Old Pension Issue : चुनावी रण में पुरानी पेंशन का मुद्दा

Old Pension Issue : चुनावी रण में पुरानी पेंशन का मुद्दा

Old Pension Issue: The issue of old pension in the election battle

Old Pension Issue

राजेश माहेश्वरी। Old Pension Issue : पुरानी पेंशन का मुद्दा राजनीतिक गलियारों में लगातार चर्चा का विषय बना हुआ है। हिमाचल प्रदेश, गुजरात और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में पुरानी पेंशन की बहाली बड़ा मुद्दा थी। हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस ने अपने चुनाव प्रचार में पुरानी पेंशन स्कीम की बहाली को खास तवज्जो दी। जिसका फल भी उसे मिला और उसकी सत्ता में वापसी हुई। असल में पुरानी पेंशन बहाली की मांग देशभर में काफी समय से उठ रही है। लेकिन वो कभी प्रमुख चुनावी मुद्दा नहीं बनी। लेकिन हिमाचल चुनाव में ये मुद्दा बनी और अब ये उम्मीद है कि इस वर्ष कई राज्यों के विधानसभा चुनाव और 2024 के आम चुनाव में ये मुद्दा बनकर उभरेगी। केंद्र और कई राज्यों में बीजेपी की सरकार होने के बाद भी पार्टी सीधे इस पर बोलने से बचती है।

पिछले दिनों कांग्रेस शासित राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड, हिमाचल व पंजाब सरकार ने पुरानी पेंशन योजना लागू की है। भारतीय रिजर्व बैंक ने भले ही राज्यों को पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) की ओर लौटने के खिलाफ चेतावनी दी हो, लेकिन कई राज्य पहले ही इसकी तरफ वापस आने की घोषणा कर चुके हैं। फिलहाल तो ओपीएस पूर्वोत्तर के राज्य त्रिपुरा में भी एक चुनावी मुद्दा बन चुकी है। यहां 16 फरवरी को विधानसभा चुनाव होने हैं। वाम मोर्चे ने सत्ता में आने पर ओपीएस लाने का वादा किया है. गौरतलब है कि पूर्वोत्तर राज्य में 28 लाख मतदाताओं में 1.04 लाख सरकारी कर्मचारी और 80,800 पेंशनभोगी हैं। इसलिए यहां यह मुद्दा काफी मायने रखता है।

पुरानी पेंशन स्कीम को दरकिनार करते हुए वाजपेयी सरकार इसके बदले में एक नई पेंशन योजना (एनपीएस) लेकर आई थी जिसे 2004 से पूरे देश में लागू कर दिया गया था। पुरानी पेंशन स्कीम में कम से कम 20 सालों तक काम करने वाले सरकारी कर्मचारियों की पेंशन सेवानिवृति से पहले लिए गए अंतिम वेतन का 50 प्रतिशत होती है और यह पूरी राशि सरकार की तरफ से दी जाती है। पेंशन का भुगतान कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति के समय किया जाता है।

वहीं दूसरी तरफ एनपीएस यानी नई पेंशन स्कीम अंशदान आधारित पेंशन योजना है। इसमें कर्मचारी के साथ-साथ सरकार भी अंशदान देती है। सरकार और कर्मचारी मिलकर कर्मचारी के वेतन का क्रमश: 10 फीसदी और 14 फीसदी पेंशन फंड में योगदान करते हैं। इस पेंशन फंड का निवेश पेंशन फंड नियामक और विकास प्राधिकरण द्वारा डायवर्सिफाइड पोर्टफोलियो में किया जाता है। दरअसल विचार यह है कि ये अंशदान बढ़ेंगे और इसलिए सरकार जरूरत पडऩे पर पेंशन का भुगतान करने के लिए इन फंडों का इस्तेमाल कर सकती है। भारतीय रिजर्व बैंक ने कई रिपोर्टों में ओपीएस में वापसी को राजकोष पर बढ़ते भार के रूप में रेखांकित किया है क्योंकि यह केंद्र सरकार की देनदारी को कई गुना बढ़ा देता है।

वहीं दूसरी ओर देश के कई जाने-माने अर्थशास्त्री भी आर्थिक सुधारों व वित्तीय संतुलन की कवायद के बीच पुरानी पेंशन के देशव्यापी बोझ से अर्थव्यवस्था के दबाव में आने की आशंका जता रहे हैं। पिछले दिनों हिमाचल के चुनाव में ओल्ड पेंशन बड़ा सियासी मुद्दा बना, भाजपा ने उसकी कीमत भी चुकाई। बताते हैं कि पेंशन योजना लागू होने से राज्य पर नई पेंशन के मुकाबले चार गुना वित्तीय बोझ बढ़ेगा। इस समय हिमाचल में पेंशन पर लगभग 7500 करोड़ रुपए खर्च हो रहे हैं। ऐसे में पहले ही कर्ज में डूबी सरकारें वित्तीय सुशासन स्थापित कर पाएंगी, इस बात में संदेह है। वहीं केंद्र की तरफ से कोई वित्तीय सहयोग की बात नहीं कही गई है। योजना आयोग के पूर्व डिप्टी चेयरमैन मोंटेक सिंह अहलूवालिया ओल्ड पेंशन योजना को अव्यावहारिक व भविष्य में आर्थिक कंगाली लाने वाला बता चुके हैं। उन्होंने पिछले दिनों कहा कि इसका परिणाम यह होगा कि दस साल बाद वित्तीय अराजकता पैदा हो जाएगी।

उनके बयान के बाद इस मुद्दे पर नये सिरे से बहस छिड़ गई है। विपक्ष के पास मुद्दों का अभाव है। लेकिन पुरानी पेंशन बहाली के मुद्दे पर विपक्षी दलों को पेंशनधारकों का साथ मिलता दिखाई दे रहा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक पहाड़ी राज्य हिमाचल में बीजेपी की हार की बड़ी वजह ओपीएस फैक्टर भी रहा, जिसे कांग्रेस ने लागू करने का वादा किया था। 2002 के यूपी विधानसभा चुनाव में मुख्य विपक्षी पार्टी समाजवादी पार्टी ने ओल्ड पेंशन स्कीम को घोषणापत्र में शामिल किया था। पार्टी को इसका जबरदस्त फायदा भी मिला और 111 सीटों पर जीत दर्ज की। जीत के बावजूद बीजेपी की सीटें घट गई, जिसका कारण ओपीएस को ही माना गया। यूपी में कर्मचारी इसे लागू करने की मांग को लेकर सड़कों पर भी उतरे थे।\

2024 में लोकसभा का चुनाव है। लोकसभा चुनाव तक राजस्थान, एमपी समेत 9 राज्यों में विधानसभा के भी चुनाव होंगे। देश में करीब 2 करोड़ 25 लाख सरकारी कर्मचारी हैं। साथ ही जिन राज्यों में चुनाव होने हैं, वहां भी सरकारी कर्मचारियों की तादात ज्यादा हैं। ऐसे में यह तय माना जा रहा है कि ओपीएस बड़ा चुनावी मुद्दा बनेगा। अब तक कांग्रेस शासित राजस्थान, छत्तीसगढ़ और झारखंड ने ओपीएस लागू कर दी है। हिमाचल में भी सरकार बनने के बाद सरकार ने ओपीएस लागू करने का ऐलान किया है। पंजाब की आप सरकार भी ओपीएस को लेकर नोटिफिकेशन जारी कर चुकी है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि गैर-भाजपा शासित राज्यों ने पुरानी पेंशन योजना को लागू करके जो राजनीतिक तीर छोड़ा है, उसने केंद्र की मोदी सरकार की परेशानी बढ़ाने का काम किया है। इस योजना से कर्मचारियों में उत्साह है और अन्य राज्यों में भी कर्मचारी संगठन इसे लागू करवाने के लिये दबाव बना रहे हैं। चिंता जताई जा रही है कि कहीं ये मुद्दा अगले आम चुनाव में भाजपा के लिये मु्श्किलें पैदा न कर दे। 2018 में किसान कर्ज माफी स्कीम को कांग्रेस ने बड़ा मुद्दा बनाया था।

पार्टी ने राजस्थान, एमपी और छत्तीसगढ़ में 2 लाख रुपए तक के कर्ज माफ करने का ऐलान किया था। इसका फायदा भी पार्टी को मिला और तीनों राज्यों में सरकार बनी थी। किसान कर्ज माफी को देखते हुए केंद्र सरकार ने किसानों के लिए 6 हजार रुपए सालाना सहयोग राशि देने की घोषणा की, जिससे बीजेपी को 2019 चुनाव में राहत मिली थी। राजनीतिक विशलेषकों की माने तो कांग्रेस मन बना चुकी है कि नौकरीपेशा मध्यम वर्ग से टूटे तार जोडऩे के लिए पुरानी पेंशन स्कीम को गरमाया जाएगा। संकेत है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पुरानी पेंशन स्कीम की बहाली को अहम चुनावी मुद्दा बनाएगी। सार यह है कि ओपीएस कर्मचारियों को लुभाने के लिये विपक्ष का सबसे बड़ा अस्त्र बनने वाला है।

निस्संदेह, जीवन भर नौकरी के जरिये सेवा करने वाले व्यक्ति को बुढ़ापे के लिये आर्थिक संरक्षण जरूरी है। ये लोक कल्याणकारी सरकारों का दायित्व भी होता है। लेकिन लोककल्याण का मतलब ऐसा भी नहीं होना चाहिए कि देश की हालत श्रीलंका व पाकिस्तान जैसी हो जाए। दरअसल, अर्थशास्त्री मानते हैं कि देश की जनता को जागरूक करने की जरूरत है कि इस फैसले की भविष्य में हमें कीमत चुकानी पड़ेगी और विकास के हिस्से का धन गैर-उत्पादक कार्यों में खर्च होगा। कर्मचारियों को तो इसका लाभ होगा, लेकिन देश का बड़ा तबका उसकी कीमत चुकाएगा। केंद्र सरकार पर इसको लागू करने का दबाव होगा, लेकिन साथ ही इसके दूसरे पक्ष को भी लोगों को समझना चाहिए। आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि राजनीतिक तौर पर लिये गये गैरजिम्मेदार फैसले की कीमत हमारी आने वाली संतानों को चुकानी पड़ेगी।

-लेखक राज्य मुख्यालय पर मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं।

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