाव समय के साथ भरने लगे थे, वे फिर से हरे हो जायेंगे। लेकिन इतिहास में जो पाप या अत्याचार हो चुका है उसे भूलने से उनकी पुनरावृत्ति की गुंजाईश ज्यादा रहती है।

कश्मीर फाइल्स (Tulsa Racial genocide) का विरोध और दुष्प्रचार ये उसी गिरोह का काम है जिसे भारत इसलिए रहने लायक नहीं लगता क्योंकि यहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सहिष्णुता का अभाव है। अवार्ड वापिसी के माध्यम से खुद को मानवाधिकारों का पहरुआ साबित करने वाले इन लोगों को याकूब मेनन की फांसी रुकवाने के लिए राष्ट्रपति को हस्ताक्षरित ज्ञापन देने में तो शर्म नहीं आई किन्तु कश्मीरी पंडितों पर हुआ अमानवीय व्यवहार इनके लिये भूल जाने योग्य वाकया है। ये वही लोग हैं जिन्हें अफजल गुरु निर्दोष लगता था और जेएनयू में भारत तेरे टुकड़े होंगे जैसे नारे लागाने वाले आजादी के सिपाही।

ये अवधारणा गलत नहीं है कि कश्मीर में रहने वाले आम मुसलमान मन ही मन अलगाववाद के समर्थक थे। वैसे इसका एक कारण उनके मन में आतंकवादियों के हाथों मारे जाने का डर भी था परन्तु ये त्रासदी तो पंजाब में खालिस्तानी आतंक के दौर में सिखों ने भी तो भोगी और नक्सल प्रभावित इलाकों के लोगों को भी उनकी हिंसा का शिकार होना पड़ता है। लेकिन जब आतंकवाद की जड़ों में मठा डालने के लिए संविधान की धारा 370 और 35-ए हटाई गई तब उसका विरोध जितना कश्मीर घाटी में हुआ उतना ही देश के अन्य हिस्सों में रहने वाले उन नेताओं, बुद्धिजीवियों और पत्रकारों ने भी किया जिनकी नजर में केंद्र सरकार का वह कदम मानवाधिकारों का उल्लंघन था।

मूल प्रश्न तो ये है कि कश्मीरी मुसलमान आतंकवादियों के जनाजे में पकिस्तान समर्थक नारे लगाते हुए क्यों शामिल होते रहे? किसी मकान में घुसे आतंवादियों को घेरने वाले सुरक्षा बल के जवानों पर पत्थर फेंकने वाले कश्मीरी मुसलमान इसीलिये सहानुभूति के पात्र नहीं बन सके। बुरहान बानी जब सुरक्षा बलों द्वारा घेर लिया गया तब लोगों की भीड़ उसे बचाने जमा हो गई थी। कश्मीर फाइल्स के विरोध ने इन शक्तियों का वास्तविक रूप सामने ला दिया है। पिछले दिनों पांच राज्यों के चुनाव परिणामों से मिली निराशा भी इस फिल्म के विरोध के पीछे है। वास्तव में, देश विरोधी शक्तियां राष्ट्रवाद की किसी भी प्रयास का इसी तरह विरोध करती हैं। यूरोप में आज भी द्वितीय विश्व युद्ध पर फिल्में बनती हैं। भारत के विभाजन पर भी ‘गर्म हवा’ और ‘तमस’ जैसी फिल्मे बनीं। अनेकानेक पुस्तकों का प्रकाशन भी हुआ।

जिस तरह महात्मा गांधी पर बनी फिल्म (Tulsa Racial genocide) में उन्हें गोली मारते नाथूराम गोडसे को दिखाया जाना इतिहास के साथ न्याय है उसी तरह कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचारों का वास्तविक प्रस्तुतीकरण न्यायोचित है। अतीत को भूला देना अपने अस्तित्व से अपरिचित हो जाने जैसा होगा। भारत के विभाजन की दर्दनाक घटना इसलिए याद रखना जरूरी है ताकि हम देश की अखंडता की कीमत को जान सकें। कश्मीर में बीते सात दशक के दौरान तमाम ऐतिहासिक गलतियां हुई हैं। उन्हें भूल जाने से नई गलतियों की जमीन तैयार होने का खतरा बना रहेगा। कश्मीरी पंडितों की नई पीढ़ी उस त्रासदी के बाद युवा हो चुकी है। उसे अपने पूर्वजों पर आई उस विपत्ति की जानकारी मिलनी ही चाहिए। और देशवासियों को भी यह सच जानने का अधिकार है कि कैसे कष्ट कश्मीरी पंडितों ने उठाये हैं।

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