Site icon Navpradesh

गली-गली में शोर है, नारों का ही जोर है

There is noise in every street, the slogans are loud

neta ji

डॉ. संजय शुक्ला


देश के पांच राज्यों में चुनावी सरगर्मी उफान पर है इस बीच तमाम राजनीतिक दल मतदाताओं के वोट बटोरने एक से बढ़कर एक लोक-लुभावन नारे परोस रहे हैं। भारतीय जनमानस में नारों का व्यापक असर आजादी के संघर्ष से लेकर स्वातंत्र्योत्तर भारत के चुनावी राजनीति में रहा है।

मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक नारे वन लाइनर पंचलाइन होते हैं जो मस्तिष्क पर गहरा असर डालते हैं जो लोगों को काफी समय तक याद रहते हैं। वहीं नारे धर्म, जाति और क्षेत्र के नाम पर बंटे हुए लोगों को एकसाथ लाने का कारगर जरिया भी है। नारों के इतिहास पर गौर करें तो देश के आजादी आंदोलन में महात्मा गांधी से लेकर पहली पंक्ति के नेताओं ने जनता को इस आंदोलन से जोडऩे के लिए अनेक नारे दिए जो आज भी इतिहास में अमिट हैं।

इस आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान “करो या मरो” का नारा दिया तो पं. जवाहरलाल नेहरू ने 31 दिसंबर 1929 को कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में ” पूर्ण स्वराज्य” और ‘ आराम हराम है ‘ का उद्घोष किया। इसी आंदोलन में शहीद भगतसिंह ने ‘ इंकलाब जिंदाबाद ‘ का आवाज बुलंद किया तो नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के ‘जय हिंद’ और ‘ तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा ‘ नारे ने लाखों देशवासियों में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष का जज्बा भर दिया।

इसी संघर्ष के दौर में बाल गंगाधर तिलक ने ‘स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार इसे मैं लेकर रहूंगा’ का प्रण कर देशवासियों के मन में आजादी के प्रति प्रतिज्ञा का भाव जागृत कर दिया।? अमर स्वतंत्रता सेनानी लाला लाजपत राय ने 1928 में ब्रिटिश हुकूमत के साइमन कमीशन के खिलाफ मुंबई में साइमन गो बैक का ऐलान कर सेनानियों में जोश भर दिया।


देश की आजादी के बाद राजनीतिक दलों के लिए नारे चुनावी वैतरणी पार करने का सशक्त माध्यम बन गया। देश के चुनावी राजनीति पर नजर डालें तो कोई भी चुनाव बगैर नारों के संपन्न नहीं हुआ बल्कि वर्तमान सोशल मीडिया के दौर में नारों को और भी ज्यादा विस्तार मिला है । पचास के दशक में पूर्व प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने”हिंदी-चीनी भाई-भाई ” का नारा दिया जो भारत के लिए विश्वासघाती साबित हुआ। साल 1952 के चुनाव में कांग्रेस ने ‘खरो रुपयो चांदी को, राज महात्मा गांधी को ‘ नारा दिया तो कम्युनिस्ट पार्टी ने ‘ देश की जनता भूखी है, यह आजादी झूठी है ‘ नारा दिया था।

साल 1965 में भारत -पाक युद्ध के दौरान जब देश में खाद्यान्न की कमी हो गई तब पूर्व प्रधानमंत्री स्व लालबहादुर शास्त्री ने “जय जवान, जय किसान” का आव्हान किया जिसने न केवल देश का मनोबल बढ़ाया बल्कि अगले चुनाव में कांग्रेस को जीत भी दिलाया। साल 1998 में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने इसी में शब्द जोड़ते हुए ‘ जय जवान,जय किसान,जय विज्ञान ‘ नारा दिया। साठ के दशक में प्रसिद्ध गांधीवादी और समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने नारा दिया ‘ समाजवादियों ने बांधी गांठ, पिछड़े पावे सौ में साठ ‘ इस नारे की प्रतिध्वनि आज इक्कीसवीं सदी में सुनाई पड़ रही है जब कांग्रेस सहित तमाम विपक्ष जातिगत जनगणना की मांग कर पिछड़ों की सियासत को आगे बढ़ा रहे हैं।

1971 के आम चुनाव में पूर्व प्रधानमंत्री स्व. श्रीमती इंदिरा गांधी ने ” गरीबी हटाओ का नारा दिया जिसने उस चुनाव में कांग्रेस पार्टी को 352 सीटों के साथ भारी जीत दिलाया। इसी कार्यकाल में सर्वोदय नेता जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार के खिलाफ ‘संपूर्ण क्रांति ‘ का आगाज हुआ जिसकी परिणति 1975 के आपातकाल के रूप में हुई। इसी दौर में कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने ‘इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया ‘ नारा देकर नारों को व्यक्तिवादी बना दिया जो सिलसिला आज भी जारी है।


इमरजेंसी के बाद जेपी की अगुवाई में ‘जनता मोर्चा’ का गठन हुआ जिसने 1977 के आम चुनाव में “इंदिरा हटाओ, देश बचाओ” का नारा बुलंद कर पहली बार दिल्ली की सत्ता से कांग्रेस को रुखसत कर दिया। इसी दौर में ” सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” और ‘अंधकार में एक प्रकाश, देश का नेता जयप्रकाश ‘ जैसे नारों को जनता ने हाथों – हाथ लिया। हालांकि यह गठबंधन सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई और तीन साल के भीतर ही 1980 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी वापस सत्ता पर लौट आ?ईं। इस चुनाव में कांग्रेस को नया चुनाव चिन्ह ‘ हाथ ‘ और भाजपा को ‘कमल’ मिल गया था जिस पर वामपंथियों ने नारा दिया ‘ चलेगा मजदूर उड़ेगी धूल, न बचेगा हाथ और न बचेगा फूल ‘ ।

इस आम चुनाव में इंदिरा गांधी और कांग्रेस के कैंपेन मैनेजर व साहित्यकार श्रीकांत वर्मा ने ‘ न जात पर न पात पर, इंदिरा जी की बात पर मुहर लगेगी हाथ पर ‘ नारा दिया जिसने कांग्रेस को ‘ गरीबी हटाओ ‘ नारे से एक सीट ज्यादा 353 सीट दिलाया। इसी कार्यकाल के दौरान अमृतसर स्वर्ण मंदिर में इंदिरा सरकार द्वारा किए गए ‘आपरेशन ब्लू स्टार’ से आक्रोशित सिख सुरक्षा कर्मी बेअंत सिंह ने इंदिरा गांधी को उनके आवास में गोलियों से छलनी कर दिया जिससे उनकी मौत हो गई।

इसके बाद राजीव गांधी ने कांग्रेस और सरकार का कमान संभाला तथा उनकी सरकार ने 1984 में आम चुनाव की घोषणा कर दी।? कांग्रेस ने यह पूरा चुनाव इंदिरा के प्रति देश के करोड़ों लोगों में उपजी सहानुभूति लहर के सहारे लड़ा तथा चुनाव अभियान में इंदिरा से संबंधित नारे और भाषण गूंजायमान होते रहे। कांग्रेस ने इस चुनाव में ‘ जब तक सूरज चांद रहेगा इंदिरा तेरा नाम रहेगा ‘ तथा इंदिरा गांधी के भुवनेश्वर में दिए गए अंतिम भाषण ‘ मैं जीवित रहूं या न रहूं, मेरे खून का एक- एक कतरा इस देश के लिए अर्पित है’ को ही इलेक्शन कैंपेन के मुख्य धुरी में रखा।


इस चुनाव में कांग्रेस को अभूतपूर्व विजय मिली लेकिन अगले चुनाव के ठीक पहले पार्टी के वरिष्ठ नेता वीपी सिंह ने राजीव सरकार पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए कांग्रेस छोड़ दिया। पार्टी छोडऩे के बाद पूरे देश में वीपी सिंह का स्वागत ‘ राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है ‘ के नारे से किया गया। इस नारे ने 1989 के आम चुनाव में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया लेकिन वीपी सिंह की अगुवाई वाली सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई और अपनों के ही बोझ तले गिर गई।

अलबत्ता इस दौर में ही बाद देश में मंडल और कमंडल की राजनीति का उदय हुआ लेकिन 1991 के मध्यावधि चुनाव में दोनों मुद्दे कुछ खास नहीं कर पाई और कांग्रेस की एक बार फिर वापसी हुई। इस चुनाव अभियान के दौरान ही एक आत्मघाती हमले में भारत ने इक्कीसवीं सदी के स्वप्नदृष्टा राजीव गांधी को खो दिया। इसके बाद कांग्रेस ने राजीव तेरा ये बलिदान, याद रखेगा हिंदुस्तान दिया।

Exit mobile version