Bureaucracy : राजनीति में अफसरों के प्रवेश से बदलाव की उम्मीदें
आलोक मेहता। Bureaucracy : दशकों से सभाओं और आंदोलनों में नारा सुनते रहे हैं – ‘अफसरशाही नहीं चलेगी। जनता भी दफ्तरों में बाबुओं – अफसरों के रुख से नाराज होते हैं, विभिन्न राजनैतिक दलों के पार्षदों, विधायकों और सांसदों को भी कई अफसरों से शिकायत रहती है । लेकिन धीरे धीरे अच्छा या उनकी पसंद और विचारधारा से काम करने वाले अफसर को पार्टियां सत्ता की राजनीति में शामिल करने लगी और मतदाता भी उन्हें चुनने लगी ।
सबसे बड़ा उदाहरण अरविन्द केजरीवाल का है । वह न केवल राजनीति में आए , स्वयं पार्टी बनाई , छोटा और केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली के दो बार मुख्यमंत्री बने , लेकिन केवल दस वर्षों में पार्टी का विस्तार करके अब पंजाब में आम आदमी पार्टी और अपने पसंदीदा भगवंत मान को मुख्यमंत्री भी बनवा दिया। इसे दिल्ली से बड़ी सफलता कहा जाएगा। अरविन्द केजरीवाल के समर्थक और कुछ मीडियाकर्मी उनको आने वाले वर्षों में वर्तमान प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी या योगी आदित्यनाथ के भावी विपक्ष के नेता के रूप में भी पेश करने लगे हैं । लेकिन वह पहले पूर्व सरकारी अधिकारी नहीं हैं जो राजनीति में आए हैं। उनसे पहले भी अनुभवी सरकारी अफसर नौकरी से इस्तीफ़ा देकर अथवा सेवनिवृत्ति के बाद विधायक, सांसद, मंत्री और मुख्यमंत्री बने हैं। इसलिए अनुभव बताता है कि पांच या दस साल बाद के राजैतिक भविष्य का अनुमान लगाना कठिन होता है।
अरविन्द केजरीवाल भारतीय प्रशासनिक सेवा में (Bureaucracy) आई एफ एस और आई ए एस के बाद की राजस्व सेवा में भर्ती होकर सात आठ साल काम करते या विदेश में अध्ययन के लिए अवकाश लेते हुए संयुक्त आयुक्त पद छोड़कर पहले सूचना के अधिकार के अभियान और फिर अण्णा आंदोलन के साथ राजनीति में कूदे। उनसे पहले भारतीय प्रशासनिक सेवा से आए केवल दो व्यक्ति मुख्यमंत्री बने । मध्य प्रदेश में पहली बार कांग्रेस तोड़कर बनी संविद सरकार के मुख्यमंत्री गोविन्द नारायण सिंह 196। में बने थे । वह स्वतंत्रता आंदोलन में 1942 से 1944 तक जेल में रहे । उन्होंने बनारस विश्वविद्यालय में शिक्षा पाने के बाद आज़ादी के तत्काल बाद 1948 की ब्रिटिश परम्परा वाली प्रशासनिक सेवा की परीक्षा देकर आई सी एस (बाद में इसे आई ए एस कहा गया) हुए और विंध्य प्रदेश में सहायक क्षेत्रीय आयुक्त बने। एकाध साल में उन्होंने नौकरी छोड़ दी और जमीनी राजनीति में सक्रिय हो गए। उनके पिता अवधेश प्रताप सिंह विंध्य के राजा और फिर मुख्यमंत्री थे।
मध्य प्रदेश बनने पर वह रवि शंकर शुक्ल की कांग्रेस सरकार में और गोविन्द नारायण सिंह दिग्गज चाणक्य कहे जाने वाले द्वारका प्रसाद मिश्र की सरकार में उनके दाएं हाथ की तरह मंत्री बने। लेकिन बाद में मिश्र के रवैये से नाराज होकर अपने समर्थकों के साथ रातोंरात विद्रोह कर राजमाता ग्वालियर की राजमाता विजयाराजे सिंधिया के भारतीय जनसंघ का साथ लेकर मुख्यमंत्री बन गए। एक तरह से उत्तर भारत में यह पहली राजनैतिक क्रांति थी। केजरीवाल और भगवंत मान पंजाब को कांग्रेस से मुक्ति को पहली क्रांति कह रहे हैं । लेकिन गोविन्द नारायण सिंह ने 196। में विद्रोह के साथ जन क्रांति दल बनाकर संविद सरकार बना दी थी। यही नहीं उसी दौरान रातोंरात विधायकों को प्रलोभन, धन, पद और अलग होटल महल तथा बन्दुक के साए में सरकारें बिगाडऩे बनाने का सिलसिला शुरू हुआ था । फिर भी यह गठबंधन दो साल से पहले टूटा और फिर कांग्रेस की सरकार बनी । हाँ उसके बाद गोविन्द नारायण सिंह फिर से मुख्यमंत्री या काबिल होते हुए भी केंद्रीय मंत्रीं नहीं बन सके। करीब बीस साल बाद राजीव गाँधी ने उन्हें बिहार का राज्यपाल बनाकर भेजा।
वहां कांग्रेस के ही मुख्यमंत्री भागवत झा से टकराव की नौबत तक आई और एकाध साल बाद राज्यपाल पद से हटना पड़ा। पहले दिल्ली में उनके आने पर और बाद में राज्यपाल बनने पर पटना में मुझे उनसे लम्बी बातचीत के बहुत अवसर मिले। इसलिए कह सकता हूँ कि वह बहुत विद्वान राजनेता थे। राजनीति, प्रशासन और आध्यात्मिक विषयों पर उनका अद्भुत अधिकार था। लेकिन अपने पुराने साथी द्वारका मिश्र की तरह वह प्रधान मंत्री के दावेदार नहीं बन सके। दूसरे आई एस अधिकारी अजीत जोगी थे, जो राजीव गाँधी के सत्ता काल में नौकरी छोड़कर राज्य सभा के सदस्य बने और छत्तीसगढ़ का गठन होने पर मुख्यमंत्री बने। उन्होंने जमकर गुटबाजी और मनमाने ढंग से सरकार चलाई। लेकिन बाद में कई गंभीर आरोपों के कारण मुख्यमंत्री पद ही नहीं गया, पार्टी से निकाले गए।
इंदिरा गाँधी के राज में प्रशासनिक सेवा से निकले इक्का दुक्का ही राजनीति में आए । लेकिन राजीव गाँधी के सत्ता काल से सरकारी अफसरी त्याग कर सरकारों , संसद और विधान सभा में आने वालों का सिलसिला बढ़ता गया। इस दृष्टि से विदेश सेवा (आई एफ एस) और प्रशासनिक सेवा (आई ए एस) छोड़कर राजनीति में आने वालों की लम्बी सूची है। आजकल मोदी सरकार में कुछ महत्वपूर्ण मंत्रालयों में पूर्व अधिकारियों के आने पर कई लोग सवाल उठाते हैं और प्रतिबद्धता की बात कही जाती है। उन्हें शायद याद दिलाने की जरुरत है कि मोदी राज से पहले यशवंत सिन्हा, नटवर सिंह , मणिशंकर अय्यर, मीरा कुमार, एन के सिंह, भगीरथ प्रसाद जैसे कई वरिष्ठ अधिकारी सत्ता की राजनीति और महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके हैं।
हाल के वर्षों में एस जयशंकर, (Bureaucracy) हरदीप सिंह पुरी, आर के सिंह, अल्फोंस, साटायपाल सिंह, अश्विनी वैष्णव, अरविन्द शर्मा, रामचंद्र प्रसाद सिंह जैसे अनुभवी अधिकारी जुड़े हैं, लेकिन केजरीवाल की तरह वे प्रधान मंत्री पद के दावेदार नहीं हैं । हाँ यशवंत सिन्हा अवश्य प्रधान मंत्री या राष्ट्रपति बनने के सपने संजोते रहे हैं । नटवर सिंह और मणिशंकर अय्यर ने गाँधी परिवार के बेहद करीबी रहते हुए भी प्रधान मंत्री बनने के लिए कोशिश नहीं की । बहरहाल प्रशासन या राजनीति में पदों के सपने देखना सबका अधिकार है । सवाल यह है कि लोकतंत्र में इन सपनों के साथ समाज और सम्पूर्ण देश को कितना लाभ मिल सकता है । नए दौर नए युग में भविष्यवाणी से अधिक काम को ही देखा जाएगा । ( लेखक आईटीवी नेटवर्क -इण्डिया न्यूज़ और आज समाज दैनिक के सम्पादकीय निदेशक हैं)