acharya chanakya : ऐसा व्यक्ति बुद्धिमान नहीं मूर्ख कहलाता है

acharya chanakya : ऐसा व्यक्ति बुद्धिमान नहीं मूर्ख कहलाता है

acharya chanakya,

acharya chanakya : धर्म रहित प्राणी जीवित होते हुए भी मृतक के समान है। इसके विपरीत धर्मात्मा मर जाने पर भी दीर्घजीवी रहता है, अर्थात् उसका यश अनन्तकाल तक इस संसार में व्याप्त रहता है। इसमें लेशमात्र भी संशय अथवा अतिश्योक्ति नहीं है।

acharya chanakya : अभिप्राय यह है कि शरीर नाशवान् है, धन सम्पत्ति भी सदा साथ देने वाली नहीं होती। मृत्यु हर समय सिर पर सवार रहती है। अतः धर्म का संग्रह करना चाहिए। धर्म ही सबसे बड़ी वो सम्पत्ति है जो आपके साथ हर समय रह सकती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि धर्मपरायण प्राणी परलोक में भी जीवित रहता है क्योंकि उसका यश अजर-अमर है। ऐसे धार्मिक प्राणी का जीवन ही सफल कहलाता है।

acharya chanakya : इस संसार के अन्दर यदि कोई पदार्थ इतनी दूर हो कि उसे प्राप्त करना असम्भव दिखायी देता हो तथा जो मनुष्य की सामर्थ्य-सीमा से भी बहुत दूर हो, ऐसे दुर्लभ पदार्थ को भी तप के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि तप की शक्ति असीम है इसलिये तप सर्वश्रेष्ठ है। तप द्वारा असम्भव को भी सम्भव किया जा सकता है। तप से न केवल सिद्धि मिलती है, अपितु साक्षात् परमेश्वर के भी दर्शन किये जा सकते हैं।

हाथों की सच्ची शोभा आभूषण पहनने से नहीं, दान देने से होती है। शरीर की वास्तविक शुद्धि स्नान करने से होती है, चन्दन का लेप लगाने से नहीं। मनुष्य को सच्चा सुख मान-सम्मान करने से प्राप्त होता है, स्वादिष्ट भोजन करने से नहीं। इसी प्रकार मोक्ष की प्राप्ति भी ज्ञान से होती है, छापा-तिलक आदि बाहरी आडम्बरों के धारण करने से नहीं।

नाई के घर जाकर हजामत करवाने वाले, देव-प्रतिमाओं पर लगा हुआ चन्दन उतारकर अपने शारीर पर धारण करने वाले, तथा जल में अपनी परछाई देखने वाले व्यक्ति का मान-सम्मान, गौरव नष्ट हो जाता है। ऐसा व्यक्ति बुद्धिमान नहीं मूर्ख कहलाता है। चाणक्य के कथनानुसार इन्द्र के समान साधन-सम्पन्न एवं प्रतिष्ठित होने पर भी ऐसे व्यक्ति शोभाविहीन हो जाते हैं। उनकी अपनी कोई प्रतिष्ठा नहीं रहती।

acharya chanakya : मूर्ख शिष्य को शिक्षा देने से कोई लाभ नहीं क्योंकि वह तो उस शिक्षा को उल्टा ही समझेगा और उसका उपभोग नहीं कर पायेगा। इसी प्रकार दुष्ट और कुलटा स्त्री का पालन करने से भी व्यक्ति कष्ट ही भोगता है। आचार्य चाणक्य ने अपनी बात को स्पष्ट किया है कि वह यानी कुलटा स्त्री सदैव धर्म विरूद्ध हो आचरण करेगी। उसे सदाचार से कोई लेना-देना नहीं, इसका तात्पर्य यह हुआ कि इस प्रकार की स्त्री से कोई लाभ नहीं जो विदुषी तो हो ही नहीं, साथ ही धर्म परायण भी न हो। दुःखी व्यक्ति का साथ सदैव कष्टकारी ही होता है। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि दुःखी व्यक्ति अपने ही दुःख या स्वार्थ में निहित रहता है। अतः उसमें विवेक का अभाव होता है, तब वह दूसरे का हित सोच ही नहीं सकता।

भारतीय धर्मशास्त्रों में पुर्नजन्म का जो उल्लेख मिलता है, आचार्य चाणक्य उसे अक्षरशः स्वीकार करते हैं, वह कहते हैं कि आवश्यकता, पूर्ति, भोजन की सुलभता, भोग-विलास की उपलब्धता, धन-सम्पदा का मिलना एवं सुन्दर तथा गुणी स्त्री का मिलना पूर्वजन्मों के फल पर निर्भर करता है।

देखा जाता है कि जिस व्यक्ति के पास सुन्दर पत्नी होती है, उसमें सम्भोग शक्ति का अभाव हो सकता है जिस व्यक्ति के पास धन है, उसमें दानवृत्ति नहीं होती, जिस व्यक्ति में दानवृत्ति होती है उसके पास धन का अभाव होता है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जिस व्यक्ति के पास सुस्वादु भोजन उपलब्ध है उसके पास भोजन का आनन्द लेने के लिए दांत उपलब्ध नहीं होते और जिसके पास सुन्दर स्वच्छ दांत हैं उसके पास स्वादिष्ट भोजन का अभाव बना रहता है। या फिर उसकी पाचन-शक्ति साथ नहीं देती यही तो संयोग की बात है अर्थात् भाग्य की विडम्बना होती है, इसीलिए पूर्वजन्मों का फल ही व्यक्ति को संयोग या दुर्योग प्रदान करता है।

आचार्य चाणक्य सुखद गृहस्थी का नुक्ता बताते हुए कहते हैं कि परिवार का सुख व समृद्धि इस बात पर निर्भर करता है कि परिवार का स्वरूप कैसा है?

जिस परिवार में पिता-भक्त पुत्र होता है अर्थात् जो पिता व माता का सहायक होता है-वही सच्चा पुत्र कहलाता है। जो पिता, पुत्र का हर प्रकार से उचित भरण-पोषण करता है और उसके सुख-दुख का ध्यान रखता है, वही सच्चा पिता कहलाता है। प्रत्येक व्यक्ति पर विश्वास नहीं किया जा सकता। जिस व्यक्ति पर विश्वास किया जा सके वही सच्चे अर्थों में मित्र कहलाने योग्य होता है।

आचार्य चाणक्य का मत है कि जो नारी अपने पति को हर प्रकार से सुख देने में भागीदार होती है, वही सच्चे अर्थों में पत्नी कहलाती है।

वह स्पष्ट करते हैं कि इस प्रकार से सुख व समृद्ध परिवार की परिभाषा उस परिवार के सदस्य अपने व्यवहार से गढ़ते हैं।

आचार्य चाणक्य ने शिक्षा के महत्व के साथ-साथ माता-पिता के कर्तव्य का उल्लेख इस श्लोक में किया है। वह कहतें हैं कि जो माता-पिता अपने पुत्र को शिक्षित नहीं करते हैं, वे उसके शत्रु के समान होते हैं।

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