छत्तीसगढ़ में आदिवासी राजनीति…असली और नकली “आदिवासी” के कंफ्यूजन में जीतती रही भाजपा
यशवंत धोटे
रायपुर/नवप्रदेश। पौने तीन करोड़ की आबादी वाले छत्तीसगढ में 34 फीसदी आदिवासी आबादी और 90 सदस्यीय विधानसभा में 29 सीटें आदिवासियों के लिए सुरक्षित है। दो सामान्य सीटो पर भी आदिवासी ही चुनाव लड़ते है। क्योंकि वहां आदिवासी बहुलता है। 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने 27 आदिवासी सीटें जीती थीं। लोकसभा की 11 में से 4 सीटें बस्तर, कांकेर, रायगढ़, सरगुजा आदिवासियों के लिए आरक्षित है। जिसमें से बस्तर की सीट कांग्रेस के पास है बाकि तीनों सीटे भाजपा के पास है।
सरगुजा सीट की सांसद रेणुका सिंह केन्द्र में जनजातीय मामलों की राज्यमंत्री है और अभी भाजपा ने उन्हें भरतपुर-सोनहत विधानसभा चुनाव लडऩे के लिए टिकिट दिया है। लंबे समय तक भाजपा से सांसद रहे नंदकुमार साय इन दिनो कांग्रेस में हैं और पत्थलगाव से विधानसभा का टिकिट मांग रहे हंै। हार्ड हिन्दुत्व की प्रयोगशाला से बाहर निकले साय को कांग्रेस साफ्ट हिंदुत्व का ब्रांड एम्बेसडर बनाने की कोशीश में है।
ऐसा पहली बार होने जा रहा है कि सर्व आदिवासी समाज नाम का संगठन लगभग 50 सीटों पर चुनाव लडऩे जा रहा हैं। भानुप्रतापपुर के उपचुनाव में इस संगठन के प्रत्याशी रिटायर्ड डीआईजी (आईपीएस) अकबर राम कोर्राम को 16 फीसदी वोट मिलने से इस संगठन के हौसले बुलंद है। यहा यह बताना लाजमी है कि यह संगठन रिटायर्ड आईएएस, आईपीएस, आईआरएस के अलावा राज्य सेवा के अफसर कर्मचारियों का है। लेकिन चुनावी राजनीति के चलते इसके भी दो गुट हो गए हैं इसमें एक कांग्रेस के साथ है दूसरा कांग्रेस के विरोध में है।
संगठन 29 आदिवासी सीटों के अलावा 20 ऐसी सामान्य सीटे चिन्हित कर रहा है जहा आदिवासी वोटरों की संख्या 20 से 40 हजार तक है। इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी और नरसिंह रांव के मंत्री मंडल में मंत्री रहे वरिष्ठ आदिवासी नेता अरविंद नेताम इस संगठन का नेतृत्व कर रहे हैं। उनकी यदि माने तो पिछले 23 साल में छत्तीसगढ़ की आदिवासी राजनीति दिशाहीन हो गई है।
जल, जंगल, जमीन और पेसा कानून जैसे मसलों को लेकर जो आदिवासी पिछले 15 साल से भाजपा की सरकार से लड़ता रहा वह भी ठगा गया। पेसा कानून तो लागू हुआ लेकिन भाषा बदल दी गई। आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन के अधिग्रहण या उपयोग के लिए ग्राम सभा से अनुमति लेने का पेसा कानून में उल्लेख है लेकिन राज्य सरकार ने इसे लागू करते समय ‘अनुमति” की जगह ‘परामर्श” शब्द का नियम बना दिया। यानि इस कानून से भी आदिवासी ठगा गया। हालांकि नेताम के इस दावे से इतर 2018 में भूपेश बघेल ने मुख्यमंत्री बनते ही बस्तर के उन आदिवासियों की हजारों एकड़ जमीन वापस करवाई जो टाटा समूह ने उद्योग के लिए ले तो ली लेकिन लगाए नहीं।
इसके अलावा सरकार ने जिस तरह किसानों के धान का समर्थन मूल्य बढ़ाया उसी तरह उसी तरह वनोपज में न केवल मूल्य बढ़ाया बल्कि उसके बाजार की व्यवस्था सुनिश्चित की। वैसे तो नवप्रदेश छत्तीसगढ़ के अस्तित्व में आते ही आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग को लेकर निकली आदिवासी एक्सप्रेस के ड्राइवर भले ही अजीत जोगी रहे हो लेेकिन उसमें सवारी के तौर पर भूपेश बघेल भी सवार थे। जो पहले दिन से ही जोगी को आदिवासी मानने तैयार नहीं थे। लेकिन वर्ष 2000 में अजीत जोगी जब मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने अपने आप को दस्तावेजों में आदिवासी घोषित कर आदिवासी के लिए सुरक्षित मरवाही विधानसभा सीट से उपचुनाव लड़ा और जीता।
उस समय सरगुजा संभाग के कद्दावर आदिवासी नेता रहे नंदकुमार साय को भाजपा ने छत्तीसगढ़ विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाया था।
तब साय के सामने दोहरी चुनौती थी। पहली ये कि अजीत जोगी को नकली आदिवासी साबित करना और दूसरी यह कि भाजपा को राज्य में स्थापित करना।
हालांकि उन्हें इस काम में कांग्रेस के मूल आदिवासी नेताओं का अपरोक्ष समर्थन मिलता रहा लेकिन तीन बार से सत्ता में काबिज रही भाजपा को यह राजनीति सूट कर रही थी कि जब तक जोगी का जाति विवाद चलता रहा आदिवासी वोट भाजपा को मिलता रहा। यही वजह रही कि 2003, 2008 और 2013 में आदिवासी क्षेत्रों में भाजपा शानदार प्रदर्शन करती रही। मसलन 2003 में भाजपा को 25 आदिवासी सीटें मिली जिसमें 11 बस्तर में और 14 सरगुजा संभाग में।
2008 में भाजपा को 19 आदिवासी सीटें मिली जिसमें 11 बस्तर में और 8 सरगुजा में। 2013 में 11 सीटें मिली जिसमें 5 बस्तर में 6 सरगुजा में। भाजपा इन आदिवासी सीटों के बूते सत्ता में आती रही लेकिन जैसे ही अजीत जोगी कांग्रेस की राजनीति से अप्रासंगिक हुए 2018 में कांग्रेस को आदिवासियों ने जमकर वोट दिया और 27 सीटे मिली और भाजपा को सिर्फ 2 सीटें।
अविभाजित मध्य प्रदेश से लेकर अब तक देखा जाय तो कांग्रेस के राजनीतिक इतिहास में आदिवासी क्षेत्रों में ऐसी सफलता नहीं मिली थी। कांग्रेस में आए वरिष्ठ आदिवासी नेता नंदकुमार साय दैनिक नवप्रदेश से बातचीत में कहा कि भाजपा में आदिवासियों को मुखौटे के रूप में उपयोग करने का प्रचलन हैं। 23 साल से मेरे साथ यही हुआ। लेकिन बस्तर से ही पूर्व मंत्री बीजापुर विधानसभा के प्रत्याशी महेश गागड़ा, नंदकुमार साय की दलील को खारिज करते हंै। कहते हंै कि यदि राजनीतिक तौर पर आदिवासी जागृत नहीं होता तो नौकरशाही का रूझान इधर नहीं होता।
गौरतलब है कि भाजपा ने दो पूर्व आईएएस अफसरों को भी टिकिट दी है जिसमें एक आदिवासी है और सरकारी नौकरी छोडकऱ आए हैं। महेश गागड़ा स्वयं का उदाहरण देते हुए कहते हैं उनके परिवार से कोई राजनीति में नहीं था लेकिन वे विधायक बने मंत्री बने। इसलिए यह कहना ठीक नहीं कि होगा कि आदिवासी राजनीति की धार कूंद हो गई हो या कमतर है।
दरअसल राज्य की आदिवासी राजनीति को भौगोलिक दृष्टि से भी देखने की जरूरत हैं राज्य के दक्षिण में बस्तर और उत्तर में सरगुजा संभाग है। बस्तर में 12 और सरगुजा मे 14 आदिवासी सीटे हैं। कमोबेश लोकसभा का वर्गीकरण भी इसी तरह का है। बस्तर और सरगुजा संभाग में लोकसभा की दो-दो सीटें हैं। 34 फीसदी आदिवासी आबादी के नाम से हो रहे राजनीतिक बंदरबांट को उपरोक्त राजनीतिक घटनाक्रमों से समझा जा सकता है।