Bharat Bandh : भारत बंद करके नहीं, बातचीत से बनेगी बात

Bharat Bandh : भारत बंद करके नहीं, बातचीत से बनेगी बात

Bharat Bandh: Talk will be made through talks, not by shutting down India

Bharat Bandh

राजेश माहेश्वरी। Bharat Bandh : नये कृषि कानूनों के खिलाफ किसान दिल्ली के बार्डर पर आंदोलनरत हैं। किसानों के धरने को नौ महीने से ज्यादा का समय हो चुका है। इस बीच किसानों और सरकार के बीच कई दौर की वार्ता हुई, लेकिन वो बेनतीजा साबित हुई। बीते सोमवार को संयुक्त किसान मोर्चा ने भारत बंद आह्वान किया था। लगभग 12 विपक्षी दलों और 40 प्रमुख किसान संगठनों ने बंद के समर्थन की घोषणा की थी। बावजूद इसके ‘भारत बंद’ बेमानी साबित हुआ।

दिल्ली-एनसीआर के मुख्य मार्ग भले ही बंद के चलते जाम हुये हों, लेकिन देश के अन्य हिस्सों में भारत बंद (Bharat Bandh) का मिलाजुला असर ही देखने को मिला। सरकार कह रही है कि वो बातचीत के लिये तैयार है। लेकिन किसान नेता तीनों कानूनों को रद्द करने की मांग पर अड़े हैं। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने नये कृषि कानूनों के क्रियान्वयन पर रोक लगा रखी है। ऐसे में कोई सर्वमान्य हल निकलते दिखता नहीं है।

आज भले ही विपक्ष के तमाम दल किसानों के कंधों पर अपनी सियासी बंदूक रखकर फायर सरकार पर फायर कर रहे हों। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार के दौरान किसान और खुले बाजार की मार्केटिंग पर दसियों साल विमर्श जारी रहा। शरद पवार और भूपेंद्र सिंह हुड्डा की समितियों ने क्या सिफारिशें की थीं, वे सरकारी कागजों में कलमबद्ध है।

मौका है कि उन्हें एक बार फिर सार्वजनिक किया जाना चाहिए। कई संगठन और निजी तौर पर किसान नये कृषि कानूनों के पक्षधर भी हैं, लेकिन कृषि और किसान से संबंधित सरोकारों पर देश चिंतित जरूर है। बुनियादी चिंता किसान की आय की है। हम पहले भी राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय और कृषि विशेषज्ञों के आंकड़ों के जरिए खुलासा करते रहे हैं कि किसान कितनी दुरावस्था में है।

आंदोलित संयुक्त किसान मोर्चे की जिद कानूनों को खारिज करने तक ही सीमित रही है। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी दर्जा देने की मांग भी किसान पूरी ताकत के साथ करते रहे हैं, लेकिन वे भारत सरकार के आश्वासन से सहमत और संतुष्ट नहीं हैं कि एमएसपी के मुद्देे पर गंभीर विचार जारी है। उप्र सरकार ने गन्ने का खरीद मूल्य 25 रुपए बढ़ाकर अब 350 रुपए प्रति क्विंटल तय कर दिया है, लेकिन आंदोलित किसान 425 रुपए से कम पर मानने को तैयार नहीं हैं।

किसान आंदोलन पूरी तरह से सियासी रंग में रंगा हुआ है। भले ही किसान किसी राजनीतिक दल या व्यक्ति को मंच पर स्थान न दे रहे हों। लेकिन किसान आंदोलन के प्रमुख नेताओं की राजनीतिक मंशाएं किसी से छिपी नहीं है। पश्चिमी यूपी में किसान महापंचायत में जो कुछ हुआ वो किसी से छिपा नहीं है। इसके अलावा 26 जनवरी को लाल किले पर जो कुछ उपद्रव तथाकथित किसान आंदोलनकारियों ने किया, उसे भी पूरे देश की जनता ने देखा है। लाल किले में तिरंगा भी अपमानित किया गया था।

भारत बंद के दौरान आंदोलनकारी दिल्ली-गुरुग्राम मार्ग पर किसान सड़क पर ही बैठ गए, नतीजतन वाहनों का लंबा जाम घंटों लगा रहा। राजधानी दिल्ली के आसपास के इलाके ठप करने की कोशिश की गई। लंबे जाम से दिल्ली और एनसीआर के निवासी दिन भर जूझते रहे। दिल्ली बार्डर पर पिछले कई महीनों से किसान जमे हुए हैं।

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद एक तरफ का रास्ता बामुश्किल खुल पाया है। आंदोलन स्थल के आगे पीछे गांवों और आबादी कितना कष्ट झेल रही है, उसका बखान ही नहीं किया जा सकता। ऐसे में किसान क्या ये उम्मीद करते हैं कि देश की जनता उनका साथ देगी या उनके साथ कोई सहानुभूति रखेगी? भारत बंद (Bharat Bandh) के दौरान बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के कार्यकर्ताओं ने तोड़-फोड़ और उग्र प्रदर्शन किया।

अराजकता से आंदोलन क्या हासिल कर सकता है? आंदोलन किसानों का संवैधानिक अधिकार है, तो आम आदमी के भी मौलिक अधिकार हैं कि वह चैन से जी सके और सहजता से काम कर सके। इसके विपरीत कई राज्यों में प्रदर्शनकारियों ने बसों पर प्रहार किए, आगजनी की कोशिशें कीं और वाहनों के चालकों को मारने-पीटने की कोशिशें कीं।

ऐसी हरकतों से किसानों को क्या फायदे होंगे? पिछले नौ महीने में आंदोलन के दौरान किसान आंदोलनकारियों ने हरियाणा और पंजाब में कई उपद्रवों को अंजाम दिया है। ये सब सरकारी रिकार्ड में दर्ज है। देश की सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाकर किसका क्या लाभ होगा, ये बड़ा सवाल है?

किसान उन विशेषज्ञों की भी सुनें, जो एमएसपी को ही अंतिम रास्ता नहीं मानते, जिससे किसानों की आमदनी दोगुनी होगी। इस संदर्भ में अशोक दलवई कमेटी का निष्कर्ष था कि यदि देश की अर्थव्यवस्था की सालाना विकास दर 10.4 फीसदी और उससे अधिक होगी, तो 2022-23 तक किसान की आय दोगुनी हो सकती है, लेकिन 2002-03 से 2018-19 तक कृषि जीडीपी की औसत विकास दर 3.3 फीसदी रही और असल विकास दर भी 3.4 फीसदी थी। यह मुद्दा आंदोलित किसानों ने कभी नहीं उठाया, बल्कि 10 साल तक आंदोलन जारी रखने की धमकियां देते रहे।

कृषि जीडीपी और किसानों की वास्तविक आय में गहरे फासले केरल, गुजरात, झारखंड, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में देखे गए हैं। कृषि कानूनों पर किसानों की आपत्ति का हल निकालने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित कमेटी के एक सदस्या ने मीडिया में कहा कि, ”दो महीने के अपने कार्यकाल में कमिटी ने कृषि क्षेत्र के विभिन्न साझेदारों के साथ लगभग दर्जन भर बैठकें की।

इन बैठकों में किसान संगठन, फसल उपजाने वाले संगठन, प्राइवेट मार्केट बोर्ड, इंडस्ट्री संगठन, राज्य सरकारें, प्रोफेशनल्स और एकेडमिशियन्स, सरकारी अधिकारियों और अनाज खरीदने वाली एजेंसियां शामिल हैं, लेकिन कृषि कानून के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे किसान संगठनों में से कोई भी कमिटी के सामने पेश नहीं हुआ।”

इसी से किसान आंदोलन के नेताओं की नीयत को आसानी से समझा जा सकता है। केंद्र सरकार और 41 प्रदर्शकारी किसान यूनियनों के बीच 11 दौर की वार्ता के बावजूद गतिरोध बरकरार है। सरकार ने 12-18 महीनों के लिए कानूनों के निलंबन और समाधान खोजने के लिए एक संयुक्त पैनल गठित करने सहित कई रियायतों की पेशकश की है, लेकिन यूनियनों ने इसे अस्वीकार कर दिया है।

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