मजदूरों के हिस्से में बेबसी और त्रासदी : डॉ. संजय शुक्ला

मजदूरों के हिस्से में बेबसी और त्रासदी : डॉ. संजय शुक्ला

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देश की आजादी (Independence of the country) के बाद से ही यह बहस विभिन्न मंचों पर बार-बार उठता रहा है कि यह देश दो भागों (two parts) इंडिया और भारत में बंटा (India and divided into bhaarat) हुआ है। महानगरों और शहरों में रहने वाले अभिजात्य और धनिक वर्ग उस इंडिया का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनके पास अपने आर्थिक हैसियत के बल पर पांच सितारा शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास के संसाधन उपलब्ध हैं।

डॉ संजय शुक्ला

दूसरी ओर गरीबी, अशिक्षा, बीमारी और आभाव से जूझने वाले किसान और मजदूर तबका है जो बुनियादी सुविधाओं से वंचित दुर्गम गांवों में रहता है यही भारत की पहचान है। दरअसल इस बहस के पृष्ठभूमि में देश में अमीरी – गरीबी के आधार पर उपलब्ध होने वाले संविधान प्रदत्त बुनियादी शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था है जो मनुष्य के सर्वांगीण विकास का बुनियाद है लेकिन हमारे देश में यह आर्थिक विषमता के गहरी और चौड़ी खाई में बंटा हुआ है।

यह खाई ही इंडिया और भारत की विभाजन रेखा है और इसी आधार पर पर देश के नागरिकों में भेदभाव पनप रहा है जो सामाजिक असंतोष के रूप में परिलक्षित होने लगा है। इसकी बानगी कोरोना महामारी के इस दौर में लाॅकडाउन के दौरान के दौरान समूचा देश देख रहा है।

कोरोना लाॅकडाउन के दौरान जब देश और विदेश में हवाई सेवा, रेल सेवा और बस सेवाएं बंद है तब विदेशों और देश के विभिन्न हिस्सों में देश के छात्र, नागरिक और प्रवासी मजदूर फंसे हुए हैं। केंद्र सरकार ने विदेशों में फंसे भारतीयों को स्वदेश वापसी के लिए विशेष हवाई जहाज का प्रबंध किया है। दूसरी ओर विभिन्न राज्य सरकारों ने देश के कई शहरों के पांच सितारा कोचिंग संस्थानों में दाखिल छात्रों के घर वापसी के लिए वातानुकूलित बसों की व्यवस्था की तथा वापस लौटे इन लोगों को सर्वसुविधा युक्त क्वारंटाईन सेंटर में रखा गया है। 

  विडंबना है कि मजदूर तबका जो देश के अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं उनके नसीब में ऐसी घर वापसी सुनिश्चित नहीं हो सकी। लाॅकडाउन के बाद प्रधानमंत्री और राज्य सरकारों के तमाम आश्वासनों, दावों और राहत योजनाओं के बावजूद देश के महानगरों और विभिन्न शहरों में फंसे लाखों प्रवासी मजदूरों को दो वक्त की रोटी और भविष्य के रोजगार का भरोसा नहीं मिल पाया। अपने जड़ों से जुदा होकर रोटी और रोजगार के लिए पलायन करने वाले इन मजदूरों को सैकड़ों – हजारों मील अपने घरों की वापसी का सफर सड़कों पर पैदल, सायकल, रेढ़ी, रिक्शा के सहारे पूरा करना पड़ रहा है।

सड़कों और चौराहों पर पुलिस सख्ती के चलते बेबस मजदूर रेल पटरियों और जंगलों के बरास्ते घर वापसी के लिए मजबूर हैं। इस दौरान टैंकर, ट्रकों और कैप्सूल टैंकर में छुपकर मजदूरों के घर वापसी की खबरें भी प्रकाश में आईं हैं। बहरहाल जेठ की चिलचिलाती धूप और तपती सड़क , बेमौसम बरसात, भूखे – प्यासे और थकान से चूर इस कारवां में बुजुर्ग – बेसहारा अपने जवान बेटे के कांधे पर हैं, छोटे बच्चे और गर्भवती महिलाएं इस पैदल मार्च का हिस्सा हैं। अनेक गर्भवती महिलाओं का प्रसव इस पैदल प्रवास के दौरान ही होने की खबरें हैं।

सैकड़ों मील पैदल चलने के दौरान चप्पलें घिसने, टूट जाने, पुलिस द्वारा खदेड़े जाने पर चप्पलें छूट जाने के कारण सड़कों पर नंगे पांव चलने के लिए मजबूर इन मजदूरों ने पानी के बोतलों को पैर में बांधकर चप्पल बना लिया है। हालांकि देश के कई हिस्सों में समाजसेवी संगठनों द्वारा इन पैदल मजदूरों को मुफ्त चप्पल और जूते बांटने जैसी राहत भरी खबरें आ रही हैं। बहरहाल प्रवासी मजदूरों की यह पैदल वापसी का यह मंजर 1947 में देश की आजादी के बाद की पलायन की त्रासदी की याद बरबस ताजा कर रही है।          

टीवी चैनलों में पेट के आग के आगे बेबस इन मजदूरों के पैदल घर वापसी की खबरें दर्ददनाक और विचलित करने वाली हैं।  मजदूरों का यह पैदल मार्च जानलेवा भी साबित हो रहा है। बीते 8 मई को तड़के महाराष्ट्र के औरंगाबाद में रेल पटरियों पर चलकर घर वापसी करने वाले पटरियों में सोए हुए मध्यप्रदेश के 16 मजदूरों की मौत एक मालगाड़ी के चपेट में आने के कारण हो गई।इस दर्दनाक हादसे के बाद सोशल मीडिया में जिस तरह की प्रतिक्रिया कुछ यूजर्स ने दर्ज की वह बदलते भारतीय समाज के संवेदनाशून्यता और मजदूरों के प्रति गुलाम मानसिकता को प्रदर्शित करता है।

सोशल मीडिया में कुछ लोगों ने मृतक मजदूरों को शराब के नशे में धूत होकर पटरी में लेटने का अपराधी बता दिया कुछ लोगों ने इसे साजिश और सामूहिक आत्महत्या करार दे दिया। कुछ यूजर्स ने यह भी नसीहत लिख दिया कि जानवरों को भी पता है कि रेलवे पटरी पर नहीं चलना है तो भला ये मजदूर पटरी पर क्यों चल रहे थे? कुछ लोगों ने यह कुछ अधिक लाभ के लालच में मजदूरों के पलायन पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया। बहरहाल यह पहला मौका नहीं है जब पैदल मार्च कर रहे प्रवासी मजदूरों की मौत सड़क हादसों या बीमारी व थकान के कारण हुई हो।

सेव लाइफ फाऊंडेशन तथा अन्य रिपोर्ट के अनुसार लाॅकडाउन के पिछले 50 दिनों के दौरान अब तक अनियंत्रित वाहनों के चपेट में आने और थकान आदि के कारण लगभग 75 प्रवासी मजदूरों की मौत हो चुकी है और अनेकों घायल हुए हैं  इन मौतों और घायलों में छत्तीसगढ़ के भी पैदल या सायकल के द्बारा घर वापसी करने वाले मजदूर और उनके परिजन शामिल हैं। ऐसे हादसों में एक मर्माहत करने वाली खबर बस्तर के बीजापुर में तेलंगाना से पैदल लौटी आदिवासी मजदूर दंपत्ति की 12 वर्षीया नाबालिक बेटी जमलो मडकामी की मौत पैदल चलने के बाद डिहाइड्रेशन से हो गई।

बहरहाल अभी भी प्रवासी मजदूरों के मौत और त्रासदी का सिलसिला नहीं थमा है, औसतन हर तीन दिनों में दो मजदूर घर पहुंचने के पहले दम तोड़ रहे हैं। गौरतलब है कि भारतीय मीडिया में प्रवासी मजदूरों के पैदल मार्च की भयावह तस्वीर प्रसारित होने के बाद केन्द्र सरकार के अनुमति मिलने पर राज्य सरकारों ने अपने मजदूरों के घर वापसी के लिए विशेष रेलगाडियों का इंतजाम किया है। राज्य सरकारों के द्वारा की जा रही इस व्यवस्था की समुचित जानकारी और आनलाइन पंजीयन की अव्यवहारिक व्यवस्था के कारण अभी भी प्रवासी मजदूरों में अफरा-तफरी मची हुई है व सड़कों पर अभी मजदूर पैदल दिखाई दे रहे हैं।

बहरहाल मजदूरों के साथ बीत रही त्रासदी के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच समन्वय का आभाव और बीते दिनों में प्रवासी मजदूरों के सकुशल घर वापसी के लिए प्रभावी कार्ययोजना तैयार नहीं हो पाने के कारण मजदूरों का सरकार के प्रति भरोसा नहीं रहा। सरकार और प्रशासन से राहत और रास्ता की उम्मीद खत्म होने के बाद मजदूरों में सब्र का बांध टूट गया और वे पैदल मार्च के लिए विवश हो गए।  मजदूरों के धीरज खोने का प्रमुख कारण लाॅकडाउन की अनिश्चितता, कारखानों और निर्माण कार्यों में तालाबंदी, नियोजकों द्वारा आवास खाली कराए जाने के साथ अपने और परिजनों के दो वक्त की रोटी और आर्थिक तंगी रहा है।         

 बहरहाल “हर पेट को भोजन और हर हाथ को काम” जैसे सरकारी नारों के बावजूद देश के ग्रामीण इलाकों में बेरोजगारी और भूखमरी की समस्या विकट है जिसके कारण गांवों का एक बड़ा तबका रोजगार के लिए शहरों की ओर पलायन के लिए मजबूर है। कोरोना काल की त्रासदी के चलते भले ही घरों की ओर वापसी करने वाले मजदूर दोबारा पलायन से तौबा कर रहे हैं लेकिन अपने वचनों पर वे कितना अडिग रहेंगे इसका अंदाजा इस त्रासदी के बाद ही लगेगा। दरअसल गांवों में इन मजदूर परिवारों के पास खेती की सीमित भूमि है।

इन परिवारों की बढ़ती जनसंख्या, सूखा – बाढ़, अन्य आपदाओं, रोजगार के सीमित संसाधनों और परिवार की बढ़ती जरूरतों के कारण किसान और मजदूर परिवारों के लिए पलायन एक अनिवार्य मजबूरी बनते जा रही है। मजदूरों का पलायन केवल एक प्रदेश से दूसरे प्रदेशों में ही नहीं हो रहा है बल्कि यह राज्य के भीतर एक जिले से दूसरे जिलों की ओर भी हो रहा है। बहरहाल कोरोना त्रासदी ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को अभूतपूर्व नुकसान पहुंचाया है जिसका दुष्परिणाम मजदूरों के रोजगार पर पड़ना अवश्यंभावी है।

इन परिस्थितियों में सरकार से अपेक्षा है कि इन श्रमवीरों के बेहतर और सुरक्षित भविष्य के लिए लागू किए जाने वाले आर्थिक पैकेज और रोजगार योजनाओं की सुगम पहुँच इन मजदूरों तक सुनिश्चित करे ताकि यह वर्ग भी “आत्मनिर्भर भारत अभियान” में अपनी भूमिका सुनिश्चित कर सकें।

 (लेखक शासकीय आयुर्वेद कालेज रायपुर में सहायक प्राध्यापक हैं। 94252 13277 ) 

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