Indian Farmer’s Union : राजनीति की भेंट चढ़ गयी किसान यूनियन
राजेश माहेश्वरी। Indian Farmer’s Union : देश में किसानों के बड़े नेता स्वर्गीय महेन्द्र सिंह टिकैत की 11वीं पुण्यतिथि पर ही उनकी बनाई भारतीय किसान यूनियन दो धड़ों में बंट गई। सबसे बड़ी बात यह हुई कि किसान आंदोलन का सबसे बड़ा चेहरा बनकर उभरे बाबा टिकैत के दोनों बेटे नरेश टिकैत और राकेश टिकैत को भारतीय किसान यूनियन से बर्खास्त कर दिया गया। फतेहपुर जनपद के राजेश सिंह को भारतीय किसान यूनियन, अराजनैतिक का नया अध्यक्ष बनाया गया है। वास्तव में किसान आंदोलन को राजनीतिक रंग देने और यूपी समेत तमाम राज्यों में बीजेपी को चुनाव हराने की कोशिशों में लगे टिकैत बंधुओं की कार्यप्रणाली से संगठन के नेताओं में अनबन और मनमुटाव काफी समय से जारी था। असल में अराजनीतिक संगठन को टिकैत बंधु राजनीतिक संगठन की तरह चला रहे थे। उसी का नतीजा संगठन में दोफाड़ के तौर पर सामने आया है।
इतिहास के पन्ने पलटे तो 1 मार्च 1987 को महेंद्र सिंह टिकैत ने किसानों के मुददे को लेकर भाकियू का गठन (Indian Farmer’s Union) किया था। इसी दिन करमूखेड़ी बिजलीघर पर पहला धरना शुरू किया। इस धरने के दौरान हिंसा हुई थी, तो किसान आंदोलन उग्र हो गया। पीएसी के सिपाही और एक किसान की गोली लगने से मौत हो गई। पुलिस के वाहन फूंक दिए गए। बाद में बिना हल के धरना समाप्त करना पड़ा। 17 मार्च 1987 को भाकियू की पहली बैठक हुई, जिसमें निर्णय लिया कि भाकियू किसानों की लड़ाई लड़ेगी और हमेशा गैर-राजनीतिक रहेगी। इसके बाद से पश्चिम उत्तर प्रदेश में भाकियू किसानों के मुद्दे उठाने लगी। लेकिन तीन नये कृषि कानूनों के विरोध में हुये किसान आंदोलन में भाकियू केन्द्रीय भूमिका में रही और उसके नेता राकेश टिकैत बड़ा चेहरा बनकर उभरे। किसान आंदोलन के दौरान हिंसा और अन्य घटनाएं किसान नेताओं के एक धड़े को शुरू से नागवार गुजरी।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि किसान आंदोलन के नेता सरकार के पास बातचीत का प्रस्ताव भेजकर सिर्फ आंदोलन को जिंदा रखने और इसे टूट से बचाने की कोशिश में लगे रहे। आंदोलन के समय तमाम किसान अपने नेताओं से पूछ भी रहे थे कि यदि सरकार से बातचीत नहीं होगी तो रास्ता कैसे निकलेगा। कब तक आंदोलन को खींचा जा सकता है। कोरोना महामारी के समय आंदोलन को जारी रखने पर भी किसान नेता बंटे हुए थे। खासकर कोरोना को लेकर भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत जिस तरह की बे सिर-पैर की बातें कर रहे थे, उससे किसानों में कुछ ज्यादा ही गुस्सा था। कई किसान नेता तो खुलकर कह रहे थे कि यह किसान नहीं सियासी आंदोलन बन गया है। नाराजगी और फूट की बड़ी वजह तब पैदा हुई जब केंद्र द्वारा कृषि कानून वापिस लेने के बाद भी जिस तरह कुछ किसान नेता हठधर्मिता पर अड़े रहे।
आंदोलन के नाम पर हिंसा की गई। बीजेपी को हराने के लिए चुनावी राज्यों मे किसान आंदोलन के नेता पहुंच गए। इसी वजह से लगने लगा था कि किसान नेताओं का मकसद किसानों की समस्याओं का समाधान कराना नहीं, बल्कि केंद्र सरकार को झुकाना है। इसी वजह से आम किसानों ने आंदोलन से दूरी बना ली। सबसे दुख की बात यह है किसान नेता कोरोना महामारी की भी खिल्ली उड़ा रहे थे, कभी कहते थे टीका नहीं लगवायेगें, तो कभी कहते थे आधे टीके धरना स्थल पर ड्यूटी दे रहे पुलिस वालों को टीका लगाये जाएं ताकि हमें विश्वास हो जाए की सरकार हमारे साथ कुछ गलत नहीं कर रही है। किसान नेताओं की जिद के अलावा और कुछ नहीं कि वे कोरोना संक्रमण के भीषण खतरे के बाद भी धरना देने में लगे हुए थे।
दिल्ली में 26 जनवरी को हुई हिंसा के बाद जब किसान आंदोलन खत्म होने की कगार पर था तब राकेश टिकैत के आंसुओं ने कमाल किया और देखते ही देखते किसानों का हुजूम नए जोश के साथ फिर से उठ खड़ा हुआ। उसके बाद किसानों के मंच पर राजनीतिक दलों के नेता भी दिखाई दिए तो राकेश टिकैत के गांव सिसौली में हुई महापंचायत में नरेश टिकैत ने कहा कि हमने भाजपा को जिता कर बड़ी भूल की है। हमें अजीत सिंह को नहीं हराना चाहिए था। इधर, यूपी में भाजपा को छोड़ सभी राजनीतिक दलों में किसान आंदोलन को समर्थन देने की होड़ सी लग गई।
लाल किले की हिंसा के बाद से पंजाब के किसान नेता नेपथ्य में चले गये और पूरे किसान आंदोलन की कमान राकेश टिकैत के हाथ में आ गयी। राकेश टिकैत ने इस अवसर को पूरी तरह भुनाया। पंजाब, हरियाणा, यूपी, उत्तराखण्ड, पश्चिम बंगाल और दक्षिण भारत तक वो दौरे करके अपनी सियासत चमकाने लगे। एक बार तो ऐसा लगने लगा कि राकेश टिकैत और उनके साथी नेताओं की मंशा किसानों के मुद्दों को सुलझाने की बजाय अपनी राजनीति चमकाने में ज्यादा है। यूपी और उत्तराखण्ड विधानसभा चुनाव में टिकैत बंधुओं की भूमिका किसी से छिपी नहीं रही। किसान महापंचायत में ‘वोट की चोटÓ की राकेश टिकैत की घोषणा भी देशवासियों ने सुनी।
कृषि कानूनों के खिलाफ किए जा रहे आंदोलन को जब 383 दिनों बाद खत्म किया तो एक बड़ा सवाल जो दिमाग में आया वो ये कि इस आंदोलन में हीरो की तरह उभरे राकेश टिकैत का अगला कदम क्या होगा। सरकार को किसान कानूनों को वापस लेने लिए तो मजूबर कर दिया, अब वो किस ओर कदम बढ़ाएंगे। ना ना बोलकर क्या वो ‘राजनीति को हांÓ कहेंगे। सपा और रालोद के पोस्टरों पर उनके तस्वीरें दिखाई दी, जिनका उन्होंने विरोध किया। राकेश टिकैत राजनीति में तो नहीं उतरे, लेकिन उन्होंने बीजेपी के खिलाफ माहौल बनाने का काम जरूर किया।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में राकेश टिकैत ने सपा और रालोद का समर्थन किया। यूपी पंचायत चुनाव से पहले भी भारतीय किसान यूनियन के नेताओं नरेश टिकैत और राकेश टिकैत ने पूरे यूपी का दौरा किया और पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान वहां भी गए। वहीं दिल्ली की बार्डर पर साल भर चले किसान आंदोलन की राजनीतिक फसल पंजाब विधानसभा चुनाव के वक्त सामने भी आ गई। जब किसान आंदोलन का प्रमुख चेहरा रहे गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने राजनीतिक राजनीतिक पार्टी का ऐलान किया। इसमें कोई दो राय नहीं है कि टिकैत समेत तमाम किसान नेता आंदोलन की आड़ में अपनी राजनीति और छवि चमकाने में लगे रहे। वजह चाहे जो भी रही हो किसान यूनियन का दोफाड़ होना अफसोसनाक है।
भारतीय किसान यूनियन के नए अध्यक्ष राजेश सिंह चैहान यूपी के फतेहपुर जिले की खाागा तहसील क्षेत्र सिठौरा गांव के रहने वाले हैं और भाकियू के गठन से उसके साथ हैं। वर्ष 1990 में राजेश सिंह स्नातक करने के बाद किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत के संपर्क में आए थे। तब बाबा टिकैत हथगाम में एक कार्यक्रम में शामिल होने आए थे। बाबा टिकैत ने हथगाम दौरे के समय राजेश सिंह का जुझारूपन भांप लिया था। इसलिए पहली मुलाकात में बाबा टिकैत ने उन्हें जिलाध्यक्ष घोषित कर दिया था। 2004 में राजेश सिंह को मंडल अध्यक्ष की जिम्मेदारी मिली। संगठन के प्रति समर्पित भावना से काम करने के कारण उन्हें 2017 में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनया गया।
राजेश जुझारू प्रवृत्ति (Indian Farmer’s Union) के नेता हैं। उनकी किसानों की बीच सीधी पैठ है। संघर्ष, समर्पण, कर्तव्यनिष्ठा और अपनी मेहनत की बदौलत उन्होंने ये मुकाम हासिल किया है। राजेश सिंह चैहान ने दावा किया है कि हम किसी राजनैतिक दल से नहीं जुड़ेंगे। हम किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत के मार्ग पर चलेंगे चलने वाले हैं और हम अपने सिद्धांतों को विपरीत नहीं जाएंगे। अब यह देखना होगा कि भारतीय किसान यूनियन खुद को राजनीति से कैसे अलग रखकर कैसे किसानों की आवाज बन पाता है। वहीं किसान आंदोलन के समय सरकार और किसानों के बीच जिन बिंदुओं को लेकर समझौते हुए थे, उनको अमली जामा पहनाने की जिम्मेदारी भी नये संगठन के कंधों पर रहेगी।