Politics : आजमगढ़ और रामपुर के जनादेश का निहितार्थ

Politics : आजमगढ़ और रामपुर के जनादेश का निहितार्थ

Politics : Implication of Mandate of Azamgarh and Rampur

Politics

डॉ. श्रीनाथ सहाय। Politics : इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश की राजनीति में उत्तर प्रदेश का विशेष स्थान है। यहां होने वाले छोटे से छोटे चुनाव नतीजों को देश की राजनीति का मूड समझने का पैमाना मान लिया जाता है। ये कहा जाए कि यूपी चुनाव के नतीजे देश की भावी राजनीति की दिशा और दशा तय करते हैं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। पिछले दिनों उपचुनाव के नतीजे घोषित हुए। देशभर की नजरे यूपी के आजमगढ़ और रामपुर सीटों के नतीजों पर गढ़ी थी।

आजमगढ़ सीट समाजवादी पार्टी के प्रमुख एवं पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और रामपुर सीट दिग्गज नेता आजम खां के इस्तीफे के बाद खाली हुई थी। आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा सीटों पर मुस्लिम आबादी की बहुलता है। रामपुर में यह आबादी 50-55 फीसदी से ज्यादा है। आजमगढ़ में मुस्लिम और यादव 50 फीसदी से अधिक हैं। ये दोनों लोकसभा क्षेत्र समाजवादियों के मजबूत गढ़ रहे हैं। औसतन मुस्लिम वोट आज भी मोदी और भाजपा के खिलाफ हैं। ऐसे में भाजपा ने आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा सीटें जीतकर सबको चैंका दिया है।

आजमगढ़ से भोजपुरी फिल्मी सितारे दिनेश लाल यादव निरहुआ और रामपुर से घनश्याम लोधी ने जीत हासिल की। आजमगढ़ में तो सपा की हार का कारण बसपा प्रत्याशी गुड्डू जमाली बने जिन्होंने तकरीबन दो लाख मत हासिल कर लिए। उन्हें बड़ी संख्या में मुस्लिम मत मिलने से सपा को भारी नुकसान हुआ। इस सीट पर अखिलेश ने अपने चचेरे भाई धर्मेन्द्र को उतारा था। लेकिन रामपुर में 55 फीसदी मुस्लिम मतदाता होने के बावजूद सपा के आसिम राजा का 42 हजार से हार जाना सपा की चिंता बढ़ाने वाली बात है।

इन परिणामों ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के राजनीतिक (Politics) कद को और ऊंचा कर दिया। सबसे अच्छी बात ये हुई कि उ.प्र में जाति आधारित राजनीति अपना असर खोती जा रही है वहीं मुस्लिम मतदाताओं की भाजपा विरोधी गोलबंदी भी कारगर साबित नहीं हो रही। कहा जा रहा है कि मुस्लिम समुदाय का कुछ हिस्सा भाजपा की तरफ झुक रहा है जिसकी वजह सपा की गिरती साख और धाक है। मुलायम सिंह यादव के अस्वस्थ होने के कारण अखिलेश के हाथ जबसे पार्टी की कमान आई है तबसे वह लगातार बिखराव और भटकाव का शिकार हो रही है।

वास्तव में मुसलमानों के मन में ये बात घर करने लगी है कि सपा के भरोसे वे अपना राजनीतिक महत्व बरकरार नहीं रख पा रहे। कांग्रेस डूबती नाव है और बसपा अपने बनाये जाल में फंस चुकी है। इस कारण उ.प्र के मुसलमानों के मन भी उथल-पुथल है। राम मंदिर का निर्माण तेजी से होने के साथ ही एक तरफ ज्ञानवापी मस्जिद का विवाद गरमाया और दूसरी तरफ मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि के मामले को भी हवा मिलने लगी।

इस सबके बीच सपा या अन्य गैर भाजपा पार्टियाँ जिस तरह असहाय बनी हुई हैं उससे मुसलमानों को लगने लगा है कि या तो उनका अपना नेतृत्व होना चाहिए अथवा भाजपा के अंधे विरोध से बचकर उन्हें उसके साथ समन्वय बनाकर चलना चाहिए। अनेक मुस्लिम धर्मगुरुओं ने भी ज्ञानवापी और हाल ही में उठे नूपुर शर्मा विवाद पर जिस तरह का समझौतावादी रुख अपनाया वह इस बात का संकेत है कि मुस्लिम समुदाय के बीच भाजपा को लेकर विमर्श शुरू हो गया है।

सवाल यह भी है कि क्या अब मुसलमान भी प्रधानमंत्री मोदी की राष्ट्रीय योजनाओं और गरीबोन्मुख कार्यक्रमों पर यकीन करने लगे हैं, क्योंकि हिस्सेदारी उन्हें भी मिल रही है? क्या मुसलमानों का एक तबका अब भाजपा को ‘अछूत’ नहीं मानेगा और इसी तरह जनादेश देकर भाजपा को भी मौका देगा? सारांश में आजमगढ़ और रामपुर के जनादेशों को क्या 2024 के आम चुनाव का कोई स्पष्ट संकेत माना जा सकता है? मुख्यमंत्री योगी ने 2024 में उप्र की सभी 80 लोकसभा सीटें जीतने का दावा किया है। बहरहाल आजमगढ़ से भाजपा उम्मीदवार, भोजपुरी फिल्मों के सुपर स्टार, दिनेश लाल यादव ‘निरहुआ’ ने 8679 मतों से सपा के धर्मेन्द्र यादव को हराया है।

जनादेश का यह फासला बहुत चैड़ा नहीं है। यदि बसपा उम्मीदवार नहीं होता, तो नतीजा कुछ भी हो सकता था। यह सीट अखिलेश यादव के इस्तीफे से खाली हुई थी, क्योंकि अब वह विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं। रामपुर क्षेत्र में पुराने सपा नेता आजम खान का ऐसा जलवा रहा है कि उन्होंने जेल में रहते हुए ही विधानसभा का चुनाव जीता है। सांसदी से उनके इस्तीफे के बाद ही यह सीट खाली हुई थी, लेकिन भाजपा के जिस प्रत्याशी घनश्याम लोधी ने 42,192 मतों से सपा नेता आसिम रजा को पराजित किया है, वह खुद सपा से भाजपा में आयातित हैं और 12 साल तक विधायक भी रहे हैं। साफ है कि भाजपा के पक्ष में कोई ‘क्रांतिकारी धुव्रीकरण’ नहीं हुआ है।

फिर भी ये चुनावी जीत तो हैं। इनसे लोकसभा में सपा के मात्र 3 सांसद रह जाएंगे और भाजपा की संख्या फिर 303 हो जाएगी। भाजपा की तुलना में सपा, अखिलेश यादव के नेतृत्व में, 2014 का लोकसभा, 2017 का विधानसभा, 2019 का लोकसभा और अब 2022 का विधानसभा चुनाव लगातार हारी है। भाजपा की ठोस चुनावी रणनीति को समझा जा सकता है। बेशक उपचुनाव थे, लेकिन मुख्यमंत्री योगी ने सभाओं को संबोधित किया और मंत्रियों से लेकर आम काडर तक सभी अपने-अपने स्थान पर सक्रिय रहे। जनादेश सामने हैं। समाजवादियों के गढ़ ढहाए हैं और वहां अपनी सत्ता स्थापित की है। अब पार्टी का उन क्षेत्रों में भी विस्तार किया जाएगा।

विधानसभा चुनाव में मिली हार के झटके से अखिलेश अभी तक उबर नहीं पाए हैं। यदि यही हाल रहा तो 2024 का लोकसभा चुनाव आते-आते तक सपा भी शिवसेना जैसी हालत में आ जाए तो आश्चर्य नहीं होगा क्योंकि मुलायम सिंह यादव के हाशिये पर चले जाने के बाद अखिलेश का जो रवैया है उसकी वजह से पार्टी का एकजुट बने रहना संभव नहीं लगता। यादवों के साथ मुसलमानों को जोड़कर बनाया गया एम. वाय समीकरण काठ की हांडी साबित हो चुका है। 2014 और 2019 के लोकसभा के अलावा 2017 तथा 2022 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने उ.प्र में जिस तरह अपने प्रभाव क्षेत्र में वृद्धि की वह साधारण बात नहीं है।

भाजपा जहां अपने मौलिक एजेंडे पर चलते हुए 80 लोकसभा सीटों वाले इस प्रदेश में अपनी पकड़ मजबूत करती जा रही है वहीं सपा आत्ममुग्धता की शिकार होकर अपने मजबूत किले गंवाती जा रही है। इन नतीजों के लिए सपा के नए सहयोगी ओमप्रकाश राजभर ने अखिलेश को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि वे अपने वातानुकूलित कमरे से ही बाहर नहीं निकले और नामांकन के अंतिम दिन प्रत्याशी घोषित किये। उन्होंने यहाु तक कह दिया कि यदि वे स्वयं और उनके साथी आजमगढ़ में मोर्चा नहीं संभालते तो हार लाखों में होती।

आजमगढ़ और रामपुर के उपचुनाव परिणाम अखिलेश यादव के लिए बहुत बड़ा झटका है। इससे अपनी पार्टी के भीतर भी उनकी वजनदारी में कमी आयेगी। और सबसे बड़ी बात ये है कि सपा संस्थापक मुलायम सिंह अब उस स्थिति में नहीं रह गये कि उनकी ढाल बन सकें।

ऐसे में शिवपाल यादव और आजम खान ज्यादा दिन खामोश नहीं बैठेंगे। आगामी दिसंबर में नगर निगम के चुनाव होने है। उपचुनाव (Politics) के नतीजों से बीजेपी को मनोवैज्ञानिक बढ़त मिली है। ऐसे में लगता है कि आने वाले दिनों में समाजवादी पार्टी और अखिलेश की मुश्किलें बढऩे वाली हैं।

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