Privatization : ‘निजीकरण’ की ओर बढ़ती सरकार !
राजीव खण्डेलवाल : Privatization : वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने वर्ष 2021-22 के बजट में ”एसेट्स मोनेटाइजेशन इनिशिएटिव” पर काफी जोर दिया था, जिसे कार्य रूप में परिणित करने के लिये 23 अगस्त को ”नेशनल मोनेटाइजेशन पाइपलाइन’ (एनएमपी) (राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन) को लांच की। वित्तमंत्री ने ”देश की पूंजी” सरकारी सम्पत्ति को निजी क्षेत्रों को विदेशी क्षेत्रों सहित लीज पर देकर आगामी 4 वर्षो में लगभग 6 लाख करोड़ आय की योजना की परिकल्पना की घोषणा की।
इनमें बिजली से लेकर राष्ट्रीय राज मार्ग, रेलवे, पेट्रोलियम पाइप लाइन, टेलीकॉम, खनन (माइन्स), एयरपोर्ट, पोर्ट, वेयरहाउस, स्टेडियम जैसे बुनियादी ढ़ाचे (कुल 8 मंत्रालय) शामिल है। किसी भी स्थिति में सम्पत्ति का स्वामित्व सरकार के पास ही रहेगा। सिर्फ अन या अडंर-यूटिलाइज्ड़ एसेट्स (बेकार पड़ी अथवा कम उपयोग की गई सम्पत्ति) को ही निजी क्षेत्रों को देगी। तय निश्चित समय सीमा के पश्चात ‘अनिवार्य’ रूप से सम्पत्ति का प्रबंधन (कंट्रोल) निजी क्षेत्र को वापस सरकार को करना होगा।
सहसा ही यह विश्वास नहीं होता है कि क्या यह उस भाजपा का निर्णय है, जो जनसंघ से लेकर भाजपा तक के सफर में सत्ता में आने के पूर्व तक, वर्ष 1991 में पी.वी. नरसिम्हा राव की कांग्रेसी सरकार से प्रारंभ की गई निजीकरण (Privatization) व आर्थिक उदारीकरण की नीति केे सख्त खिलाफ थी। वर्ष 1991 में स्थापित स्वदेशी जागरण मंच जिसे संघ का आर्थिक विभाग भी कहा जाता है के माध्यम से पर उपदेश कुशल बहुतेरे की तजऱ् पर भाजपा ने राष्ट्रव्यापी स्वदेशी आंदोलन कर इस नीति का पुरज़ोर विरोध किया था।
डंकन प्रस्ताव को भाजपा के राष्ट्रव्यापी विरोध को लोग अभी तक भूले नहीं है। यद्यपि भाजपा जब पहली बार केंद्र की सत्ता में आयी थी, अर्थात अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रीत्व काल में भी निजी व विदेशी विनिवेश की नीति का समर्थन किया था। तथापि भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक व स्वदेशी जागरण मंच के जनक दत्तोपंत ठेंगडी का बाजपेयी जी का सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण की नीति को लेकर गहरे मतभेद थे।
देश की सम्पत्ति सार्वजनिक संस्थानों और प्राकृतिक संशाधनों को निजी हाथों में लम्बे समय के लिए चलाने के लिये ‘लाभ हानि’ सहित सौंपने की नीति को ‘निजीकरण’ जो अब एक “राजनैतिक गाली” व असुविधाजनक शब्द का रूप ले कर मुन्नी से भी ज़्यादा बदनाम हो चुकी है, के बदले लीज व मुद्रीकरण का ‘नामकरण’ देकर सरकार उसे जायज, उचित व आवश्यक’ ठहरा रही है।
तथापि वित्तमंत्री ने इस संपूर्ण मुद्रीकरण को निजीकरण (Privatization) मानने से स्पष्ट रूप से इंकार किया है। परन्तु बुनियादी ढ़ाचे के निर्माण के लिए इसे एक महत्वपूर्ण वित्त पोषक जरूर बतलाया है। 51 प्रतिशत एफडीआई से लेकर एयरपोर्ट, रेलवे का निजीकरण का भाजपा पूर्व में विरोध कर चुकी है। कल्पना कीजिए कि अंधे पीसें कुत्ते खांय की तजऱ् पर आज लाल किला और रेलवे का आंशिक रूप से. निजीकरण की ओर बढ़ाया गया कदम, यदि कांग्रेस सरकार के द्वारा उठाया गया होता तो, भाजपा देश में कितना बड़ा हंगामा खड़ा कर देती?
मुद्दा यहाँ फिलहाल मुद्रीकरण का है। वित्तमंत्री सीतारमण सहित सरकार के नुमाइंदे बार-बार स्पष्ट रूप से यह कहते-कहते थक चुके हैं कि सम्पत्तियों का स्वामित्व सरकार के पास ही रहेगा। कुछ समय के लिए निजी संस्थानों को लीज पर दिया जायेगा। और निश्चित लीज की अवधि के समाप्त होने के बाद वापिस प्रबंधन सरकार के पास आ जायेगा। बेचने व लीज पर देने पर निश्चित रूप से तकनीकि रूप से महा-अंतर है।
परन्तु व्यवहार में 30-40-50 साल की लम्बी अवधि की लीज देकर सम्पत्ति का हस्तातंरण ठीक वैसे ही हैं, जैसा कि सरकार नजूल जमीन को लीज पर 30 से 90 वर्ष के लिये देती है, परंतु उस भूमि के पट्टे पर पट्टेदार स्थायी निर्माण करता है व कभी भी सरकार पुन: प्रवेश (रीएंट्री नहीं) करती है। लम्बे समय पर सम्पत्ति के उपयोग कर पट्टेदार द्वारा मुनाफा कमाने के बाद उस सम्पत्ति की क्या कंडीशन (स्टेटस) रह जायेगी, इसकी कल्पना करना मुश्किल नहीं है। भाजपा प्रवक्ता उक्त कदम उठाने के पक्ष में (मिनिमम गवर्नमेंट और मैक्सिमम गवर्नेंस के सिंद्धान्त को उद्धत कर रहे हैं।
एक प्रश्न यहां उत्पन्न होता है कि वित्तमंत्री ने सरकारी-सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में “हमेशा” समस्त निजी क्षेत्रों की कार्यकुशलता (एफिशिएंसी) को कैसे “बेहतर” मान लिया? क्या अनिल अंबानी का उदाहरण सामने नहीं है? यदि वित्तमंत्री कार्यकुशलता पर यूएनडीपी द्वारा जारी पेपर्स का अध्ययन करती; तो उन्हें यह ज्ञात हो जाता कि वोडाफोन-आइडिया जैसी टेलीफोन कंपनियां सहित अनेक प्रसिद्ध नामी निजि क्षेत्रों के संस्थान और उद्योगपति “एनपीए” होकर दिवालियापन की स्थिति में आ गए हैं। अर्थात कार्यकुशलता, अक्षमता व कुप्रबंध की भागिता सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों में है। लेकिन गरीब जनता के आर्थिक हितों की संरक्षण के कारण दोनों क्षेत्र की उक्त तुलना करना सही नहीं होगा।
दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि निजीकरण की ओर बढ़ते इस रास्ते में “सामाजिक सुरक्षा का क्या होगा? सरकार हमेशा की तरह यह दावा अवश्य करेगी कि वह यह मुद्रीकरण की नीति लागू करते समय इन संस्थानों में कार्यरत कर्मचारी के हितों के लिए निजी क्षेत्रों पर व्यापक प्रभावी प्रतिबंध लगायेगी ताकि शोषण व एकाधिकार न हो सके। इसकी विस्तृत जानकारी वित्त मंत्रालय ने जारी 196 पेजों की 2 पुस्तिकाओं में दी है,जिसमें उक्त पाइपलाइन में आने वाले क्षेत्रों और उनसे होने वाली संभावित आय की गणना भी की गई है। प्रश्न कड़क प्रभावी नियम कानून बनाने का नहीं है, बल्कि हमेशा की तरह उसे कड़कता से प्रभावी रूप से लागू करने का है।
मुद्रीकरण की नीति की घोषणा करते समय एक ओर पहलु पर सरकार ने ध्यान नहीं दिया है कि उसके भी कुछ दायित्व व कर्तव्य ऐसे होते है, जहां आर्थिक लाभ-हानि की चिंता किए बिना जनता के प्रति अपने सामाजिक सरोकार को पूरा करने के लिए सरकार को आर्थिक (अर्थ के) अंकगणित को छोड़ते हुये कुछ आवश्यक कदम उठाने पडते हैं, जिसका आर्थिक बोझ आम जनों के हित में सरकार को वहन करना होता है। जो प्राय: निजी क्षेत्र लगभग बिल्कुल नहीं करते हैं। साफ है कि यह नीति इन संस्थानों में कार्यरत कर्मचारियों को तो कसाई के खूंटे से बांधने के समान है।
अत: इस योजना में सरकार कितनी सफल हो पायेगी फिलहाल इसका जवाब भविष्य के गर्भ में ही है। क्योंकि यह बात तो तय है सरकार का स्वयं के तंत्र को भी मजबूत, सुदृण और पूर्णत: निरोगी होना सुदृढ़ शासन/प्रशासन के लिये आवश्यक है।
अंत में केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने पत्रकार वार्ता में राहुल गांधी की बार-बार देश बेचने की कही गई बात की आलोचना करते हुए उल्टे ही कांग्रेस सरकार के दो-तीन निजिकरण (Privatization के निर्णयों का उदाहरण देकर देश बेचने का प्रश्नवाचक चिन्ह उनकी दादी इंदिरा गांधी पर ही लाद दिया? यानी “हेड्स आई विन, टेल्स यू लूज़”!! तथ्यात्मक रूप से दागे गए प्रश्न “सही” होने के बावजूद स्मृति ईरानी चतुराई से या यह कहें बेशर्मी से यह तथ्य छुपा गई कि तब कांग्रेस के उठाए गए उदारीकरण के उन कदमों पर तत्समय क्या भाजपा ने उसे देश हित में मान कर, ताली बजाकर पूरे देश में स्वागत किया था? संसद में प्रशंसा का प्रस्ताव लाया था?
या तत्समय यूपीए नेत्री इंदिरा गांधी या कांग्रेसी प्रधानमंत्री की पीठ थपथपाई थी? तब क्या उक्त कदम के स्वागत के लिये स्वदेशी जागरण मंच का गठन हुआ था? स्मृति ईरानी भूल गयीं कि “कांच के घर में रह कर दूसरों पर पत्थर नहीं फेंके जाते”। यद्यपि कांग्रेस प्रवक्ता द्वारा “प्रति प्रश्न” न किए जाने से स्मृति ईरानी को आगे स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी और वे शर्मनाक (आकवर्ड) स्थिति का सामना करने से बच गई। लेकिन इससे स्पष्ट हो जाता है नीति चाहे कितनी ही देश हित में हो, विपक्ष में रहने पर उसका विरोध करना भी शायद “देश हित” ही कहलाता है।
वर्तमान विनिवेश, मुद्रीकरण, निजीकरण, आर्थिक उदारीकरण या आप उससे अन्य कोई भी नाम दे दें, राजनीति के चलते भाजपा कांग्रेस दोनों आमने सामने खड़े न हो कर “बड्र्स ऑफ द सेम फ़ीदर फ़्लॉक टुगेदर” के समान एक दूसरे के पूरक होकर, परंतु देश के हितों के विरुद्ध जरूर खड़े दिखते हैं।
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार)