Taliban Radical Thought : आसान नहीं तालिबान की दूसरी पारी

Taliban Radical Thought : आसान नहीं तालिबान की दूसरी पारी

Taliban Radical Thought: Not easy Taliban's second innings

Taliban Radical Thought

प्रेम शर्मा। Taliban Radical Thought : लगभग ढाई दशक बाद तालिबान ने अपनी कट्टरवादी सोच के साथ एक बार फिर अफगान पर अपना कब्जा कर लिया है। तालिबानी सरकार के गठन को लेकर ऊहापोह की स्थिति बनी हुई है। सरकार के नेतृत्व को लेकर अब तक दो बार सरकार गठन टल चुका है।

खाद्यान्न संकट के साथ नई तालिबानी सरकार के समक्ष तमाम चुनौतियॉ भी खड़ी है। ऐसे में तालिबानी सरकार की दूसरी पारी की उम्र कितने दिनों की होगी इसका आभास सरकार के गठन से पूर्व ही होने लगा है। अफगान कब्जें से पूर्व तक तालिबानी नेताओं की एकजुटता अफगान पर कब्जें के साथ गुटबाजी में बदल चुकी है।

अभी तक यह कहा जा रहा था कि तालिबान के मुखिया मुल्ला हैब्तुल्लाह अखुंदजादा सर्वोच्च नेता होगें। तालिबान के सह संस्थापक मुुल्ला अब्दुल गनी बरादर सरकार का नेतृत्व करेगें। तालिबानी संस्थापक के बेटे मुल्ला याकूब, हक्कानी नेटवर्क के सिराजुद्दीन और शेर मोहम्मद अब्बास को सरकार में महत्वपूर्ण जिम्मेदाीर दी जाएगी। लेकिन अफगान में सरकार गठन को लेकर पल पल समीकरण बदल रहे है

तालिबानियों के विरोध में प्रदर्शन और तालिबानियों (Taliban Radical Thought) द्वारा अफगान में में एक समावेशी सरकार बनाने का वायदा, ईरान माडल पर सरकार बनाने, तालिबानी सरकार को वैश्विक मान्यता, धराशायी हो चुकी अर्थव्यवस्था, कई राष्ट्रों व्यापार की बंदी और अपने मिजाज के अनुसार अमरीका द्वारा पुन: अफगान में हमले की आशंका के बीच तालिबानी सरकार की दूसरी पारी का भविष्य अंधकार से भरी सुरंग सा दिखाइ्र पड़ रहा है। सरकार बनाने को लेकर याकूब और हक्कानी गुटों के बीच तलवारे खिचती नजर आ रही है।

भले ही तालिबान इससे पहले भी 1996 से 2001 तक तालिबान पर शासन कर चुका हो लेकिन अब उसकी यह पारी उसे भारी दिखाई पड़ रही है। तालिबानियों के समक्ष सरकार गठन के साथ दो तरह की चुनौतियाँ है- पहली चुनौती वो जो सरकार बनने के समय पेश आएगी और दूसरी चुनौती वो जो नई सरकार के गठन के बाद शुरू होगी। जो स्थिति काबूल और अफगान के अलग अलग प्रान्तों में बनी है उसके अनुसार तालिबान के अंदर भी गुटबाजी कम नहीं है। अब तक तालिबान एकजुट थे।

अमेरिका को अफगानिस्तान से बाहर करने के इरादे से. लेकिन एक बार उन्होंने लक्ष्य पा लिया है। तो इनकी आपसी गुटबाजी भी निकल कर सामने आएगी। बहरहाल हिब्तुल्लाह अखुददजादा अभी तालिबान में नंबर एक की हैसियत रखते हैं. उनकी नेतृत्व क्षमता के बारे में अभी लोगों को ज्यादा नहीं पता है। अगर वो नई सरकार के सबसे बड़े नेता होंगे, तो माना जाएगा कि पॉलिटिकल लीडरशिप की सरकार बनाने में ज्यादा चली। दूसरी तरफ तालिबान के मिलिट्री कमांडर हैं सिराजुद्दीन हक्कानी. तालिबान में इन्हें नंबर दो का दर्जा प्राप्त है।

ये गुट दूसरों को अपने साथ लेकर चलने में ज्यादा विश्वास नहीं रखता। तालिबान का दौर अब तक का संघर्ष वाला दौर रहा है। ऐसे में सिराजुद्दीन हक्कानी को अब तक ज्यादा ताकघ्त हासिल थी। अब उन्हें नई सरकार में क्या जिम्मेदारी मिलती है? वो किस किस को साथ लेकर चलते हैं ? ये चुनौती भी सरकार के गठन के दौरान सामने आएगी।

भले ही 1996 से 2001 तक तालिबान (Taliban Radical Thought) ने सरकार चलाई हो लेकिन उस वकत तालिबान ने सरकार चलाने का कोई मॉडल दुनिया के सामने पेश नहीं किया था। आज की परिस्थिति 90 की दशक की संघर्ष की स्थिति से बिल्कुल अलग है। सरकार चलाने के लिए तालिबान को अलग तरह के लोगों की जरूरत होगी। सरकार में उन्हें जानकार, विशेषज्ञ, ब्यूरोक्रेट्स, प्रशासन चलाने के अनुभवी, नियम कानून के जानकार, एक तरह के संविधान और प्रशासन में पारदर्शिता की जरूरत होगी। लेकिन स्थिति बिलकुल विपरीत है।तालिबान में शामिल लोगों को किसी तरह की महारत हासिल नहीं है। ऐसे में देखना होगा, वो किन लोगों की मदद लेते हैं और इस तरह के अनुभवी लोग कहाँ से लाते हैं।

हालांकि तालिबानी नेता सरकार बनाने के लिए पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई, अफगानिस्तान की उच्च सुलह परिषद के प्रमुख रहे डॉक्टर अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह , पूर्व प्रधानमंत्री गुलबुद्दीन हिकमतयार, 2012 में तालिबान विद्रोहियों के साथ शांति वार्ता करने लिए चुने गए प्रतिनिधि सलाउद्दीन रब्बानी से सलाह ले रहे है। लेकिन इनमें से सरकार में किसे जगह मिलती है और उनकी सरकार में कितनी चलती है – ये भी तालिबान की नई सरकार और उसकी चुनौतियों के बारे में बहुत कुछ स्पष्ट कर देगा।

यही नही सरकार बनते ही तालिबान चाहेगा कि दुनिया के बड़े देश उनकी सरकार को मान्यता दें। भले ही चीन, रूस, पाकिस्तान जैसे देशों की तरफ से तालिबान (Taliban Radical Thought) के लिए उत्साह वाले बयान जरूर आए हैं। लेकिन अभी तक किसी ने उन्हें मान्यता नहीं दी है। ज्यादातर देश उनकी सरकार का पहला स्वरूप देखने का इंतजार कर रहे हैं। तालिबान की नई सरकार के लिए अंतरराष्ट्रीय इसलिए भी जरूरी है क्योंकि फॉरेन फंडिंग अब बंद हैं। अफगानिस्तान सरकार का 75 फीसदी खर्च इसी विदेशी मदद पर निर्भर करता है।ऐसे में अमेरिका और आईएमएफ से फंडिंग रोकने से सरकार चलाना मुश्किल हो सकता है।

अनुमान यह कि फंडिग न मिलने से सरकार तीन माह चलाना मुश्किल होगा। अफगानिस्तान की जीडीपी का आधा हिस्सा विदेशी मदद के जरिए आता था. अब वो विदेशी मदद बिल्कुल बंद हो चुकी है। इस वजह से वहाँ आर्थिक गतिविधियाँ फिलहाल बंद पड़ी हैं। लोगों को वेतन नहीं मिल रही. जगह-जगह परिवार भुखमरी के शिकार हो रहे हैं। ऐसे में बहुत जरूरी है कि नई सरकार सबसे पहले अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना पहाड़ में सुरंग बनाने से कम न होगा।

तालिबान के सामने नॉर्दन एलायंस ने आसानी से घुटने कभी नहीं टेके हैं। इससे पहले भी पंजशीर में वो कब्जा नहीं कर पाए थे। वहाँ के विद्रोह को पूरी तरह से खघ्त्म नहीं किया जा सकता है। तालिबान चाहेगा कि कैसे बातचीत के जरिए या सरकार गठन में उनको जगह दे कर इस विद्रोह से छुटकारा पाया जा सके। यही नही तालिबान को आईएसआईएस-के और अल-कघयदा जैसे चरमपंथी संगठनों से भी चुनौती मिल सकती है।

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