समतामूलक समाज के प्रणेता गुरु घासीदास
डॉ. संजय शुक्ला
प्राचीनकाल से ही भारत समूची दुनिया में अपने नैतिक मूल्यों के लिए ख्यात रहा है। इस देश में अनेक महापुरूष हुए हैं जिन्होंने अपने सिद्धांतों व आदर्शों से भारत ही नहीं वरन् विश्व समाज का पथ प्रदर्शन किया है। इन्हीं महापुरूषों में से एक संत गुरू घासीदास बाबा हुए जिनका जन्म छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले के गिरौदपुरी के पावन भूमि में 18 दिसंबर 1756 को हुआ उन्होंने ”सतनाम पंथ” की स्थापना की। सतनाम पंथ के प्रवर्तक गुरूघासी दास बाबा के पिता का नाम महंगूदास एवं माता का नाम अमरौतिन था।
”मनखे-मनखे एक बरोबर’ रूपी सृष्टिसार संदेश देने वाले गुरूघासीदास बाबा के संपूर्ण जीवन दर्शन पर यदि आलोक डालें तो वे सहीं मायनों में संपूर्ण मानव समाज के आदर्श मार्गदर्शक प्रतीत होते हैं। यह अतिश्योक्ति नहीं होगी कि यदि विश्व समुदाय उनके सिद्धांतों व संदेशों को यदि अपने में आत्मसात कर ले व जीवन, आचरण और व्यवहार में शामिल कर ले तो संपूर्ण विश्व समाज सामाजिक, आर्थिक व लैंगिक भेदभाव और सामाजिक विसंगतियों से मुक्ति पा सकता है।
गुरूघासीदास के संदेश में जहांॅ रूढि़वाद, कुरीतियों, अंधविश्वास का प्रतिकार नीहित है वहीं उनके विचार नारी समानता, अहिंसा, व्यसन मुक्ति, सामाजिक, वैयक्तिक, नैतिक शुचिता और अनुशासन की सीख भी देता है। विचारणीय है कि पूरे देश में ”सतनाम पंथ” के लाखों अनुयायी है तथा उन्होंने सतनामी समाज को रचनात्मक दिशा प्रदान की। परन्तु यह अकाट्य सत्य है कि गुरू घासीदास बाबा जैसे महापुरूषों को किसी भी धर्म, जाति या पंथ में सीमित नहीं किया जा सकता बल्कि वे सर्वसमाज के मार्गदर्शक और आस्था के व्यक्तित्व हैं।
गुरू घासीदास के उपदेशों एवं वचनों के चिंतन से उनके प्रगतिशीलता एवं अनुभवजन्य विचारधारा की अनुभूति होती है। छत्तीसगढ़वासियों के लिए गुरू घासीदास बाबा एवं उनकी जन्मस्थली गिरौदपुरी धार्मिक श्रद्धा के केंद्र है। जनशुरुतियों के अनुसार गुरू घासीदास में अलौकिक शक्ति बाल्यकाल से ही रही है। साधु प्रवृत्ति का यह बालक कालांतर में सतनाम का उन्नायक बना, उन्हें वन्य जीवन से गहरा अनुराग था।
उनका विवाह अंचल के प्रसिद्ध बौद्ध पुरातत्विक नगरी सिरपुर के अंजोरीदास एवं सत्यवती नामक दंपति की सुपुत्री सफुरा से हुआ था। उन्होंने 40 वर्ष की आयु में गृहस्थ जीवन त्याग दिया। गृहस्थ जीवन के त्याग के बाद सतनाम के मूल आधार ”सत्य” से प्रत्यक्ष साक्षात्कार हेतु वे छातागढ़ पहाड़ पर औंरा-धौरा वृक्ष के नीचे समाधि में ध्यानस्थ हुए। रज एवं तमोगुण से मुक्त सत्ववान घासीदास को सत्य का बोध होने के बाद उन्होंने अपना जीवन जनकल्याण के लिए अर्पित कर दिया।
कठिन तपस्या के पश्चात् गुरू घासीदास में चमत्कारिक शक्ति का अभ्युदय हुआ, इस शक्ति के द्वारा उन्होंने अंचल के जनमानस के रोग एवं शोक का निदान किया। उन्होंने समाज सुधार एवं जनकल्याण का बीड़ा उठाते हुए छत्तीसगढ़ अंचल में उपदेश हेतु यात्रा किया। यात्रा को रावटी की संज्ञा दी गई है, इस रावटी में प्रमुख रूप से बस्तर जिले के चिरईपदर, कांॅकेर, राजनांदगांव, दुर्ग जिले के पानाबरस मोहला, डोंगरगढ, राजनांदगॉंव के गंडई, कवर्धा के भोरमदेव, बिलासपुर के दलहा पोंड़ी आदि शामिल है। इस उपदेश यात्रा (रावटी) में उनके अनुयायी भी शामिल होते थे। इस दौरान गुरू घासीदास बाबा जनसामान्य को सरल छत्तीसगढ़ी भाषा में ही उपदेश दिया करते थे।
गुरू घासीदास के उपदेशों एवं अमृत वाणियों का प्रभाव इतना असरकारी था कि अन्य संप्रदाय एवं समाज के लोग भी उनसे गुरूदीक्षा लेकर उनके शिश्य बनने लगे। बाबा घासीदास की अध्यात्मिक ख्याति से तत्कालीन सामंतवादियों की चूलें हिलने लगीं। इन तत्वों द्वारा उनके अध्यात्मिक यात्रा में बाधा पहुॅंचाने का प्रयास भी किया गया, लेकिन गुरू घासीदास इन बाधाओं से विचलित नहीं हुए तथा विघ्नसंतोशियों का दुश्चक्र सत्य के आगे बौना साबित हुआ। कालांतर में सतनाम के प्रर्वतक घासीदास जी ने भंडारपुरी को अपना कर्मस्थली निश्चित किया, वहॉं गुरूद्वारा का निर्माण कर जैतखंभ स्थापित किया गया, इस प्रकार भंडारपुरी भी आस्था के केंद्र के रूप में स्थापित हुआ।
इतिहासकारों के अनुसार गुरू घासीदास का निर्वाण 20 फरवरी 1850 माना गया है। 17 वीं शताब्दी में मानवता का संदेश प्रचारित कर सर्वसमाज में सामाजिक क्रांति का प्रादुर्भाव करने वाले महान संत गुरू घासीदास के विचार एवं उपदेश 21 वीं सदी में ज्यादा प्रासंगिक है, उनके विचारों में जहॉं पाखंड एवं व्यसनो का निषेध किया गया है वहीं नारी स्वतंत्रता, स्वालंबन तथा समान दर्जा का भाव भी मौजूद है। उनके प्रमुख उपदेशों ”सतनाम को मानो, मूर्तिपूजा मत करो, जीव हत्या मत करो, परस्त्री को माता मानो, शराब मत पियो, दोपहर में खेत मत जोतो।” के मीमांशा से यह स्पश्ट है कि गुरू घासीदास के इन सात उपदेशों में भारतीय दर्शन एवं धर्म का सारांश नीहित है।
हिंदू एवं जैन धर्माचार्यों ने जहॉं जीव हत्या, मांसाहार एवं शराब सेवन को वर्जित किया है, वहीं सत्यनाम, मूर्तिपूजा विरोध, जात-पात निशेध, कबीरपंथ के प्रमुख सिद्धांत हैं। इन उपदेशों में ”बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ का मूलमंत्र भी प्रतिध्वनित होती है। उनके रावटी में सदियों के अन्याय, अत्याचार एवं अनाचार से मुक्ति का प्रसंग भी शामिल है। गौरतलब है कि अक्षर ज्ञान न होते हुए भी गुरू घासीदास के संदेशों में व्यवहारिक ज्ञान का विद्वतापूर्ण भाव नीहित है, यह भाव ही गुरू घासीदास को सद्गुरू की उपमा से अलंकृत करती है।
गुरू घासीदास के उपदेशों एवं अमृत वाणियों में मानव समाज के सभी आयामों व विशयों में अनुशासन तथा शुचिता के भाव विद्यमान है। इसके साथ ही उनके विचारों में शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक एवं सामाजिक अनुशासन के उपाय भी नीहित है, इसीलिए संत गुरू घासीदास के संदेशों को सतनामी समाज ही नहीं वरन् छत्तीसगढ़ के सर्वसमाज ने आत्मसात किया है। बहरहाल आधुनिक परिवेश में जब देश व समाज में नैतिक मूल्यों का लगातार क्षरण हो रहा हो तब गुरू घासीदास के सिद्धांत एवं उपदेश संपूर्ण मानव समाज के लिए और भी ज्यादा प्रासंगिक हैं। जयंती अवसर पर गुरू घासीदास बाबा को शत-शत नमन।
(लेखक, शासकीय आयुर्वेद महाविद्यालय, रायपुर में सहयक प्राध्यापक है। मो.न.ं- 94252-13277)