Communalism : शिकंजे में भारतीय लोकतंत्र

Communalism : शिकंजे में भारतीय लोकतंत्र

Communalism: Indian democracy in the grip

Communalism

डॉ. श्रीनाथ सहाय। Communalism : भारतीय लोकतंत्र जातिवाद, परिवारवाद और सांप्रदायिकता के शिकंजें में बुरी तरह जकड़ा हुआ है। सभी राजनीतिक दल एक-दूसरे पर जातिवाद और परिवारवाद का आरोप लगाते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि सभी दल में इसमें गले तक धंसे हुए हैं। विश्व के लोकतंत्रिक इतिहास में भारत ऐसा देश है, जहां परिवारवाद की जड़ें गहरी धंसी हुई हैं। यहां एक ही परिवार के कई व्यक्ति लंबे समय से प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय राजनीति की धुरी रहे हैं।

आजादी के तुरंत बाद शुरू हुई वंशवाद की यह अलोकतानात्रिक परंपरा अब काफी मजबूत हो चुकी है। राष्ट्रीय राजनीति के साथ-साथ राज्य और स्थानीय स्तर पर इसकी जड़े इतनी जम चुकी हैं। देश का प्रजातंत्र पर परिवारतंत्र भारी नजर आने लगा है। ऐसे में परिवारतंत्र को कितना लोकतांत्रिक कहा जा सकता है, यह सवाल दिनों दिन बढ़ता जा रहा है।

आपको जानकार हैरानी होगी 2019 की लोकसभा के सदस्यों में से 30 फीसदी सांसद किसी न किसी राजनीतिक परिवार से ताल्लुक रखते थे। इसमें पंजाब, बिहार जैसे राज्यों में राजनीतिक (Communalism) परिवारों से ताल्लुक रखने वाले सांसदों की संख्या ज्यादा है। इसमें कांग्रेस पार्टी का नंबर सबसे ऊपर है, लेकिन भाजपा भी पीछे नहीं है। राजवंश या परिवारवाद की परिभाषा ही यही है कि कोई ऐसा व्यक्ति राजनीति में आए जिसके परिवार का कोई सदस्य पहले भी चुनाव जीत चुका हो या अभी किसी न किसी पद पर कार्यरत हो। इसमें रिश्तेदार भी शामिल होते हैं।

2016 में आई कंचन चंद्रा की एक किताब कहती है कि 2004 से 2014 के बीच लगभग एक चैथाई सांसद परिवारवाद की राजनीति से आए थे। इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट कहती है कि ये आंकड़ा अब 25 फीसदी से बढ़कर 2019 में 30 फीसदी पहुंच गया है। ये लगभग हर राजनीतिक पार्टी के साथ है। लोगों को भले ही लगे कि ये सिर्फ राज्य आधारित पार्टियों के साथ है पर ऐसा नहीं है। अक्सर ऐसा सोचा जाता है कि क्योंकि राज्य की पार्टियां अक्सर प्राइवेट पार्टी की तरह काम करती हैं, लेकिन ऐसा नहीं है।

राष्ट्रीय पार्टियों में परिवारवाद की मिसालें और भी बहुत ज्यादा हैं। राष्ट्रीय पार्टियां लगभग हर राज्य में इस तरह की मिसाल देती हैं। अगर हम देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की ही बात करें तो जवाहर लाल नेहरू के बाद इंदिरा गांधी राजीव गांधी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के हाथों में बागडोर दशकों से है। बीच में किसी को अपवाद के रूप में मौका मिला तो उसका हाल क्या हुआ सब जानते हैं। सियासी नजरिए से उत्तर प्रदेश सबसे मजबूत राज्य है।

यहां पर परिवारवाद के धुर विरोधी लोहिया के शिष्य मुलायम सिंह यादव समाजवादी पार्टी को परिवार की प्रॉपर्टी मानते हैं। मुलायम सिंह के परिवार के लगभग बीस छोटे बड़े सदस्य केन्द्र या उत्तर प्रदेश की कुर्सियों पर विराजमान हैं। स्वर्गीय लालबहादुर शास्त्री जी के पुत्र, गोविन्द वल्लभ पंत के पुत्र-पौत्र, बहुगुणा परिवार, चैधरी चरणसिंह के पुत्र एवं पौत्र, मायावती के भतीजे, कल्याण सिंह के पुत्र, राजनाथ सिंह के पुत्र, मेनका गांधी और वरुण गांधी जैसे कई परिवार इसके उदाहरण हैं।

भारतीय राजनीति में अगर परिवारवाद का शुद्ध मन से विरोध करने वाले कोई राजनीतिज्ञ थे तो वो राम मनोहर लोहिया थे। ताज्जुब की बात ये है कि समाजवाद के पुरोधा डॉ. राम मनोहर लोहिया के विचार को उनके शिष्य मुलायम सिंह यादव और लालू यादव ही मानने को तैयार नहीं हैं। इक्का-दुक्का दल ऐसे भी हैं जो इससे दूर हैं, लेकिन उनकी गिनती न के बराबर ही है।

वहीं सदियों से राजनीति में जाति का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। भारतीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो राजनीतिक पार्टियों ने जाति को एक मुद्दा बनाकर अपने-अपने हित साधे हैं। देश में 1931 जनगणना से सम्बन्धित अँग्रेज कमिश्नर मिस्टर हट्ट्न ने लिखा है, सही-सही जाति आधारित जनगणना असम्भव है। वर्तमान में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। इन चुनावों में भी जाति एक अहम मुद्दा बनकर उभरा है, जिसे सभी राजनैतिक पार्टियों ने अपने दलों में टिकट बांटते समय प्रत्याशी तय करने में ध्यान रक्खा है।

क्षेत्रवाद ने जातिवाद को बढाने में अहम भूमिका निभाई, जिसके आधार पर विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियों का प्रादुर्भाव हुआ और विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियों ने जातीय समीकरण के आधार पर जाति विशेष की हितैषी बनकर भारतीय राजनीति मे अपनी पहचान बनाने मे न केवल कामयाब हुई वरन सत्ता भी प्राप्त करके राष्ट्रीय पार्टियों को भी जाति वाद के फार्मूले पर राजनीति करने के लिये आकर्षित किया। देश की राष्ट्रीय एकता को खंडित करने के लिए अंग्रेजों ने 1871 में जो जातीय जनगणना का विष रूपी अंकुर हमारी राजनीतिक धरा पर बोया था।

उसे हमारी राजनैतिक पार्टियां अपने वोट बैंक के लिये राजनीतिक तुष्टीकरण (Communalism) के खाद पानी से सिंचित करती आ रही हैं। यही कारण है जब एक आम मतदाता चुनाव मे मत डालने निकलता है तो उसके मन मस्तिष्क पर उस प्रत्याशी की छवि और चरित्र से ज्यादा उसकी जाति भारी पड़ जाती है। हमारे संविधान निर्माताओं ने एक विशाल संविधान की रचना की है, जिसमें अनुच्छेद 16 (4) में पिछड़ें ‘वर्गों’ के ‘नागरिकों’ को विशेष सुविधा देने की बात कही है।

न कि जाति के आधार पर संविधान भी मजहबी आधार पर आरक्षण की मनाही करता है। इसका मतलब यह है हमारे संविधान के रचनाकारों की भी ऐसी कोई मंशा नही थी। बाबा साहिब भीमराव अम्बेडकर जी ने ‘जाति का समूल नाश’ नामक पुस्तक लिखकर जातिवाद पर अपने विचारधारा को प्रस्तुत किया।

समाजवाद के जनक ‘लोहिया’ जी ने भी ‘जाति तोड़ो’ का नारा दिया। इन महापुरुषों के आदर्शों के सहारे राजनीति चमकाने वाले हमारे नेता जातिवाद की राजनीति करके जहां एक ओर भारत मे अनेकता में एकता की अन्तर्राष्ट्रीय पहचान को क्षति पहुंचा रहे हैं वहीं दूसरी ओर इन महान विचारकों के महान आर्दशों का भी माखौल उड़ा रहे हैं।

हम इक्कीसवीं सदी के भारत में रह रहे है। पहले की तुलना मे समाजिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो जाति का महत्व थोड़ा कम अवश्य हुआ है। परन्तु राजनीति के धरातल में इसकी सत्यता आंकी जाय तो यह देश का हर नागरिक स्वीकार करेगा, कि जातिवाद का मुद्दा सभी राजनीतिक पार्टियां सुलगाये रखना चाहती हैं क्यों कि इसे समय-समय पर थोड़ी सी राजनीतिक हवा देकर आग लगायी जा सकती है और अपना राज नैतिक उल्लू साधा जा सकता है।

आज हमारा भारत विकासशील देशों मे सर्वोच्चता के स्थान पर पहुंच कर विकसित राष्ट्र बनने की दहलीज पर खड़ा है। ऐसे में भारतीय राजिनीति में इस प्रकार जातिवाद की जो अवधारणा अपनी जड़ें जमा रही है उसके दूरगामी परिणाम स्वरूप कहीं ऐसा न हो, कि भारतीय समाज जातीय संघर्ष में जूझने लगे और भारत की एकता व अखन्डता के समक्ष सकंट उत्पन्न हो जाए।

-लेखक राज्य मुख्यालय लखनऊ, उत्तर प्रदेश में मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *