विशेष आलेख : एक नदी-गान का राज्य गीत हो जाना..
सतीश जायसवाल,वरिष्ठ पत्रकार, कथाकार एवं लेखक
रायपुर/नवप्रदेश। किसी एक नदी-गान का ‘राज्य-गीत’ (Rajya Geet) हो जाना एक उल्लेखनीय सांस्कृतिक घटना है। उतनी ही महत्वपूर्ण भी। यह महत्वपूर्ण घटना छत्तीसगढ़ में घटित हुयी। डॉ0 नरेन्द्र देव वर्मा का नदी-गान छत्तीसगढ़ का ‘राज्य-गीत’ हो गया। इस सांस्कृतिक घटना को तो 20 वर्ष पहले ही यहाँ घटित हो चुकना था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
एक नवोदित राज्य को अपनी संस्कृति-नीति निर्धारित करने के लिए समय चाहिए था। इसके लिए दृढ राजनैतिक इच्छा-शक्ति की जरूरत थी। यह इच्छा-शक्ति मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के पास थी। एक सांस्कृतिक दिशा निर्धारण की भी जरूरत थी। अब वह दिशा दिख रही है। नदी वह दिशा है। डॉ0 नरेंद्र देव वर्मा का नदी-गान उस दिशा को सम्बोधित करता है अरपा-पैरी के धार, महानदी हे अपार एक नदी अपनी सभी नदियों को आत्मसात करके नदी से महानदी होती है।
छत्तीसगढ़ की सभी छोटी-बड़ी नदियाँ अपने जल के साथ आकर महानदी से मिलती हैं। तब महानदी अपार हो जाती है। छोटी-बड़ी नदियाँ अपनी-अपनी सांस्कृतिक-धाराओं के साथ आकर महानदी के साथ मिलती हैं। और मिलकर एक वृहत्तर जल-संस्कृति की रचना करती हैं। छत्तीसगढ़ का अपना सांस्कृतिक मानचित्र नदी-जल से निर्धारित है। नरेन्द्र देव वर्मा का नदी-गान उसकी स्तुति करता है। जहाँ तक इन नदियों का विस्तार है, यह मानचित्र वहाँ तक प्रसारित है। इसमें किसी भी संकीर्ण भौगोलिक-राजनैतिक और सामाजिक सीमाबद्धता से विमुक्त एक समावेशी सांस्कृतिक दृष्टि का आग्रह है। यह काव्य-दृष्टि इस नदी-गान को असाधारण बनाती है। तब हम इसके रचयिता को विस्मय के साथ देखते हैं जिसने आज,आधी सदी से भी पहले यह रचना की ! नरेन्द्र देव वर्मा अपने समय से बहुत आगे देख रहे थे, लेकिन समय से पहले चले गए।
आज उनकी जरूरत उनके अपने समय से अधिक थी। क्योंकि आज उनके इस गीत के भाष्य की जरूरत है। इसकी क्षमता उनके पास थी। अब वह दृष्टि हमें अपने में विकसित करनी होगी। उनका यह गीत नदी का वन्दन-गान है। यह वन्दन-गान किसी एक नदी को नहीं, बल्कि हमारी सभी नदियों को सम्बोधित है। नदी-जल को,जल-धारा को सम्बोधित है। जल-धारा प्रवहमान होती है,उसमें नैरन्तर्य होता है। महानदी छत्तीसगढ़ की जीवन-रेखा है। यह दो जल-संस्कृतियों को आपस में जोड़कर रखती है। छत्तीसगढ़ और ओडिशा की संस्कृतियों को। दोनों की अपनी-अपनी भाषा,प्रथा-परम्पराओं और पैतृक-मातृक नाते-रिश्तों को भी।नरेन्द्र देव की यह नदी वन्दना दो सांस्कृतिक धाराओं को एक-दूसरी की पूरक बनाती है।
नदियाँ उतनी ही नहीं होतीं,जितनी किसी एक राज्य के राजस्व सीमांकन के भीतर उनकी जल-धारा का प्रवाह दिखता है। बल्कि,नदी वहां तक होती है जहाँ उसका स्रोत है। कोई एक नदी वहाँ तक भी होती है जहाँ वह किसी दूसरी जल-धारा में समाहित होकर और व्यापक हो जाती है। एक सांस्कृतिक-धारा एक अन्य सांस्कृतिक-धारा के साथ मिलकर और भी व्यापक होती है। और वहाँ एक नया भाषायी रूप-विधान भी रचती है। यह संधि-क्षेत्र का भाषायी रूप विधान होता है। बड़ा मायावी होता है। भाषा की यह मायावी रूप-रचना छत्तीसगढ़ (Rajya Geet) और ओडिशा के संधि-क्षेत्र में स्पन्दित होती हुई मिलती है। दृष्टव्य भी होती है।
छत्तीसगढ़ी और ओडिय़ा भाषाएँ यहाँ एक-दूसरी के साथ मिलकर एक और रूप रचती हैं। और लरिया हो जाती हैं। महानदी की जलधारा के साथ-साथ प्रवाहित नरेन्द्र देव का मन वहाँ पर होता है। वह इस माया के साक्षात होते हुये का साक्ष्य करता है। वहाँ पर हम भाषाओँ के व्यापकीकरण का साक्षात्कार करते हैं। तब समझ पाते हैं कि अपने एक बड़े कवि को किसी भाषायी सीमाबद्धता में देखना उसके बड़प्पन से विमुख होना ही होगा। नरेन्द्र देव वर्मा को छत्तीसगढ़ी के साथ एक-इकहरा बांधकर हम नहीं समझ पाएंगे। उनकी काव्य-भाषा छत्तीसगढ़ी या हिन्दी से बहुत आगे नदी या नदी-जल या अंततोगत्वा, प्रकृति की भाषा है। कभी महानदी की जल-धारा उसे प्रवहमान बनाती है। कभी,अंत:सलिला अरपा भी उसे काव्य-प्रवाह देती है।
नरेन्द्र देव वर्मा से पहले, छत्तीसगढ़ के हमारे पूर्वज कवि मुकुटधर पाण्डेय ने भी इसी, प्रकृति की भाषा में अपने को अभिव्यक्त किया था।और महानदी के साथ सीधे संवाद किया इतनी जल्दी, महानदी तू कहाँ दौड़ती जाती है.. या, महानदी के तट पर डेरा डाले हुए कुररी पक्षियों को देखते हुए भी प्रकृति को ही सीधे सम्बोधित कर रहे थे।छत्तीसगढ़ के ही अपने प्रभात त्रिपाठी भी हैं। उनका कवि-मन तो प्रकृति के विश्वास के साथ ही आबद्ध है। वह छत्तीसगढ़ का मन है। उसे अकेले छत्तीसगढ़ी या हिंदी या ओडिय़ा भाषा में कैसे बाँधा जा सकता है ? प्रकृति को किसी एक भाषा में कैसे बांधा जा सकता है कवि-मन तो नदी की अंतर्जल-धारा का भी स्पर्श कर लेता है। अरपा, पैरी, के धार.. की अरपा नदी तो अंत:सलिला ठहरी। दिखने में सूखी, रेत-रेत। प्रभात ने इस सूखी नदी के भूगर्भ की नदी का भी स्पर्श कर लिया। और कहा सूखी है नदी,अरपा फिर भी नदी है प्रभात और नरेन्द्रदेव तो समकालीन ही हुये ! लेकिन यहाँ पर दोनों अपने एक पूर्वज कवि, मुकुटधर पाण्डेय के कितने नजदीक मिल रहे हैं !
यह बहुत आश्चर्यजनक भी नहीं लगना चाहिये। क्योंकि तीनों, किसी एक भाषायी सीमाबद्धता से परे, प्रकृति की भाषा के कवि हैं। प्रकृति से आबद्ध कवि। प्रकृति के साथ यह आबद्धता हमें नदियों को समझने की दृष्टि देती है। वह नरेन्द्र देव (Rajya Geet) की काव्य-दृष्टि है। उनकी यह काव्य-दृष्टि छत्तीसगढ़ में प्रवाहित सभी नदियों को अपने में समेटती है। आत्मसात करती है। किसी भी राजस्व सीमा से विमुक्त उनको,उनकी जलधाराओं को। जल-धाराओं का प्रवाह वन-पर्वतों से उतरता है और नदी बन जाता है। खेत- मैदान में किसी कुण्ड या उपके से प्रस्फुटित जलधारा नदी बन जाती है। छोटे-छोटे नाले आते हैं, आकर आकर नदी से मिलते हैं और नदी को नदी बनाते हैं। नदी किसी बड़ी नदी से मिलकर बड़ी होती है और नदी से महानदी बन जाती है। समुद्र की होकर समुद्र हो जाती है। लघु से विराट की यह यात्रा विस्मयकारी है। समाहित होकर छोटी से छोटी नदी भी समुद्र हो जाती है। भाषा का भी ऐसा ही है।
नरेन्द्र देव वर्मा का यह गीत अरपा-पैरी के धार, महानदी हे अपार हमारे लिए उस यात्रा-पथ का मानचित्र है। यह मानचित्र एक समावेशी भाषायी समाज का पता देता है। नरेन्द्र देव वर्मा के इस गीत को हम छत्तीसगढ़ी में पढ़ते हैं तो वह एक-इकहरी भाषा का पाठ होता है। जब हम इसे प्रकृति की भाषा में पढ़ते हैं तो यह नदी-गान हो जाता है। नदियां अपने-अपने भाषायी-पाठ लेकर आने लगती हैं। एक-दूसरी में समाहित होने लगती हैं। तब संधि-क्षेत्र के भाषायी रूप-विधान की माया अपनी पूरी सक्रियता में साक्षात होती है। छत्तीसगढ़ी और ओडिय़ा की तरह शंख या कनहर के इस पार और उस पार छत्तीसगढ़ी के साथ मिलकर सरगुझिया या कुड़ुंख़ हो जाती है। इंद्रावती-शंखिनी-डंकिनी से लेकर गोदावरी तक छत्तीसगढ़ी के साथ मिलकर गोंड़ी या हल्बी की रूप-रचना होने लगती है। तब छत्तीसगढ़ी का यह गीत अपनी समग्रता में छत्तीसगढ़ का हो जाता है। इसका पाठ नदी की जल-धारा के साथ मिलकर अपने वृहताकार में प्रसारित होने लगता है।