Sexual Violence : उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रकरण में ”महत्वपूर्ण अनदेखी”
राजीव खंडेलवाल। Sexual Violence : यौन हिंसा के अपराध के संबंध में ”प्राथमिकी” दर्ज करने से लेकर जांच की प्रक्रिया, अभियुक्त की गिरफ्तारी और जमानत देने देने के संबंध में उच्चतम न्यायालय ने बार-बार अपने न्यायिक निर्णयों द्वारा विस्तृत स्पष्ट सिद्धांत प्रतिपादित किए हैं। परंतु यह अत्यंत दुख का विषय है कि इन प्रतिपादित सिद्धांतों का संबंधित क्षेत्रों अर्थात शासन-प्रशासन, जांच पुलिस अधिकारियों और अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा पूर्णत: पालन नहीं किया जाता रहा है। यानी कि ”बातें लाख की और करनी ख़ाक कीÓÓ। ज्यादा दुख और चिंता का विषय यह इसलिए भी है की उच्चतम न्यायालय की आंख के नीचे ही नहीं, बल्कि स्वयं उच्चतम न्यायालय के सामने कभी ऐसी स्थिति आने पर न्यायालय का उसके ध्यान द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों के पालन की ओर नहीं जाता है, जैसा कि उक्त प्रकरण में हुआ भी है।
बृजभूषण शरण सिंह के विरूद्व 21 अप्रैल को दिल्ली के कनॉट प्लेस थाने में यौन हिंसा की शिकायत देने के बावजूद 24 अप्रैल तक ”प्राथमिकीÓÓ दर्ज नहीं की गई। तब महिला पहलवानों द्वारा प्राथमिकी दर्ज कराने के लिए दिनांक 25 अप्रैल को दाखिल की गई याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने प्रारंभिक हिचक के बाद आरोपों को गंभीर बताते हुए मामले की तुरंत सुनवाई करते हुए दिल्ली पुलिस प्रशासन को नोटिस जारी करते हुए 28 तारीख को प्रकरण सुनवाई हेतु रखा गया। जब तीसरी बार दिनांक 4 मई को सुनवाई की, तब उच्चतम न्यायालय ने यह कहते हुए याचिका कर्ता की याचिका को ”पूर्णÓÓ मानकर समाप्त कर दिया कि जो अनुतोष (प्रार्थना) मांगी गई है, 28 अप्रैल की हुई सुनवाई में वह ”पूर्णÓÓ कर दी गई है। अब ”पंच कहें बिल्ली तो बिल्ली ही सहीÓÓ। हालांकि तकनीकी रूप से उच्चतम न्यायालय का उक्त निष्कर्ष/अवलोकन (ऑब्जरवेशन) सही होने के बावजूद अधूरा है।
वह इसलिए कि जब 28 तारीख को सुनवाई के लिए मामला उच्चतम न्यायालय के पास आया, तब उच्चतम न्यायालय के कोई आदेश-निर्देश देने के पूर्व ही दिल्ली पुलिस के ओर से इस बात का हलफनामा तस्दीक कर प्रस्तुत की गई कि वह महिला पहलवानों द्वारा दायर की गई शिकायत पर प्राथमिकी दर्ज कर लेंगे। तदनुसार प्राथमिकी परन्तु उसी दिन दर्ज न होकर दूसरे दिन दर्ज हुई। 6 दिन बाद 3 तारीख की रात्रि को कनॉट प्लेस में पुलिस द्वारा उनके दुव्र्यवहार व मारपीट की हुई घटना के बाद दिनांक 4 मई को उच्चतम न्यायालय में जब महिला पहलवानों की ओर से मामले को तीसरी बार पुन: मेंशन (उल्लेख) कर उक्त दुव्र्यवहार का उल्लेख किया गया तब उच्चतम न्यायालय द्वारा सुनवाई करते समय तक मात्र दो महिला पहलवानों के बयान ही दर्ज हुए थे। तब तक अभियुक्त के कोई बयान न तो दर्ज किए गए थे और न ही दर्ज करने का कोई प्रयास पुलिस द्वारा अपनी केस डायरी में बतलाया गया।
साथ ही मजिस्ट्रेट के समक्ष धारा 164 के अंतर्गत भी बयान नहीं हुए थे, जैसा कि स्वयं न्यायालय ने दिल्ली पुलिस को फटकार लगाते हुए पुछा था। कहते हैं ना कि ”कच्ची सरसों पैर के खाली होय ना तेलÓÓ। विपरीत किसके बृजभूषण सिंह बेशर्मी के साथ विभिन्न न्यूज चैनलों में आकर ”खूंटे के दम पर कूदने वाले बछड़ेÓÓ के समान ख़ुद को बाहुबली समझने वाले अपनी दंभता को प्रदर्शित बताकर महिला पहलवानों को एक तरह से डराने का ही काम किया।
उच्चतम न्यायालय अपने पूर्व निर्णयों में स्पष्ट रूप से यह सिद्धांत प्रतिपादित कर चुका है की ”यौन हिंसाÓÓ जैसे संज्ञेय अपराध मामलों में शिकायत आने पर बिना कोई प्राथमिक जांच किए तुरंत ”प्राथमिकीÓÓ दर्ज न करने पर संबंधित पुलिस अधिकारी के विरुद्ध धारा 166 ए के अंतर्गत ड्यूटी व कर्तव्य न निभाने के अपराध का प्रकरण दर्ज किया जाएगा। ऐसी स्पष्ट कानूनी स्थिति में उच्चतम न्यायालय ने महिला पहलवानों द्वारा प्रथम बार जनवरी में शिकायत करने पर और बाद में 21 अप्रैल को थाने में शिकायत करने पर भी प्राथमिकी दर्ज न करके कानून की अवहेलना की गई। इस स्थिति के उच्चतम न्यायालय में मामले की सुनवाई के समय विद्यमान रहने पर उच्चतम न्यायालय ने उक्त प्रथम दृष्टया घटित अपराध का संज्ञान लेकर दिल्ली पुलिस के वकील अटॉर्नी जनरल को जांच पुलिस बल के विरूद्ध आपराधिक प्रकरण दर्ज करने के लिए नोटिस क्यों नहीं जारी किया? जो न केवल न्यायालय के क्षेत्राधिकार में था बल्कि पूरा न्याय दिलाने के लिए उनका न्यायिक कर्तव्य भी था।
ठीक वैसे ही जैसा उच्चतम न्यायालय ने मोहम्मद अतीक अहमद की हत्या के मामले में दायर याचिका पर सुनवाई करते समय केंद्रीय सरकार से उसके पूर्व एनकाउंटर में मारे गए दोनों अपराधी अरशद एवं अशरफ की स्टेटस रिपोर्ट को मांगा था जिसकी सुनवाई उस समय उच्चतम न्यायालय के सामने नहीं थी। वास्तव में महिला पहलवानों की याचिका में छुपी ये ”इन-बिल्टÓÓ अपराध की ”जांच अधिकारियों द्वारा अपने कर्तव्य को न निभाने का अपराध का संज्ञान लेकर उच्चतम न्यायालय ने कार्रवाई क्यों नहीं की? यह समझ से परे है। यद्यपि यह बात भी सत्य है कि याचिकाकर्ता के वकील को भी इस अपराध का संज्ञान लेने के लिए उच्चतम न्यायालय का ध्यान आकर्षित करना चाहिए था। लेकिन यह बात भी तो सही है कि उच्चतम न्यायालय तो कई बार समाचार पत्रों में छपी खबरों का टीवी चैनल में आए न्यूज का संज्ञान लेते रहे हैं।
वास्तव में उपरोक्त कानूनी और न्यायिक स्थिति को देखते हुए प्रस्तुत प्रकरण में ”निम्न कमियां प्रथम दृष्टयाÓÓ स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रही है। प्रथम पुलिस द्वारा 6 महिलाओं की एक ही एफआईआर दर्ज की गई, जो कानूनन बिल्कुल गलत है। प्रत्येक पीडि़त महिला की ”प्राथमिकीÓÓ अलग-अलग दर्ज की जानी चाहिए थी। दूसरी समस्त पीडि़तों के धारा 161 के तहत बयान लेने में न केवल काफी देरी की गई बल्कि समस्त पीडि़तों के बयान भी अभी तक नहीं लिए गए। तीसरी पुलिस द्वारा धारा 161 के अंतर्गत बयान लिये जाने के बाद धारा 164 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट के समक्ष पीडि़तों के बयान पुलिस द्वारा कराये जाने का कोई प्रयास अभी तक नहीं किया गया।
चौथी त्रुटि अपराध जहां-जहां घटित हुए हैं, घटना स्थल की कोई जांच पुलिस द्वारा अभी तक अब नहीं की गई। एक ओर गंभीर त्रुटि पीडि़ता की मेडिकल जांच भी नहीं की गई, जो यौन अपराधों में निहायत जरूरी होती है। शिकायतकर्ता से कोई गवाहों की सूची भी नहीं मांगी गई है जो भी एक लापरवाही है।
इन सब गंभीर त्रुटियों लापरवाहियों को देखते हुए स्पष्ट है कि, जांच पुलिस दल द्वारा जांच को किस दिशा में ले जाने का प्रयास किया जा रहा है? यह अपने आप में स्पष्ट है। यदि आप यह तथ्य भी दिमाग में लायेंगे कि अपराधी एक बाहुबली होकर सत्ताधारी पार्टी का सांसद बृजभूषण सिंह की बजाए एक सामान्य नागरिक होता, क्या तब भी पुलिस जांच की कार्रवाई इसी तरह से दिशाहीन व धीमी गति से होती?
मामला जब एक बार उच्चतम न्यायालय में जा चुका है और जांच प्रक्रिया के दौरान हुई किसी भी कमियों को सुधारें जाने के लिए पीडि़ता मामले को पुन: उच्चतम न्यायालय अथवा उच्च न्यायालय में ले जा सकती है। इस तथ्य होने के बावजूद पुलिस जांच दल की कार्य प्रणाली, साहस की नहीं बल्कि ”दु:साहसÓÓ की दाद तो देनी ही होगी। जब उच्चतम न्यायालय के समक्ष प्रकरण अंतिम बार सुनवाई हेतु था, तब पुलिसिया जांच प्रक्रिया में हुई उपरोक्त लगभग समस्त त्रुटिया न्यायालय के समक्ष मौजूद थी जिसमें से कुछ त्रुटियों पर तो न्यायालय ने दिल्ली पुलिस को फटकार भी लगाई थी। बावजूद इसके उच्चतम न्यायालय ने कर्तव्य का पालन न करने वाले त्रुटि कर्ता पुलिस अधिकारियों के विरूद्ध कोई कार्रवाई करने के निर्देश नहीं दिये।
बावजूद इसके मुख्य न्यायाधीश (Sexual Violence) के यह कहने के कि स्वयं व्यक्तिगत रूप से इस मामले का परिर्वेक्षण करेगें। ऐसी स्थिति में उपरोक्त त्रुटियों के रहते उनका उपचार हुए बिना 4 मई को प्रकरण को पूरा होकर समाप्त करना ”पूर्ण न्याय नहींÓÓ है। वैसे भी अनुच्छेद 142 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय के पास अंतर्निहित शक्तियां (इन्हेरेंट पावर्स) है, जिसका उपयोग करके उच्चतम न्यायालय उपरोक्त समस्त कमियों को दूर करने के लिए आवश्यक निर्देश जारी कर सकता था, जो करना चाहिए था,परंतु न्यायालय ने नहीं किया। यह उच्चतम न्यायालय की त्रुटि है जैसा कि मैं पहले ही ऊपर पैरे में स्पष्ट कर चुका हूं।