Presidential Election : राष्ट्रपति चुनाव एनडीए के दांव से विपक्ष पस्त

Presidential Election : राष्ट्रपति चुनाव एनडीए के दांव से विपक्ष पस्त

Presidential Election: Presidential election defeated by NDA's bets

President Election

डॉ. ओ.पी. त्रिपाठी। Presidential Election : राष्ट्रपति चुनाव के लिए भारतीय जनता पार्टी और विपक्ष ने अपने उम्मीदवारों के नाम की घोषणा कर दी है। बीजेपी ने सबको चैंकाते हुए ओडि़शा की आदिवासी महिला नेत्री और झारखण्ड की पूर्व राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू पर दांव खेला है। द्रौपदी मुर्मू छह साल एक महीने तक झारखंड के राज्यपाल पद पर अपनी सेवा दे चुकी हैं। वहीं, राष्ट्रपति चुनाव को लेकर विपक्षी ने उम्मीदवार के तौर पर यशवंत सिन्हा के नाम का एलान किया। सिन्हा दो बार केंद्रीय वित्त मंत्री रह चुके है। पहली बार वह 1990 में चंद्रशेखर की सरकार में और फिर अटल बिहारी वाजपेयी नीत सरकार में वित्त मंत्री थे। वह वाजपेयी सरकार में विदेश मंत्री भी रहे हैं। दोनों पक्षों की ओर से अपने-अपने उम्मीदवारों का ऐलान कर दिया गया है। इसके बाद से ही सियासी समीकरण साधने की कोशिशें शुरू हो गई हैं।

बीजेपी ने द्रौपदी मुर्मू के नाम पर मुहर लगाकर एक तीर से दो निशाने साधने की कोशिश की है। राजनीतिक जानकारों की मानें तो चुनाव में बीजेपी नेतृत्व वाले एनडीए का पलड़ा भारी है। लिहाजा देश का अगला राष्ट्रपति बनने का द्रौपदी मुर्मू लगभग सफर तय माना जा रहा है। संसद के दोनों सदनों के सांसद और सभी राज्य विधानसभाओं के निर्वाचित विधायक भारत के राष्ट्रपति के चुनाव के लिए मतदान करते हैं। इस तरह से लोकसभा के 543 और राज्यसभा के 233 सांसद नए राष्ट्रपति को चुनने के लिए 18 जुलाई को मतदान करेंगे। इनके अलावा देशभर की विधानसभाओं के कुल 4,809 एमएलए भी अपने मताधिकार का इस्तेमाल करेंगे।

राष्ट्रपति चुनाव (Presidential Election) में विपक्षी एकता का प्रयास दरअसल अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा विरोधी गठबंधन की बुनियाद को मजबूती प्रदान करने की दिशा में बढ़ाया गया कदम था। इसकी शुरुआत पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा गत 15 जून को दिल्ली में बुलाई गई विपक्षी दलों की बैठक से की गई थी। हालांकि उसके पहले तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने भी दिल्ली में गैर भाजपा दलों के नेताओं से बात कर विपक्षी एकता का पांसा चला था। लेकिन राष्ट्रपति चुनाव संबंधी पहल ममता द्वारा ही की गयी। उस बैठक में कुछ भी ठोस निकलकर सामने नहीं आया क्योंकि अनेक विपक्षी दल उससे दूर ही रहे।

वामपंथी दलों को तो बैठक बुलाने के तरीके पर ही आपत्ति थी। लेकिन उसे बिना किसी फैसले के खत्म होने की तोहमत से बचाने के लिए ममता बनर्जी ने गोपाल कृष्ण गांधी और डा. फारुख अब्दुल्ला का नाम उछालकर औपचारिकता पूरी कर दी थी। शरद पवार बैठक के पूर्व ही राष्ट्रपति चुनाव लडने से इंकार कर चुके थे। चूंकि विपक्ष को अपनी हार साफ दिख रही है, इसलिए विपक्ष ने बुझे दिल से यशवंत सिन्हा के नाम की घोषणा करके औपचारिकता पूरी कर दी है। राष्ट्रपति चुनाव में इतनी दयनीय हालत पहले कभी देखी नहीं गयी।

गोपाल कृष्ण गांधी पिछले चुनाव में भी विपक्ष के संयुक्त प्रत्याशी थे किन्तु भाजपा ने रामनाथ कोविंद को उतारकर जो दलित कार्ड चला उसने विपक्ष के समीकरण बिगाड़ दिए। हालांकि एनडीए के पास इस बार कुछ मत कम पड़ रहे हैं लेकिन उसका आत्मविश्वास ये दर्शा रहा है कि उसने लगभग 2 प्रतिशत मतों के उस टोटे को बीजू जनता दल और वाई.एस.आर. कांग्रेस की मदद से ही पूरा कर लिया है। बावजूद उसके भाजपा विपक्षी दलों से सम्पर्क कर आम सहमति बनाने की कोशिश कर रही है। द्रौपदी मुर्मू को उम्मीदवार घोषित कर विपक्ष की चिंता बढ़ा दी है। विशेषकर हेमंत सोरेन के लिए बहुत मुश्किल होगा पहली आदिवासी राष्ट्रपति उम्मीदवार का समर्थन न करना।

छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडीशा के कांग्रेस विधायकों के सामने भी यही दुविधा रहेगी। यद्यपि एक जमाने में कांग्रेस के मुकाबले विपक्ष के काफी कमजोर होने से राष्ट्रपति चुनाव इकतरफा हुआ करता था। केवल 1969 छोड़कर जब स्व. इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी के विरुद्ध तत्कालीन उपराष्ट्रपति वी.वी गिरि को उतारकर आत्मा की आवाज पर मतदान का आहवान करते हुए कांग्रेस के विभाजन का रास्ता साफ कर दिया। वामपंथी दलों ने इंदिरा गांधी का साथ दिया और कशमकश भरे चुनाव में श्री गिरि ने दूसरी वरीयता के मतों में 15 हजार की बढ़त लेकर भारतीय राजनीति में इंदिरा युग की शुरुआत कर दी। हालांकि राष्ट्रपति चुनाव में मुकाबला आगे भी होता रहा लेकिन वैसा रोमांच दोबारा देखने नहीं मिला।

विपक्ष ने अनेक मर्तबा मुकाबले की औपचारिकता भी निभाई। क्षेत्रीयता के नाम पर उसमें बिखराव भी हुआ। मसलन श्रीमती प्रतिभा पाटिल को शिवसेना ने मराठी भाषी होने के नाते समर्थन दिया। प्रणब मुखर्जी भी शिवसेना का समर्थन हासिल करने में सफल रहे जिसमें अंबानी परिवार की भूमिका बताई जाती है। लेकिन कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी आज इस स्थिति में नहीं है कि राष्ट्रपति चुनाव में अपनी ओर से एक प्रत्याशी का नाम तक विपक्ष को सुझा सके। क्षेत्रीय दलों के सामने वह किस कदर दबी-दबी नजर आने लगी है उसका ताजा प्रमाण यह चुनाव है जिसमें देश की सबसे पुरानी पार्टी की कोई भूमिका नजर नहीं आ रही। शेष विपक्ष के बिखराव का कारण भी कांग्रेस की उदासीनता ही है।

भाजपा देश के आदिवासी समुदाय और महिलाओं के बीच अपनी पैठ को मजबूत करने में जुटी है, लिहाजा उसके लिए द्रौपदी मुर्मू एक बेहतरीन विकल्प है। मुर्मू बीजेपी के लिए काफी काम भी कर चुकी हैं और मोदी-शाह की करीबी भी मानी जाती हैं। यही नहीं पूर्वी भारत में जड़ें जमा रही बीजेपी को द्रौपदी के सहारे ज्यादा लाभ मिलने की उम्मीद है। राष्ट्रपति चुनाव के अंकगणित में भाजपा और एनडीए का पलड़ा भारी है और ऐसे में मुर्मू का राष्ट्रपति चुना जाना लगभग तय है। जीतने के बाद द्रौपदी मुर्मू देश की पहली आदिवासी राष्ट्रपति भी होगी। उनके पहले ही देश की पहली आदिवासी राज्यपाल बनने का रिकॉर्ड दर्ज है। लेकिन बीजेपी ने उनके नाम को आगे बढ़ाकर देश की आधी आबादी को बड़ा संदेश दिया है।

हाल के चुनाव में बीजेपी को महिलाओं का बड़ा समर्थन मिला है। यही वजह है कि अब बीजेपी महिलाओं की उपस्थिति को नकार नहीं सकती है। विपक्ष वैसे भी बीजेपी पर कैबिनेट में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने और महिला सशक्तिकरण बिल पास कराने का दबाव बनाता रहा है। ऐसे में देश के सर्वोच्च पद के लिए सामने लाना वह भी सबसे वंचित आदिवासी वर्ग से उभारने का एक मजबूत राजनीतिक संदेश है।

इतना ही नहीं बीजेपी की 2024 के लोकसभा चुनाव की रणनीति के लिए भी यह एक कारगर कदम साबित हो सकता है। बीजेपी ने मुर्मू के जरिए सामाजिक और जातिगत समीकरणों को साधने की भी कोशिश की है। दरअसल देश की राजनीति इन दिनों दलितों और पिछड़ा वर्ग के इर्द-गिर्द घूम रही है। आम आदमी पार्टी अब गांधी के नहीं बल्कि बाबा साहेब अम्बेडकर के नाम पर आगे बढ़ रही है। पूर्वी भारत में इस समीकरण का बड़ा महत्व भी है। लिहाजा भाजपा की सामाजिक समीकरणों की रणनीति भी इससे साफ होती है।

क्योंकि उसने 2017 में दलित समुदाय से रामनाथ कोविंद को (Presidential Election) राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया था। अब बीजेपी ने आदिवासी समुदाय से आने वाली द्रोपदी मुर्मू को उम्मीदवार बनाया है। बीजेपी की चुनावी सफलता में इन दोनों समुदाय का बड़ा योगदान रहा है। वह इन दोनों आधारों को मजबूत बनाने में जुटी हुई है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि द्रौपदी मुर्मू के नाम की घोषणा से विपक्ष के हौसले पस्त हो गये हैं। यशवंत सिन्हा चुनाव मैदान में जरूर दिखाई देंगे लेकिन विपक्ष को नतीजों का इल्म हो चुका है।

-चिकित्सक एवं लेखक।

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