Democracy : परिवारवाद! लोकतंत्र को खतरा कैसे! कितना!
राजीव खण्डेलवाल। Democracy : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा और राज्यसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव का जवाब देते होते हुए कई मुद्दों के साथ-साथ कांग्रेस पर परिवारवाद का गंभीर आरोप भी लगाया। यद्यपि कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप कोई नया नहीं हैं।
वर्षो से यह आरोप लगाया जाता रहा है। लेकिन अब नई पोशाक में पहनाकर नये तरीके से यह आरोप लगाया जा रहा है। पांच राज्यों में हो रहे चुनावों कें मद्देनजर प्रधानमंत्री ने परिवारवाद को लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा बता दिया है। प्रश्न सबसे बड़ा यह है कि वास्तव में परिवारवाद है क्या? इसके लिए मूलत: जिम्मेदार कौंन हैं? लोकतंत्र के लिए यह खतरा कैसे है? इन प्रश्नों के उत्तर को सही रूप में जानना व समझना आवश्यक होगा।
भाजपा के कांग्रेस के परिवारवाद के आरोप को समयचक्र अनुसार दो भागों में बांटा जा सकता है। प्रथम जनसंघ से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी के समय तक भाजपा बिना किसी हिचक के परिवारवाद की परिभाषा को सीमित किये बिना कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप खुलकर बेहिचक लगाती रही है। तत्पश्चात कांग्रेस के परिवारवाद के घोतक, सूचक और पहचान लिये हुये कई नेता भाजपा में शामिल हुये और होने लगे, तब भाजपा की परिवारवाद के मुद्दे पर नरेंद्र मोदी के जमाने में परिभाषा, दृष्टि व शैली ही बदल गई। अत: परिवारवाद को समझने के पूर्व पहले परिवार को समझना आवश्यक है।
सामान्यत: एक परिवार में माता-पिता, पुत्र-पुत्रि, भाई-बहन (यदि वे साथ रहते हैं) परिवार के सदस्य होते हैं। वैसे संयुक्त हिन्दु परिवार और परिवार को वृहत रूप से देखने की दृष्टि सेे परिवार में समस्त बच्चों के परिवार को मिलाकर भी एक परिवार कहा जा सकता हैं। प्रश्न यह है कि परिवार की किस श्रेणी व आकार को राजनैतिक पार्टियां परिवारवाद के घेरे में लाना चाहती हैं। यह स्पष्ट नहीं हैं।
नरेन्द्र मोदी के पूर्व तक भाजपा सहित विपक्ष, कांग्रेस पर वृहत परिवार के लड़कें, लड़की, भाई-भतीजे परिवार के मुखिया की पत्नी, माँ इत्यादि को राजनीति में उन्हे लोकतांत्रिक अलोकतान्त्रिक रूप से स्थापित कर मंत्री, सांसद व विधायक बनाने पर परिवारवाद का आरोप लगाया जाता रहा हैं। लेकिन यह भी समझना होगा कि ”सब धान बाइस पसेरी नहीं होता” और ”न एक डंडे से ही सबको हांका जा सकता हैं”।
अब राजनीतिक सुविधा की दृष्टि से परिवारवाद को दो नयें तरह से परिभाषित किया जाकर समझाने का प्रयास किया जा रहा है। अब प्रधानमंत्री ने राजनैतिक दलों में राजनैतिक विरासत (डायनेस्टिक पालिटिक्स) को लेकर परिवारवाद को मात्र पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद तक सीमित कर दिया है। भाजपा अब दम ठोककर यह दावा करने लगी है कि उसका कोई भी राष्ट्रीय अध्यक्ष दोबारा अध्यक्ष पिछले कई वर्षो के इतिहास में नही बना है जो सत्य भी है। मात्र एक अपवाद लालकृष्ण आडवाणी को छोड़कर जो तीन बार अलग-अलग समय में अध्यक्ष बनें।
यद्यपि नितीन गडकरी को दोबारा लगातार अध्यक्ष बनाने के लिये पार्टी संविधान में संशोधन किया गया था। स्वतंत्र भारत में कांग्रेस के कुल 19 अध्यक्ष बने जिनमें मात्र पांच व्यक्ति नेहरू-गांधी खानदान के रहें। जिसमें भी सोनिया गांधी लगभग 20 वर्ष तक अध्यक्ष रही। अत: लम्बे समय तक कांग्रेस के यहां राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर ‘गांधी’ ही काबिज व आरूढ़ रहे हैं। प्रधानमंत्री के शब्दों में यही वास्तविक परिवारवाद है, जो लोकतंत्र के लिये गंभीर खतरा है। दूसरे शब्दो में ”अंधा बाटे रेवड़ी फिर अपनो को देय” उक्ति को उन्होनें सीमित अर्थो में स्वीकार्यता प्रदान कर दी हैं। इस प्रकार प्रधानमंत्री ने अब परिवारवाद को परिवारवादी (पारिवारिक) पार्टी की ओर मोड़ दिया हैं।
मोदीजी के कथनानुसार परिवार के अन्य पारिवारिक सदस्य योग्यता के आधार पर जनता के आशीर्वाद से राजनीति में आये, यह परिवारवाद नहीं है और न हीं इससे पार्टी परिवारवादी बन जाती है। परन्तु पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पर सिर्फ परिवार के लोग ही अर्थात पार्टी फार द फैमली, बाय द फैमली तथा ऑफ द फैमिली हो जाए, तब वह पार्टी परिवारवादी पार्टी बन जाती है, जो कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, बीजू जनता दल, शिवसेना, राकंपा, पीडीपी, तेलंगाना राष्ट्र समिति, तेलगु देशम (टीडीपी), अकाली दल, आईएनएलडी, नेशनल कांफेंस, डीएमके, लोजपा आदि पार्टी का इतिहास व वर्तमान है।
वैसे जब लो लोजपा पीडीपी तेलुगू देशम का भाजपा के साथ गठबंधन होता है तब शायद वे पारिवारिक पार्टी नहीं रह जाती है? चुकि भाजपा में अनेक ऐसे उदाहरण है, जहां परिवार के कारण साहबजादों भाई-भतीजें को मन्त्री-विधायक, सांसद पद पर सुशोभित किया गया हैं, तब भाजपा परिवारवाद को मंत्री, सांसद, विधायक पद से मुक्त कर देता हैं। यानी ”शोरबा चलेगा बोटी नहीं”। भाजपा की सुविधा की राजनीति ने परिवारवाद की परिभाषा को यहीं तक सीमित कर दिया है।
जब भाजपा प्रवक्ताओं से यह पूछा जाता है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया (सिंधिया परिवार), आरपीएन सिंह (सुपुत्र सीपीएन सिंह पूर्व केन्द्रीय मंत्री), जतिन प्रसाद (पूर्व केन्द्र्रीय मंत्री जितेन्द्र प्रसाद सिंह के पुत्र), पंकज सिंह (रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के पुत्र), कर्नाटक के बसवराज बोमई मुख्यमंत्री (एस.आर.बोमई पूर्व मुख्यमंत्री के पुत्र) अर्पणा यादव आदि लोग क्या परिवारवाद के द्योतक नहीं है? तब जवाब में परिवारवाद की उक्त परिवर्तित सीमित परिभाषा आ जाती है।
वस्तुत: कांग्रेस परिवारवाद के आरोपों का तथ्यों से सही जवाब देने में भी असफल रही है। राहुल गांधी ने जब कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया था, तब यही कहा था कोई गैर-गांधी को ही अध्यक्ष चुना जाये। इतना ही नहीं; नये अध्यक्ष चुनने की प्रक्रिया से राहुल-प्रियंका सहित सोनिया गांधी ने अपने को सी.डब्लू.सी मीटींग से दूर रहने का फैसला लिया।
बावजूद इसके कांग्रेसीयों का बहुमत गैर-गांधी को चुनने को तैयार नहीं हुआ और राहुल गांधी को ही मनाने का लगातार प्रयास करते रहे। तब फिर कांग्रेस पर परिवारवादी पार्टी का आरोप कैसे लगाया जा सकता है? और यदि यह आरोप सही है तो, क्या इसके लिए इसके लिए सिर्फ ”गांधी” ही जिम्मेदार है? हजारों कांग्रेसी कार्यकर्ताओं, सैकड़ों नेताओं की मानसिकता व क्रियाशीलता जिम्मेदार नहीं है?
जो गांधी छोड़कर नया अध्यक्ष चुनने को तैयार ही नहीं है। स्व. पडित रवीशंकर शुक्ल पूर्व मुख्यमंत्री के सुपुत्र स्व. प. श्यामाचरण शुक्ल कांग्रेस विधायक दल के नेता पद के चुनाव में वसंतराव उइके को हराकर नेता विधायक दल बन मुख्यमंत्री बने थे (यद्यपि हाईकमान का वरद हाथ उन्हें प्राप्त था)। क्या यह भी परिवारवाद का द्योतक कहलायेगा?
आखिर परिवारवाद है क्या? परिवारवाद वह होता है जहां पर परिवार का मुखिया राजनीति में लम्बे समय से सफलतापूर्वक स्थापित होकर अर्जित अपनी राजनैतिक साख व विरासत को परिवार के बाहर के अन्य समस्त योग्य दावेदारों के दावों को नकारते हुये सिर्फ और सिर्फ अपने परिवार के नालायक व अयोग्य सदस्यों को सौंपना चाहता है, राजनीति में स्थापित करता है।
अर्थात अलोकतंत्रीय तरीके से दबाव बनाकर धमकी देकर उन्हे विधायक, सांसद पद के लिये पार्टी टिकिट या अन्य महत्वपूर्ण पार्टी पद दिलाता है और पार्टी हाईकमान ”बाज के बच्चे मुंडेरो पर थोडे ही उड़ा करते है,” की भावना के अनुसार उनके आगे झुक जाता है। तभी उसे लोकतंत्र (Democracy) में परिवारवाद का काला धब्बा कहा जा सकता है।
मैं स्वयं भी परिवारवाद के कारण परिवार का सदस्य होने के बावजूद भुक्तभोगी हूं। वर्ष 1990 में मुझे बैतूल विधानसभा से पार्टी टिकट मिली थी, तब परिस्थितियों बस मुझे चुनाव लडऩे से मना करना पड़ा था। बाद में वर्ष 1993 व 1998 पार्टी मुझे कार्यकर्ताओं व जनता की मांग के अनुरूप टिकट देना चाहती थी परंतु परिवारवाद के आरोप की आशंका के चलते परिवार ने मुझे नकार दिया था।
मतलब साफ है परिवारवाद का आरोप तभी लगता है, जब परिवार का मुख्यिा अपने राजनैतिक रसूख व दबाव का उपयोग अपने परिवार के सदस्यों के राजनैतिक हित साधने हेतु कार्यकर्ताओं व जनता की इच्छाओं के विपरीत इस्तेमाल कर उन्हे स्थापित करता है। परिवारवाद पर विचार करते समय एक और महत्वपूर्ण तथ्य पर गौर करने की आवश्यकता है। जिस प्रकार ”घी का दान करने पर घी की खुशबू से हाथ तो सुगंधित हो जाते है”, उसी प्रकार परिवार के मुखिया की राजनैतिक साख, प्रभाव व दबाव होनेे का सामान्य रूप से कुछ फायदा निश्चित रूप से परिवार के सदस्यों को कुछ किये बिना भी मिलता है। क्या यह परिस्थितिवश उत्पन्न अतिरिक्त लाभ को भी परिवारवाद कहा जायेगां?
क्योंकि जनता की नजर में एक तथ्य उभर कर आता है कि परिवार के मुखिया द्वारा मेहनत से, गढ़ी गई, राजनैतिक कमाई साख का कुछ फायदा उसके सदस्यों को मिलना चाहिए क्योंकि पारिवारिक प्रष्ठ भूमि से उमरा हुआ व्यक्ति ”सहज पके सो मीठा होय” के अनुरूप होता हैं। जब परिवार की चल-अचल पूंजी पर उनके वारिसानो का हक होता है, नौकरी पेशा व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर उनके एक वारिसान को अनुकंपा नियुक्ति का अधिकार प्राप्त होता है तथा व्यवसाय द्वारा अर्जित की गई साख (गुडविल) को आयकर के घेरे में लाया जाता है, तब परिवार के राजनीतिक वारिसान यदि वह अन्य सभी पैमानों पर अपनी योग्यता सिद्ध करता है तो, क्या सिर्फ परिवारवाद के आधार पर उसके राजनीतिक जीवन की बलि ले लेनी चाहिए? इसलिए मूलरूप से परिवारवाद की भावना को सही परिपेक्ष में समझने की गहन आवश्यकता है।
चूंकि भाजपा सहुलियत की राजनीति कर रही है, इसलिए उसे परिवारवाद की परिभाषा को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष, तक सीमित कर कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल इत्यादि पर परिवारवादी पार्टी का आरोप लगाने का अधिकार प्राप्त कर विपक्षियों के इस संबंध में लगाये जाने वाले आरोपों को बोठिल कर दिया। परन्तु यह समझ से परे है कि परिवारवाद लोकतंत्र के लिये खतरा कैसे? परिवारवाद लोकतंत्र का हत्यारा नहीं बल्कि पूरक है, अपितु लोकतंत्र परिवारवाद का पोषक है। यदि परिवारवाद, परिवारवादी पार्टियां लोकतंत्र के लिए खतरा है तो भी इसके लिए परिवार वादी पार्टियों के मुखिया जिम्मेदार नहीं है।
बल्कि जनतंत्र में प्रारंभ से लेकर अंतत: अंत तक जनता ही जिम्मेदार है, जो इन परिवारवादी पार्टियों को लोकतंत्र विरोधी होने के बावजूद चुनावों में हराती क्यों नहीं है? विपरीत इसके जनता के वोट पाकर परिवारवाद मजबूत होता है तभी तो परिवारवाद का सिक्का राजनीति के बाजार में चलता है। यह राजशाही नहीं जहॉ अयोग्य वारिस भी स्वयं को जनता पर थोप सकता हो क्योंकि ”हथेली पर सरसो नही जमती हैैं।”
पूर्णत: न तो लोकतंत्र परिवक्व है और न ही परिवारवाद गलत है। फूलनदेवी इसी लोकतंत्र में चुनाव जीतकर आती है। मतदाता का मत जिसके पास हो, वही देश के नागरिकों की सेवा करने का अधिकार पाता है, और वह भी सीमित समय के लिए। अत: परिवारवाद का मुद्दा किसी भी लोकतंत्र (Democracy) के लिए बेमानी है, क्योंकि इसे बढ़ावा देने या नकारने का अधिकार अंत में जनता के हाथ में ही होता है। ”जनतंत्र” में ”अपनी करनी ही पार उतरनी होती हैं।” हां जनता यदि विवेकशील नहीं है, तब परिवारवाद नहीं बल्कि जनता की अविवेकशीलता लोकतंत्र के लिये खतरा है। इसलिए जनता को विवेकशील बनाने की ज्यादा आवश्यकता है।