Language of Protest : विरोध की अमर्यादित भाषा
डॉ. श्रीनाथ सहाय। Language of Protest : आप किसी भी सियासी पार्टी से ताल्लुक रखते हों, किसी भी दल का समर्थन करते हों, एक बात तो यकीनन मानते होंगे, कि राजनीति का स्तर गिरता जा रहा है। मर्यादित राजनीति के बजाय बेहूदा और असंसदीय आरोपों-बयानों का दौर चल रहा है। राजनीति में असंसदीय भाषा और भावों का प्रयोग इतना आम हो गया है कि इस बात में अंतर करना काफी मुश्किल हो गया है कि क्या संसदीय है और क्या नहीं। इसे एक प्रकार से राजनीति का ‘मानसिक दिवालियापन’ कहा जा सकता है।
जिस प्रकार अपराधी छवि कि लोग निरंतर राजनीति में आ रहे हैं और विभिन्न सरकारों और राजनीतिक दलों में महत्वपूर्ण स्थान पा रहे हैं उसके बाद ऐसा होना कोई अप्रत्याशित नहीं है। संभ्रातवादी स्पष्टीकरण के रूप में इसे ”हमारी राजनीति के अधीनस्थीकरण’ का प्रतिफ ल कह सकते हैं और साथ ही इसका सीधा संबंध ”मुख्यधारा की राजनीति के क्षेत्रीयकरण” से भी जोड़ा जा सकता है। भारत ही नहीं पूरी दुनिया में राजनीति पर नजर रखने वालों का यही मानना है कि पिछले एक दशक में राजनीति ने अंससदीय भाषा का चलन बढ़ा है।
वर्तमान राजनीतिक माहौल (Language of Protest) में आए दिन नेताओं द्वारा अमर्यादित और स्तरहीन भाषा का प्रयोग किया जा रहा है जिसे हमारे लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं कहा जा सकता है। आजकल नेतागण विकास की बातें करने के बजाय एक दूसरे पर कीचड़ उछालते हैं और इस क्रम में अमर्यादित भाषा का उपयोग ज्यादा करने में विश्वास रखते हैं। बीते दिनों कई वाकये ऐसे समाने आये हैं जो राजनीति की गिरती भाषा पर सोचने को विवश करते हैं। कई कांग्रेस नेताओं ने बीते दिनों प्रधानमंत्री मोदी को लेकर ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जो असंसदीय थे।
लोकसभा के 545 सदस्यों में कांग्रेस के 53 सांसद ही हैं। पार्टी के हिस्से ‘नेता प्रतिपक्ष’ का ओहदा भी नहीं आया। दरअसल भारत समग्रता में एक लोकतांत्रिक देश है, लेकिन लोकतंत्र के मायने गालियां देना ही नहीं होते। अमर्यादित भाषा और आचरण स्वीकार्य नहीं हैं, लेकिन कांग्रेस के ‘सत्याग्रही मंच’ से प्रधानमंत्री मोदी के लिए अभिशप्त बोल बोलना लोकतांत्रिक राजनीति नहीं है। पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय ने प्रधानमंत्री के लिए कामना की है कि वह ‘हिटलर की मौत’ मरेंगे। मोदी को यह याद रखना चाहिए। वास्तव में कांग्रेस ने पहली बार प्रधानमंत्री मोदी को गाली नहीं दी है। यह बदजुबानी ही नहीं, बददुआ भी है। गाली देने का सिलसिला 2007 में शुरू हुआ था, जब मोदी के प्रधानमंत्री बनने की संभावनाएं दूर-दूर तक नहीं थीं। अलबत्ता वह गुजरात के मुख्यमंत्री जरूर थे। मई, 2014 में नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री चुने गए।
उससे पहले चुनाव प्रचार के दौरान और प्रधानमंत्री बनने के बावजूद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मणिशंकर अय्यर उन्हें ‘चायवाला’ कहकर संबोधित करते रहे। चलो, यह कुछ हद तक मर्यादित संबोधन था, क्योंकि मोदी ने बचपन में चाय बेची थी। मणिशंकर ने पाकिस्तान में जाकर भारत के प्रधानमंत्री की खुली निंदा की और सरकार गिराने में मदद की गुहार की। बेचारा, दिवालिया पाकिस्तान क्या कर सकता था? लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के प्रति नफ रत, उन्हें दांत पीस-पीस कर कोसना और भद्दी, अश्लील, अमर्यादित गालियां देने का सिलसिला जारी रहा। सत्ता के आठ साल पूरे करने के बाद भी मोदी सरकार ‘हिमालय’ की तरह अडिग, अचल और स्थिर है, बेशक प्रियंका गांधी कुछ भी आह्वान करती रहें। लेकिन कांग्रेस राजनीतिक तौर पर ‘हाशिए की पार्टी’ बन गई है। सिर्फ राजस्थान, छत्तीसगढ़ में ही उसके दो मुख्यमंत्री हैं। महाराष्ट्र और झारखंड की सरकारों में कांग्रेस ‘पिछलग्गू’ है।
महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में एक और कांग्रेसी नेता ने प्रधानमंत्री की ऐसी मौत की कामना की है, जिसे हम लिख नहीं सकते। हमारी नैतिकता सर्वोपरि है, हमारा मूल्य है। सवाल यह है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में हिटलर जैसे तानाशाह की कल्पना कैसे की जा सकती है? मोदी किस आधार पर ‘तानाशाह’ करार दिए जा सकते हैं? अभी ‘अग्निपथ’ योजना का हिंसक विरोध करते हुए देश के कई राज्यों में भीड़ ने रेलगाडियों को जला-फूं क कर 1000 करोड़ रुपए के करीब का नुकसान रेलवे का किया है। क्या ‘तानाशाही’ के दौरान ऐसा किया जा सकता है? क्या अब लोकतांत्रिक भारत में यही राजनीतिक संस्कृति बची है? क्या गालियों के सहारे ही कांग्रेस सियासत करेगी और कामयाब होना चाहेगी?
हमें याद आ रहा है कि उप्र में सपा नेता इमरान मसूद ने बयान दिया था कि वह मोदी की बोटी-बोटी काट देंगे। राहुल गांधी को उस नेता में संभावनाएं दिखीं और उसे कांग्रेस में शामिल कर लिया। किस संस्कृति के सहारे चलना चाहती है कांग्रेस? भाजपा ने अनुमान दिया है कि कांग्रेस करीब 80 बार प्रधानमंत्री मोदी को गाली दे चुकी है, लेकिन उनमें से किसी भी नेता के प्रति प्रतिशोध की भावना से कार्रवाई नहीं की गई।
कांग्रेस तो ऐसे मोदी-विरोधी नेताओं की भीड़ जमा करना चाहती है, लिहाजा कार्रवाई क्यों करेगी? बहरहाल कांग्रेस अपनी नियति खुद तय कर रही है। कोई क्या कर सकता है? ऐसा नहीं है कि अमर्यादित भाषा का प्रयोग केवल कांग्रेसी नेताओं ने किया है, इस दौड़ में लगभग हर दल के नेता शामिल हैं। बीजेपी के कई नेताओं ने कई दफा अपने राजनीतिक विरोधियों के लिये अंससदीय भाषा का प्रयोग किया है।
अनर्गल और विवादित बयानबाजी के मूल में है मीडिया। किसी ने कोई बेवकूफी की बात की और मीडिया ने उसे आगे बढ़ा दिया। वीडियो दिखाने लगे, बहसें होने लगीं। मतलब यह है कि बकवास करने वाले को नायक बना दिया गया। नेताओं को भी लगता है कि प्रचार पाने का ये सबसे अच्छा तरीका है। इसलिए वे कुछ भी बोल देते हैं। अब अगर फंस गए तो कह देते हैं कि मेरे बयान को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया है। इस तरह की बयानबाजी पर अंकुश के लिए मीडिया को संयम बरतना होगा। अपनी राजनीति चमकाने और दूसरे को नीचा दिखाने के लिए नेता अमर्यादित भाषा बोलते हैं।
कई नेताओं की जुबान इतनी गंदी हो गई है कि वे गालीगलौज (Language of Protest) करने से भी नहीं चूकते। इसके बावजूद पार्टी नेतृत्व ऐसे नेताओं के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करता, जिससे इनका मनोबल बढ़ता है। ऐसे नेताओं ने ही राजनीति की छवि को धूमिल किया है। इसी कारण पढ़े-लिखे और सभ्य लोग राजनीति में आने से बचते हैं। अमर्यादित भाषा का प्रयोग करने वाले नेता राजनीति को गंदा कर रहे हैं। इसकी वजह है कि बड़ी संख्या में आपराधिक प्रवृत्ति के लोग राजनीति में पहुंच गए हैं। ऐसे लोगों को राजनीति में जाने से रोकने के लिए पब्लिक को ही सोचना होगा।