Kisan Aandolan : किसान आंदोलन के नौ माह: युवतर भागीदारी और उसके मायने |

Kisan Aandolan : किसान आंदोलन के नौ माह: युवतर भागीदारी और उसके मायने

After ending the agitation, farmers will return home, Rakesh Tikait gave signs of returning home

Kisan Andolan

बादल सरोज। Kisan Aandolan : 26 अगस्त को किसान आंदोलन के 9 महीने पूरे हो जाएंगे । इस किसान आंदोलन की ऐतिहासिकता और विशेषताओं के बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है, लिखा जाएगा। इसमें इसके विरोधियों को भी कोई संदेह नहीं है कि यह आंदोलन मानव जाति के संघर्षों की सूची में प्रमुखता के साथ दर्ज होगा।

अनेक भाषाओं में इस पर किताबें लिखी जाएंगी। अगले बीसियों बरस दुनिया भर के विश्वविद्यालय बिजनेस मैनेजमेंट, मानव संसाधन (ह्यूमन रिसोर्स) प्रबंधन और बाकी विषयों पर भी इस आंदोलन को अपनी पाठ्य पुस्तकों का हिस्सा बनाएंगे। हजारों पीएचडियां इसके प्रबंधन और असर को लेकर होंगी, यह तय है।

मगर न जाने क्यों ऐसा लगता है कि इस सारे शोरशराबे और आश्वस्ति भरे जंग के नगाड़ों के बीच इसकी एक असाधारण खूबी उतनी रेखांकित नहीं की गयी, जितनी वह मौलिक और महत्वपूर्ण है। यह विशेषता है इस किसान आंदोलन में युवक-युवतियों की हिस्सेदारी। गाते बजाते, हर बॉर्डर पर एक कोने से दूसरे कोने तक ढपलियाँ बजाकर नारों से आसमान गुंजाते युवक-युवतियां इस आंदोलन की धड़कन हैं। वे सिर्फ उत्सवी और उत्साही माहौल बनाने के काम में ही नहीं लगे हैं।

बिना किसी के कहे वे उस मोर्चे पर भी डटे हैं, जिसने इस असाधारण संघर्ष को स्वर और स्वीकार्यता प्रदान की है। आंदोलन के पहले दिन से ही मोदी गिरोह और उसका गोदी (सही शब्द होगा भांड़) मीडिया इसे अनदेखा करके उपेक्षा की मौत मारने के इरादे से खामोश रहा — न कहीं कोई खबर, न कहीं कोई लाइव या क्लिपिंग दिखाई। उसे लगा कि उसके कवरेज के बिना यह आंदोलन (Kisan Aandolan) सिमट कर रह जाएगा। जब यह शकुनि दांव नहीं चला, तो वह दु:शासन दांव पर आ गया; आंदोलन को बदनाम करने में जुट गया।

इन दोनों ही दांवों का मुकाबला करने वाली इन्हीं युवक और युवतियों की टीम थी, जिसने अपने-अपने लैपटॉप और एंड्रॉइड मोबाइल्स को अस्त्र और शस्त्र बनाया। आंदोलन की खबरों को दुनिया भर में फैलाया। अपने-अपने मोबाइल हाथ में पकड़े-पकड़े लाइव करते हुए इस की गर्माहट से देश और दुनिया में दूर बैठे इंसानो को गरमाया। सरकार के भांड़ मीडिया और सचमुच के चिंदीचोरों की आईटी सैल के झूठ में पलीता लगाकर सच की मशाल को सुलगाया।

बिना किसी अतिशयोक्ति के कहा जा सकता है कि इन युवक-युवतियों का यह आक्रामक अभियान मौजूदा किसान आंदोलन की दीर्घायुता की कैलोरी ही नहीं, प्रोटीन भी था – वह प्रोटीन, जो जीवन का आधार और पर्याय है। आज यदि देश भर में किसान आंदोलन के प्रति हमदर्दी और एकजुटता का भाव है, दुनिया के अनेक देशों की संसदों में इसे लेकर चर्चा हो रही है, तो उसके पीछे यह डिजिटल अभियान है – जिसकी रीढ़ और भुजाएं ही नहीं, जिसका मस्तिष्क भी ये युवक-युवतियां हैं।

इनका चीजों को रखने का अंदाज, मुद्दों का सूत्रीकरण – आर्टिकुलेशन – कमाल का था; वे सिर्फ कारपोरेट कठपुतली मोदी गिरोह और आरएसएस की आईटी सेल के दुष्प्रचार का तथ्यों और जानकारियों, फोटो और वीडियोज के साथ खण्डन भर ही नहीं करते थे, उनके नैरेटिव के खिलाफ एक काउंटर नैरेटिव भी बनाते थे। किसानों की मांगों के औचित्य और उन मांगों की देश तथा मानवता के हित वाली विशेषताओं का मंडन भी करते थे।

तीन कृषि कानूनों के वास्तविक कॉरपोरेटपरस्त, जनविरोधी चरित्र को बेपर्दा करने में इस अभियान ने बेमिसाल भूमिका निबाही। यह कहना कतई बढ़ा-चढ़ाकर कहा जाना नहीं होगा कि डिजिटल मीडिया और इंटरनेट उपकरणों का जितना कारगर, प्रभावी इस्तेमाल इस किसान आंदोलन में हुआ है, उतना वर्ष 2010 में ट्यूनीशिया से शुरू हुयी अरब स्प्रिंग में भी नहीं हुआ था।

इस आंदोलन और उसके साथ खड़े हुए युवाओं ने भाजपा के ब्रह्मास्त्र आईटी सैल और पाले-पोसे कारपोरेट मीडिया के जरिये किये जाने वाले दुष्प्रचार और उसके जरिये उगाई जाने वाली नफरती भक्तों की खरपतवार की जड़ों में भी, काफी हद तक, म_ा डाला है। ध्यान रहे कि भारतीय जनता पार्टी और उसके रिमोट का कंट्रोलधारी आरएसएस और कारपोरेट के गठबंधन वाले मौजूदा निजाम की दो जानी-पहचानी धूर्तताये हैं। एक तो यह कि इसने बड़ी तादाद में भारत में रहने वाले – खासकर सवर्ण मध्यमवर्गी – मनुष्यों को उनके प्रेम, स्नेह, संवेदना और जिज्ञासा तथा प्रश्नाकुलता के स्वाभाविक मानवीय गुणों से वंचित कर दिया है।

उन्हें नफरती चिंटू में तब्दील करके रख दिया है। देश के किसानों के ऐतिहासिक आंदोलन (Kisan Aandolan) को लेकर संघी आईटी सैल के जरिये अपने ही देश के किसानो के खिलाफ इनका जहरीला कुत्सा अभियान इसी की मिसाल है। इस झूठे प्रचार को ताबड़तोड़ शेयर और फॉरवर्ड करने वाले व्हाट्सप्प यूनिवर्सिटी से दीक्षित जो शृगाल-वृन्द है, इसे अडानी-अम्बानी या अमरीकी कम्पनियां धेला भर भी नहीं देती।

इनमे से ज्यादातर को तीनों कृषि क़ानून तो दूर, क से किसान और ख से खेती भी नहीं पता। इनमें से दो-तिहाई से ज्यादा ऐसे हैं, जिनकी नौकरियाँ खाई जा चुकी हैं, आमदनी घट चुकी है और घर में रोजगार के इन्तजार में मोबाइल पर सन्नद्ध आईटी सैल के मेसेजेस को फॉरवर्ड और कट-पेस्ट करते जवान बेटे और बेटियां हैं।

फिर भी ये किसानों के खिलाफ अल्लम-गल्लम बोले जा रहे थे। इनके बड़े हिस्से को किसान आंदोलन के साथ खड़े हुए युवक-युवतियों ने हिलाया है, उनके एक हिस्से को होश में लाया है। कौन थे ये युवक-युवतियां? क्या सिर्फ किसानों के बेटे थे? क्या अपने अपने अभिभावकों के साथ गाँव से दिल्ली आये किसानों के बेटे और बेटियां थे? नहीं!! निस्संदेह इनमें एक अच्छी खासी संख्या अपने किसान माँ-पिताओं के साथ आये यौवन की थी, मगर वे भी अब उतने देहाती नहीं बचे थे।

उन सहित, उनके साथ इनमें रोजगार न मिलने के चलते खेती-किसानी करने वाले युवाओं से लेकर कालेज, यूनिवर्सिटी और आईआईटीज में पढऩे वाले विद्यार्थी शामिल थे/हैं। इन युवाओं में अच्छा खासा हिस्सा उन शहरियों का है, जिनकी दो या तीन पीढिय़ों ने खेत सिर्फ फिल्मों में देखे हैं, जिन्हे मेढ़ और बाड़ का फर्क नहीं मालूम। मगर इस आंदोलन ने उन्हें किसानी और खेती का महत्त्व समझा दिया है।

ये सब – युवक और युवतियां – इस आंदोलन में सिर्फ एकजुटता दिखाने नहीं आये थे, वे पूरी ऊर्जा और नयी-नयी पहलों के साथ शिरकत कर रहे थे/हैं। वे सिर्फ इसलिए इस आंदोलन के साथ नहीं थे कि उन्हें लगा कि बेचारे किसानों की दशा बहुत खराब है, कि बेचारे किसान आत्महत्या कर रहे हैं, इसलिए उनकी लड़ाई का साथ देना चाहिए।

वे पूरी तरह से संतुष्ट होकर इस आंदोलन के साथ थे/हैं कि कार्पोरेटी उदारीकरण और साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के जिस मगरमच्छ ने उनकी शिक्षा छीनी है, उनके रोजगार की संभावनायें समाप्त की हैं; अब वही मगरमच्छ भेडिय़ा बनकर तीन कृषि कानूनों का त्रिपुण्ड माथे पर लगाये, अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितसाधन का जनेऊ पहन खेती-किसानी का शिकार करने धावा बोल रहा है।

उन्हें लगा कि यह लड़ाई दरअसल प्रकारांतर में खुद उनकी लड़ाई है। उन्हें लगा कि अगर खेती-किसानी भी निबट गयी, तो मंझधार इतनी तीखी और गहरी हो जाएगी कि किनारे पहुंचकर लंगर डालने तक की जगह नहीं बचेगी।

बहरहाल इनसे हाथ जोड़कर अनुरोध है कि वे इस युवा – कमाल के मेधावी और उद्यमी युवा – के मन में झाँके, उसमें चल रही पीड़ा की हिलोरों को आंकें, उसकी बेचैनी को अपना मानकर उसे दर्पण समझकर उसमें उसकी विवशताओं की गहराई को नापें। खैर, जब तक वे ऐसा करें, तब तक यह तो साबित हो ही चुका है कि इस किसान आंदोलन (Kisan Aandolan) ने युवाओं के बारे में इन सब बेतुकी धारणाओं और प्रायोजित दुराग्रही आम राय – मैन्यूफैक्चर्ड कन्सेंट – को तोड़ा है। हाल के समय की यह बड़ी उपलब्धि है।

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