Election : चुनाव की आहट से तेज हुई तुष्टिकरण की राजनीति
डॉ. श्रीनाथ सहाय : Election : अगले वर्ष देश के कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। विधानसभा चुनावों के मद्देनजर तुष्टिकरण की राजनीति धीरे-धीरे जोर पकडऩे लगी है। तुष्टिकरण की राजनीति कोई नयी चीज नहीं है। पिछले काफी सालों से राजनीतिक दल तुष्टिकरण की राजनीति की बदौलत सत्ता का सुख भोगते रहे हैं। असल में तुष्टिकरण भारतीय राजनीति का सबसे आजमाया हुआ फार्मूला है।
और इसी जमे जमाए और परखे हुए फार्मूले का इस्तेमाल लगभग सभी राजनीतिक दल अपनी सियासत चमकाने के लिए करते हैं। जनता की धार्मिक भावनाओं का राजनीतिक दोहन कोई नई बात नहीं है, राजनीतिक दलों के बड़े-बड़े नेता मंदिरों, गुरूद्वारों और इबादतगाहों में पूजा की फोटो अखबारों में छपवाते रहते हैं। इन दिनों कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की वैष्णो देवी यात्रा की भी खूब चर्चा है।
अगले साल उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. इन पांच में से चार में भाजपा की सरकार है जबकि पंजाब में कांग्रेस की। सबसे पहले फरवरी, 2022 में पंजाब में चुनाव होंगे। हालांकि देश के सबसे बड़े राज्य-उप्र-में मार्च-अप्रैल में चुनाव संभावित हैं, लेकिन यह राज्य ही सबसे अधिक तपने लगा है। सांप्रदायिकता की लपटें उठने लगी हैं, हालांकि धर्म के नाम पर वोट मांगना या राजनीति करना असंवैधानिक है, लेकिन संविधान की परवाह कौन करता है?
संविधान की प्रस्तावना में 1975-76 में ‘पंथनिरपेक्ष (सेक्यूलर) शब्द जोड़ा गया था, लेकिन देश में धर्म के बिना कोई चुनाव या सियासत संभव ही नहीं है। बल्कि स्वीकार्य नहीं है। ‘धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा हिंदू बनाम मुसलमान है। बहरहाल अभी तो औपचारिक चुनाव (Election) प्रचार भी शुरू नहीं हुआ है कि सियासत सांप्रदायिक होने लगी है। धर्मनिरपेक्षता विकृत अर्थों में है। बीते मई में पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने मुस्लिम वोटरों को अपने पक्ष में करने के लिए ईद वाले दिन मलेरकोटला को राज्य का 23वां जिला घोषित किया। मुख्यमंत्री की इस घोषणा ने सभी को आश्चर्य में डाल दिया।
दरअसल, मलेरकोटला को जिला बनाने की मांग यदाकदा कांग्रेस के नेताओं द्वारा ही उठाई जाती थी। लोगों द्वारा यह मांग कभी भी जोर-शोर से नहीं उठाई गई। इन दिनों यूपी में बसपा अध्यक्ष मायावती ने हिंदू-ब्राह्मण सम्मेलन आयोजित करने के निर्देश दिए थे, जिसकी शुरुआत अयोध्या से की गई। चेतना और सोच में भगवान श्रीराम जरूर रहे होंगे! अलबत्ता मायावती की पार्टी ‘तिलक, तराजू और तलवार वालों को ‘जूते मारने का हुंकार भरती रही है।
बसपा अयोध्या में राम मंदिर या उससे जुड़े आंदोलन की पैरोकार कभी नहीं रही। मुख्यमंत्री रहते हुए मुलायम सिंह यादव ने राम मंदिर के कारसेवकों पर गोलियां चलवाई थीं, जिसमें 16 मासूम लोगों की मौत हो गई थी। मुलायम सिंह के साथ ही गठबंधन कर बसपा सुप्रीमो कांशीराम ने उप्र में सरकार बनाई थी।
कांशीराम ही मायावती के ‘राजनीतिक गुरु थे। मायावती को लगता है कि ब्राह्मण समुदाय का एक वर्ग भाजपा से नाराज है, लिहाजा 2007 की तरह वह बसपा को समर्थन दे सकता है! चुनावी हंडिया दूसरी बार चूल्हे पर नहीं चढ़ाई जा सकती। लखनऊ में एक समारोह के दौरान बसपा के राज्यसभा सांसद एवं पार्टी महासचिव सतीश चंद्र मिश्र ने ‘बहिनजी को प्रथम पूज्य, विघ्नहर्ता प्रभु श्री गणेश जी की प्रतिमा भेंट की और श्रीमती मिश्र ने महादेव शिव का त्रिशूल सौंपा।
माहौल में शंखनाद बजाया जाता रहा और ‘हर-हर महादेव का उद्घोष गूंजता रहा। बीच-बीच में शिव-भक्त, महापराक्रमी परशुराम जी की भी ‘जय बोली गई। बैठक बसपा की बजाय भाजपा या विशुद्ध पुजारियों अथवा महंत-पंडों की प्रतीत हो रही थी। हमें ऐसे धर्म-कर्म पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन राजनीतिक ढोंग के जरिए लोगों को भरमाने या उनके चुनावी तुष्टिकरण पर सख्त ऐतराज है। यह सब कुछ संविधान-विरोधी है।
सवाल है कि क्या इन कोशिशों और नारेबाजी से हिंदुत्व का नया उभार होगा या वह ज्यादा ताकतवर बनेगा? हिंदुओं और ब्राह्मणों का विस्तार होगा और उनकी दुनियावी समस्याओं, तकलीफों और अभावों का निराकरण हो सकेगा? बसपा जनादेश लेने के बदले जनता को क्या मुहैया कराने का वायदा कर रही है? दूसरी तरफ एमआईएम के नेता ओवैसी ‘अयोध्या को ‘फैजाबाद कहने पर ही तुले हैं, क्योंकि उसमें इस्लामी व्यंजना निहित है।
सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ के ऐतिहासिक फैसले के बावजूद ओवैसी का अब भी मानना है कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद थी, जिसे ‘शहीद किया गया। ओवैसी ने संसद में रहते हुए और चुनाव प्रचार के दौरान मुसलमानों की अशिक्षा, अज्ञानता, गरीबी, संकीर्णता और मुख्य धारा में बेहद कम मौजूदगी आदि पर कभी भी चिंता और सरोकार नहीं जताए। इन हालात से उबारने की कभी कोशिश तक नहीं की। वह सिर्फ मुस्लिम जमात को, अपने और पार्टी के पक्ष में, सियासी तौर पर लामबंद होने के आह्वान ही करते रहे हैं।
ओवैसी की दलीलें भी ज्यादातर कट्टरपंथी होती हैं, बेशक वह ‘धर्मनिरपेक्षता का ढोंग करते रहें। झारखंड के विधानसभा परिसर में नमाज के लिए एक अलग कमरा आवंटित करना या हनुमान चालीसा के लिए भी कमरा देने जैसी मांगें ‘धर्मनिरपेक्षता नहीं हैं, बल्कि ‘धर्मांध सियासत है। क्या संविधान इसकी इजाजत देता है? हम इसे ‘कट्टरवादी मूर्खता ही मानते हैं।
भारत में 74 वर्षों तक अल्पसंख्यको का तुष्टिकरण किया गया। यहां तक कि अल्पसंख्यकों को खुश करने के लिए पहले की सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले तक को पलट दिया था। इसका सबसे बड़ा उदाहरण वर्ष 1985 का शाह बानो केस है। शाह बानो एक मुस्लिम महिला थीं जिन्हें उनके पति मोहम्मद अहमद खान ने तलाक दे दिया था। शाह बानो ने अपने पति से गुजारा भत्ता मांगा और इसकी मांग को लेकर वो सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गईं। सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो के पक्ष में फैसला सुनाया।
लेकिन तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इस फैसले को पलट दिया और एक नया कानून बना दिया। जिसके मुताबिक पत्नी को गुजारा भत्ता देने की जिम्मेदारी उसे तलाक देने वाले पति की जगह उसके रिश्तेदारों पर डाल दी गई। उस समय देश के प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे। लेकिन ऐसा करके भी कांग्रेस को देश की धर्म निरपेक्षता पर कोई खतरा मंडराता हुआ नहीं दिखा। तब ना तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान हुआ और ना ही संविधान में सबको दिए गए बराबरी के अधिकार का सम्मान किया गया।
लेकिन इसके बावजूद हमारे देश में तुष्टिकरण की राजनीति जोर पकड़ती गई और ये सिलसिला 1990 तक चलता रहा। यह हमारे देश की शर्मनाक विडंबना ही है कि चुनावी (Election) जनादेश बेरोजगारी या रोजगार, कारोबार, अर्थव्यवस्था, अस्पताल, स्कूल-कॉलेज, बुनियादी ढांचे सरीखे मुद्दों पर न कभी मांगे गए हैं और न ही जनता ने दिए हैं। ‘खोखले आश्वासनों का एक पुलिंदा घोषणा-पत्र के नाम पर छाप कर बांट दिया जाता है। इस पर कभी चुनाव नहीं हुआ कि वायदे कितने पूरे किए गए।