Landless Farmer : असंगठित क्षेत्र को संगठित करने की सराहनीय पहल
डॉ. ओ.पी. त्रिपाठी। Landless Farmer : भारत का असंगठित क्षेत्र मूलत: ग्रामीण आबादी से बना है और इसमें अधिकांशत: वे लोग होते हैं जो गांव में परंपरागत कार्य करते हैं। गांवों में परंपरागत कार्य करने वालों के अलावा भूमिहीन किसान और छोटे किसान भी इसी श्रेणी में आते हैं। शहरों में ये लोग अधिकतर खुदरा कारोबार, थोक कारोबार, विनिर्माण उद्योग, परिवहन, भंडारण और निर्माण उद्योग में काम करते हैं।
इनमें अधिकतर ऐसे लोग है जो फसल की बुआई और कटाई के समय गांवों में चले जाते हैं और बाकी समय शहरों-महानगरों में काम करने के लिये आजीविका तलाशते हैं। भारत में लगभग 50 करोड़ का कार्यबल है, जिसका 90 फीसदी हिस्सा असंगठित क्षेत्र में काम करता है। इन उद्यमों में काम करने वाले श्रमिक 1948 के फैक्टरी एक्ट जैसे किसी कानून के अंतर्गत नहीं आते हैं।
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने असंगठित मजदूरों, कामगारों को संगठित करने की शुरुआत की है। यह सकारात्मक और समावेशी प्रयास है। कोरोना वायरस के भयावह रूप के दौर में प्रवासी मजदूरों की जो बेचारगी, बेरोजगारी, बेचैनी, राजमार्गों पर असहाय जन-सैलाब की तस्वीरें देश ने देखीं, संभव है कि उसी के बाद सरकार ने इस दिशा में बड़ा कदम उठाया है। सरकार को लक्ष्य देश की 90 फीसदी से अधिक श्रम-शक्ति को संगठित करने का है। देश की अर्थव्यवस्था में 50 फीसदी से अधिक का योगदान करने वाले असंगठित क्षेत्र के लोगों का कुल कार्यबल में हिस्सा 80 प्रतिशत है।
असंगठित क्षेत्र में श्रमिकों की आय संगठित क्षेत्र की तुलना में न केवल कम है, बल्कि कई बार तो यह जीवन स्तर के न्यूनतम निर्वाह के लायक भी नहीं होती। इसके अलावा, अक्सर कृषि और निर्माण क्षेत्रों में पूरे वर्ष काम न मिलने की वजह से वार्षिक आय और भी कम हो जाती है। इस क्षेत्र में न्यूनतम वेतन भी नहीं दिया जाता, जो कि कर्मचारियों को दिया जाना बाध्यकारी है। इसलिये न्यूनतम मजदूरी दरों से भी कम कीमतों पर ये कामगार अपना श्रम बेचने को विवश हो जाते हैं। वैसे भी हमारे देश में न्यूनतम मजदूरी की दरें वैश्विक मानकों की तुलना में बहुत कम हैं।
असंगठित क्षेत्र में रोजगार गारंटी न होने के कारण रोजगार का स्वरूप अस्थायी होता है, जो इस क्षेत्र में लगे कामगारों को हतोत्साहित करता है। रोजगार स्थिरता न होने के कारण इनमें मनोरोग का खतरा भी संगठित क्षेत्र के कामगारों से अधिक होता है। इनके पास विभिन्न सरकारी योजनाओं का लाभ भी नहीं पहुंच पाता। बिचैलियों और अपने नियोक्ताओं द्वारा भी इनकी उपेक्षा की जाती है। अधिकांश असंगठित श्रमिक ऐसे उद्यमों में काम करते हैं जहां श्रमिक कानून लागू नहीं होते। इसलिये इनकी कार्य दशा भी सुरक्षित नहीं होती और इनके लिये स्वास्थ्य संबंधी खतरे बहुत अधिक होते हैं।
भारत में असंगठित श्रम-शक्ति (Landless Farmer) काम करना छोड़ दे या कोई आंदोलन छेड़ दे, तो सरकारों और निजी उद्योगों के हाथ-पांव फूलने लगते हैं। काम कौन करेगा, उत्पादन और निर्माण को जारी कौन रखेगा या बोझ कौन उठाएगा, ये गंभीर सवाल और संकट खड़े हो जाते हैं। इसके बावजूद देश में असंगठित कार्यबल के लिए ढेरों अनिश्चितताएं हैं। अंतत: भारत सरकार ने ‘ई-श्रम पोर्टल’ की शुरुआत की है, ताकि असंगठित कामगारों का एक संगठित डाटाबेस तैयार किया जा सके। श्रम-शक्ति को पहचान दी जा सके और उसे देश की व्यवस्था में अधिकृत तौर पर शामिल किया जा सके। कोरोना-काल में प्रवासी मजदूरों को कई तकलीफें झेलनी पड़ी थीं।
यातायात के साधनों पर भी तालाबंदी थी। महानगरों में कार्यरत श्रमिकों और कामगारों के रोजगार एकदम ठप्प हो गए थे, क्योंकि देश में संपूर्ण लॉकडाउन घोषित कर, लागू कर दिया गया था। उस दौर में बिखरी हुई श्रम-शक्ति को कुछ ‘देवदूतों’ ने संभाला था। मजदूरों को उनके ग्रामीण घरों तक पहुंचाया गया था। बीमारों का इलाज कराया गया था। भोजन और पानी की बुनियादी मदद तो सबसे पहले की गई थी। चूंकि तब तक कोई राष्ट्रीय डाटाबेस सरकारों के पास उपलब्ध नहीं था, जिसके आधार पर पर्याप्त मुआवजा या अन्य राहतें मुहैया कराई जा सकतीं।
संभव है कि कई कामगार सहायता से वंचित रहे होंगे, लेकिन एक पोर्टल बनाकर भारत सरकार ने अपनी गलतियों और कमियों का प्रायश्चित करने की कोशिश की है। यह प्रयास भी श्रम की अंतिम इकाई और प्रत्येक चेहरे को पहचान देकर पोर्टल पर पंजीकृत करने में सफल होगा, इसकी समीक्षा अभी शेष है। फिलहाल सरकार का मानना हैै कि करीब 38 करोड़ असंगठित कामगारों का पंजीकरण हो चुका है। अभी तो मंजिल बहुत दूर है। जिन असंगठित मजदूरों और कर्मचारियों का पंजीकरण हो चुका है, उनमें करीब 87 फीसदी ओडिशा के हैं, जो सर्वाधिक आंकड़ा है।
उसके बाद पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, झारखंड और बिहार के असंगठित श्रमिक हैं। अभी तक के डाटा से स्पष्ट है कि करीब 41 फीसदी असंगठित कामगार ओबीसी वर्ग के हैं। करीब 28 फीसदी सामान्य वर्ग, करीब 24 फीसदी अनुसूचित जाति और 8 फीसदी जनजाति के हैं। पोर्टल में कामगारों, मजदूरों और अन्य कर्मचारियों का पेशा, धंधा, हुनर आदि को भी शामिल किया गया है, ताकि पहचान हो सके कि कितने असंगठित चेहरों का कौशल कितना है और वे किस पेशे से जुड़े हैं। असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिकों में से अधिकांश को न तो सरकारों की ओर से तय न्यूनतम वेतन मिलता है और न ही पेंशन या स्वास्थ्य बीमा जैसी कोई सामाजिक सुरक्षा इन्हें मिल पाती है।
उन्हें चिकित्सा, देखभाल, दुर्घटना, मुआवजा, वेतन सहित अवकाश और पेंशन योजनाओं का लाभ भी नहीं मिल पाता। ऐसे में डाटाबेस तैयार होने से आने वाले दिनों में काफी सुधार देखने को मिलेंगे। सरकार को विशेष रूप से निर्माण क्षेत्र, घरेलू नौकरों, मंडियों में काम करने वाले श्रमिकों (Landless Farmer) और रेहड़ी-पटरी वालों पर ध्यान देना चाहिये। असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों को नीति निर्माण में भागीदारी देनी चाहिये और राजस्व में उनकी हिस्सेदारी को देखते हुए सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध करानी चाहिये।
पोर्टल के मुताबिक, कृषि क्षेत्र में सबसे अधिक करीब 54 फीसदी पंजीकरण हुए हैं। उसके बाद निर्माण-कार्यों में करीब 12 फीसदी, घरेलू सहायक या कर्मचारी करीब 9 फीसदी हैं। कोरोना-काल में कई क्षेत्र ध्वस्त हुए या बुरी तरह प्रभावित हुए थे। देश की अर्थव्यवस्था ही ऋणात्मक हो गई थी। अब सब कुछ करवट बदल रहा है। आर्थिक और औद्योगिक गतिविधियां लगातार तेज हो रही हैं।
अर्थव्यवस्था की विकास दर भी 8-9 फीसदी के करीब रहेगी, ऐसे आकलन सामने आ रहे हैं, लिहाजा ऐसे दौर में यह डाटाबेस बेहद महत्त्वपूर्ण साबित हो सकता है। असंगठित कार्यबल के जो क्षेत्र आर्थिक रूप से पिछड़ गए हैं, सरकार उनके लिए कुछ योजनाओं की घोषणा कर सकती है। ऐसे डाटाबेस उन निजी कंपनियों को भी बनाने के निर्देश सरकार दे, जहां कर्मचारियों की संख्या इतनी है कि सभी पात्र कर्मियों का पीएफ काटा जा रहा हो। यह पोर्टल के विस्तार, सार्थकता के लिए बहुत जरूरी है।