भूपेश के छद्म छत्तीसगढ़ियावाद ने छत्तीसगढ़ को छत्तीस साल पीछे किया

भूपेश के छद्म छत्तीसगढ़ियावाद ने छत्तीसगढ़ को छत्तीस साल पीछे किया

Bhupesh's pseudo Chhattisgarhianism set Chhattisgarh behind by thirty six years

bhupesh baghel

यशवंत धोटे
….यदि ये वाद धरातल पर उतरता तो कांग्रेस भूपेश के 75 के दावे से इतर 80 सीट पाती और 36 साल राज करती। चूंकि ये वाद छद्म था इसलिए न केवल सरकार चली गई, पहले से सीट कम हो गई बल्कि वोट शेयर भी घट गया। इस वाद का एजेंडा न तो कांग्रेस पार्टी का था और न ही बंपर जनादेश वाली सरकार का। भूपेश के इस निजी एजेंडे ने छत्तीसगढ़ को छत्तीस साल पीछे कर दिया। महज इसलिए कि ’मोदी है तो मुमकिन है’ के जवाब में ’भूपेश है तो भरोसा हैं’ का छद्म नरेटिव गढऩा था।

पिछले पांच साल से राज्य की जनता देख रही थी कि बतौर मुख्यमंत्री पुत्र राम वनगमन पथ बनवाने का ढकोसला कर रहे थें और पिता राम के अस्तित्व को सार्वजनिक रुप से नकार रहे थे। जनता यह भी महसूस रही थी कि पिता ब्राम्हणों, को वोल्गा भेज रहे थे, पुत्र के मंत्रिमंडल में शामिल मंत्रियों को सार्वजनिक रुप से अपमानित कर रहे थे। और पुत्र उन्हीं ब्राम्हणों की रायशुमारी से सरकार चला रहे थे। ये सब कुछ सार्वजनिक था सोशल मीडिया पर वायरल था।

बाकि मीडिया पर इसलिए नहीं था क्योंकि सरकारी खौफ था। दरअसल छत्तीसगढ़ के ग्रामीण इलाकों में होने वाली भागवत कथाओं में शामिल होती महिलाओं के बीच इस बातचीत के इनपुट किसी आईबी, डीएसबी, एसआईबी या सरकार की किसी अन्य खुफिया एजेंसी के पास रहे भी हो तो कुछ नहीं किया जा सकता था। क्योंकि सिपहसालार मंडली ने ’गढ़बों नवा छत्तीसगढ़’ का फर्जी नरेटिव गढ़ रखा था।

चुनावी वर्ष में इन भागवत कथाओं में उन्हीं महिलाओं की भीड़ ज्यादा थी जो महिला बाल विकास विभाग की ’रेडी टू ईट’ योजना के निजीकरण से खाली हो गई थी। राज्य भर में इनकी संख्या अच्छी खासी थी। 7 और 17 नवंबर को दो चरणों की वोटिंग में मतदान केन्द्रों पर महिलाओं की लंबी कतारों का रहस्य अब धीरे-धीरे खुलता जा रहा है। पुरुष प्रधान समाज में शराबखोरी का दंश झेलती ग्रामीण महिलाओं ने सरकार के खिलाफ वोट किया।

80 फीसदी से ज्यादा मतदान वाले क्षेत्रों में महिलाओं की संख्या ज्यादा थी। तीज, त्योहारों के अवसर पर परंपरा, संस्कृति के नाम पर सीएम हाउस में होने वाले तमाशों के प्रचार प्रसार से असल छत्तीसगढ़ी परंपराएं हाशिए पर चली गई। इन तमाशों की आड़ में छत्तीसगढ़ के युवाओं की नौकरियों और अन्य रोजगार दफन किए गए। जिस धान और किसान के नाम पर पांच साल सरकार चली उस पाखंड को हम चार दिन पहले लिख ही चुके हैं।


राज्य की 19 शहरी सीटों में कांग्रेस 18 हार गई है और एक सीट ले देकर 1200 वोट से जीती है। 90 में से 32 फीसदी आबादी वाली जिन 29 आदिवासी सीटों के भरोसे 2018 में बंपर जनादेश की सरकार बनी थी उसमें से 17 सीटें इस बार भाजपा जीत गई और इन्हीं 17 सीटों से बहुमत पा गई। 2018 में कांग्रेस को मिला 68 का जनादेश इन्हीं आदिवासी सीटों को जोडक़र था। वो ऐसे कि 36, 37, 38 सीटें तो कांग्रेस को पिछले तीन बार से मिल ही रही थी 2018 में मिली 28 आदिवासी सीटों को जोड़ा जाय तो 66 हो ही जाती हैं।

ये आदिवासी सीटें कांग्रेस को उस स्थिति में मिली थी जब अजीत जोगी 2015 में कांग्रेस की राजनीति में अप्रासंगिक हो गए थे। क्योंकि पूरे 15 साल आदिवासियों में असली नकली का भ्रम बना रहा और कांग्रेस चुनाव हारती रही। यह बात अलग है कि 2018 में आदिवासी समुदाय से मुख्यमंत्री पद का कोई दमदार दावेदार नहीं था। लेकिन जो असली आदिवासी नेता थे उनकी राजनीति दफन कर दी गई। पहले के दो साल तो जिला कांग्रेस कमेटी की तर्ज पर तीन करोड़ की आबादी वाले राज्य की सरकार चली। बाद के वर्षों में मूल छत्तीसगढ़ की भावना का कितना ध्यान रखा गया यह प्रदेश की जनता ने देखा महसूसा और जनादेश दिया। जिसे जबानी तौर पर कांग्रेस के स्वनामधन्य नेताओं ने स्वीकार तो किया लेकिन अंदरखाने मची भगदड़ सतह पर आ गई।

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