Article Restored : धारा 370 अब बीते जमाने की बात...

Article Restored : धारा 370 अब बीते जमाने की बात…

Article Restored: Article 370 is now a thing of the past...

Article Restored

डॉ. ओ.पी. त्रिपाठी। Article Restored : कृषि बिलों की वापसी के बाद देश में एक वर्ग द्वारा ऐसा माहौल बनाने का प्रयास किया जा रहा है कि मोदी सरकार धारा 370, सीएए और एनआरसी जैसे कानूनों को भी वापिस करना चाहिए। जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला ने कहा है कि जिस तरह सरकार ने कृषि कानूनों को वापस लिया है, उसी तरह अनुच्छेद 370 को भी बहाल कर देना चाहिए।

तो क्या यह मान लिया जाए कि आने वाले समय में जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 को बहाल करने के लिए भी देश को इसी तरह का आंदोलन का सामना करना पड़ेगा। कृषि कानून को वापस लेने के लिए जिस प्रकार तथाकथित किसानों ने 1 साल से अधिक समय तक उग्र आंदोलन किया। क्या इसी तर्ज पर अब देश के मुसलमान जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 बहाल करने को लेकर सड़क जाम कर आंदोलन करेंगे ?

महबूबा घाटी के युवाओं और अवाम को भड़काने के लिये जानबूझकर भड़काऊ बयान दे रही है। सीएए ओर एनआरसी कानून को अभी सरकार ने लागू नहीं किया है। लेकिन धारा 370 और अनुच्छेद 35-ए हटन के बाद से जम्मू कश्मीर की तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी है। लेकिन देश विरोधी ताकतें और कश्मीर के चंद नेता ऐसा माहौल बनाने में लगे हैं कि धारा 370 को भी वापिस किया जा सकता है।

असल में कृषि कानूनों की वापसी के बाद से इस संबंध में आवाजें तेज हुई हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कृषि कानून को वापस लिए जाने के बाद विपक्ष को सरकार पर दबाव बनाने का एक नया हथियार मिल गया है। विपक्ष द्वारा अब विरोध स्वरूप हर मुद्दे को लेकर आंदोलन को हवा दी जाएगी। क्योंकि कृषि कानून वापस होने से उन्हें एक रास्ता मिल चुका है।

जहां तक जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 संविधान में एक ‘अस्थायी व्यवस्था’ के तौर पर लागू किया गया था। संविधान सभा में हमारे राजनीतिक पुरखों ने इस व्यवस्था पर व्यापक विमर्श किया था। नतीजतन 14 मई, 1954 को राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने ऐसी ‘अस्थायी व्यवस्था’ को स्वीकृति दी थी और जाहिर है कि उसे अधिसूचित भी किया गया। संविधान सभा को 1956 में समाप्त घोषित किया गया, क्योंकि तब तक देश में संविधान पूरी तरह लागू किया जा चुका था।

संविधान सभा की उत्तरदायी संस्था संसद को स्वीकार किया गया, लिहाजा उसे ही संवैधानिक संशोधन, बदलाव या किसी अन्य स्थिति के लिए अधिकृत किया गया। तब से भारत में संसद ही ‘सुप्रीम’ मानी जा रही है, क्योंकि सांसदों के जरिए वह ही लोकतंत्र और संविधान की प्रतीक है। अनुच्छेद 370 और 35-ए की संवैधानिक जरूरत क्या थी और आज भी क्या है तथा भारत में जम्मू-कश्मीर रियासत के विलय की शर्तें क्या तय की गई थीं, हम उस ऐतिहासिक अतीत और गलतियों को खंगालना नहीं चाहते, क्योंकि इन अनुच्छेदों की विशेष व्यवस्था का उल्लेख और विश्लेषण असंख्य बार किया जा चुका है।

अहम और बुनियादी सवाल आज भी यह है कि संविधान की ‘अस्थायी व्यवस्था’ 65 लंबे सालों तक लागू क्यों रही? क्या ‘अस्थायी व्यवस्था’ की यही परिभाषा थी? दरअसल कश्मीर में भारत के राष्ट्र-ध्वज ‘तिरंगे’ की कोई मान्यता नहीं थी। कश्मीर का अपना झंडा था और संविधान भी अपना ही था। भारत के राष्ट्रपति को कश्मीर का संविधान बर्खास्त करने अथवा अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू कराने का संवैधानिक अधिकार नहीं था।

अनुच्छेद 360 (Article Restored) के तहत देश में वित्तीय आपातकाल चस्पा किया जा सकता है, लेकिन जम्मू-कश्मीर में उसे प्रभावी नहीं बनाया जा सकता था। शहरी भूमि कानून और उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम भी कश्मीर में लागू नहीं थे। अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण की व्यवस्था नहीं थी।
संसद में पारित होने के बावजूद सूचना का अधिकार कानून भी कश्मीर में अप्रभावी था। परमिट लेकर कश्मीर में प्रवेश किया जा सकता था मानो भारत का राज्य न हो!

नियंत्रक एवं महालेखाकार की ऑडिट व्यवस्था भी कश्मीर से परे रखी गई थी। यहां तक कि भारतीय दंड संहिता की धाराएं भी जम्मू-कश्मीर में अप्रासंगिक थीं। देश के प्रथम उद्योग, वाणिज्य मंत्री एवं ‘जनसंघ’ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कश्मीर में ‘एक विधान, एक निशान, एक प्रधान’ का नारा बुलंद करते हुए आंदोलन खड़ा किया था और अंतत: उनका बलिदान भी रहस्यमयी बना दिया गया।

भारत का अभिन्न और अंतरंग हिस्सा होने के बावजूद जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के भूक्षेत्र शेष भारत से अलग, कटे हुए लगते थे। कश्मीरियत क्या गोरी, लाल चमड़ी वाली विशेष जमात थी, जिसे शेष हिंदुस्तान से अलग रखा गया। कमाल यह रहा कि यहां से चुने हुए सांसद भारतीय संसद में विराजते थे और सरकारी वेतन, भत्ते बटोरते थे! सवाल यह है कि कश्मीर में ही, देश के संविधान, तिरंगे और प्रधानमंत्री से अलग, व्यवस्था क्यों की गई? हम प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के तत्कालीन फैसलों की मीमांसा भी नहीं करेंगे।

उन्होंने ही कश्मीर का प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला को बना रखा था। दोस्ती, सियासत अथवा कोई विवशता थी? आज यह अनुत्तरित है, क्योंकि कांग्रेस तत्कालीन इतिहास की व्याख्या अपने तौर पर करती है। तभी पार्टी के वरिष्ठ नेता एवं सांसद दिग्विजय सिंह यह बयान दे देते हैं कि कांग्रेस सत्ता में आई, तो अनुच्छेद 370 की बहाली पर पुनर्विचार करेगी। संसद में 370 का प्रस्ताव दो-तिहाई बहुमत से ज्यादा मतों के बाद ही संभव हुआ था।

कांग्रेस इतनी छिन्न-भिन्न स्थिति में है कि सरकार में आना दिवास्वप्न ही है और वह भी संविधान संशोधन के तौर पर दोबारा पारित कराना संभव नहीं लगता। राष्ट्रपति प्रधानमंत्री से सवाल कर सकते हैं कि इस संशोधन की जरूरत क्या है? अगस्त, 2019 में अनुच्छेद 370 और 35-ए खारिज कर दिए गए। सर्वोच्च न्यायालय समीक्षा कर सकता है, लेकिन फिलहाल यह व्यवस्था समाप्त है।

जो पाबंदियां थीं, वे सभी हटाई जा चुकी हैं। विशुद्ध और संवैधानिक तौर पर जम्मू-कश्मीर आज भारत का संघशासित क्षेत्र है। मुट्ठीभर स्वार्थी और राजनीतिक चेहरों को छोड़ कर किसी ने भी 370 (Article Restored) की बात नहीं की है। न कोई आंदोलन है, न अराजकता, न हिंसा, न पत्थरबाजी और न ही जेहादी आतंकवाद की क्रूरता। आर्थिक विकास के प्रयास जारी हैं।

बीते जून में पंचायत स्तर के चुनाव हुए हैं, तो जम्हूरियत का इससे जीवंत उदाहरण और क्या हो सकता है? दिग्विजय ने बयान दिया है, तो कांग्रेस ही उनसे स्पष्टीकरण मांगे। कांग्रेस की ऐसी मानसिकता है, तो यह देश देख लेगा कि जनादेश किसे देना है!

-स्वतंत्र टिप्पणीकार।

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