शिक्षक तो पढ़ा रहे हैं, लेकिन क्या बच्चे सीख भी रहे हैं?

शिक्षक तो पढ़ा रहे हैं, लेकिन क्या बच्चे सीख भी रहे हैं?

Teachers are teaching, but are the children also learning

Teachers are teaching, but are the children also learning

अतुल मलिकराम

Teachers are teaching, but are the children also learning? : शिक्षा का मतलब कभी-भी किसी खाली पात्र में जल भरने तक ही सीमित नहीं रहा है। महान अर्थशास्त्री तथा नोबेल पुरस्कार विजेता अमत्र्य सेन एवं अभिजीत बनर्जी भी इस बात की पुष्टि कर चुके हैं कि किसी भी अन्य की तुलना में शिक्षा एकमात्र ऐसा साधन है, जो जीवन के अवसरों में वृद्धि करने का सबसे कारगर जरिया है।

हमारे पुराणों में भी कहा गया है ‘सा विद्या या विमुक्तये!” अर्थात् विद्या वही है, जो मुक्त करे। पहले के समय में जब गुरुकुल शिक्षा हुआ करती थी, तब इस वाक्य का एक-एक शब्द अपनी बात पर खरा उतरता था।

इसके मायने 90-2000 के दशक तक भी सटीक ही थे। लेकिन, बीते कुछ वर्षों में हमारे देश में शिक्षा का स्तर काफी नीचे गिर गया है। न तो शिक्षा प्रदान करने वाला इस गर्त में गिरने से खुद को रोक पाया है और न ही शिक्षा अर्जित करने वाला।

शिक्षक बेशक बच्चों को पढ़ाते हैं, लेकिन मेरे मायने में उस शिक्षा का कोई महत्व नहीं, जो सिर्फ सिलेबस पूरा करने तक ही सीमित हो। शिक्षक जो पढ़ा रहा है, बच्चे उसे समझ पा भी रहे हैं या नहीं, यह गंभीर मुद्दा कक्षा में लगे बोर्ड के पीछे ही कहीं छिप जाता है। शायद वह भी शिक्षक की डाँट या मार से डरता हो।

कभी-कभी तो यह लगता है कि सत्र के भीतर सिलेबस को पूरा करना ही शिक्षकों का प्राथमिक कर्तव्य है, बच्चों के ज़हन में इसके अध्याय और उनसे मिलने वाली सीख बैठी या नहीं, इससे उन्हें शायद फर्क पड़ता ही नहीं।

एक तथ्य यह भी है कि एक कक्षा में बच्चों की 50 से लेकर 70 तक की संख्या को दाखिल कर लिया जाता है, स्थिति अनुसार यह संख्या घट-बढ़ सकती है। अब यदि एक-एक बच्चे पर ध्यान देंगे, तो फिर वही बात, सिलेबस कब पूरा होगा?

कमजोर बच्चे डर के मारे शिक्षकों से कुछ पूछ ही नहीं पाते और परिणाम के रूप में स्कूलों की यह भीड़ कोचिंग संस्थानों में बढ़ती चली जाती है। हालात ये हैं कि अब तो कोचिंग संस्थान भी स्कूल जैसे ही प्रतीत होने लगे हैं।

इससे एक स्तर और आगे बढ़ते हुए इन संस्थानों में 100-100 बच्चों की बैच को एक साथ पढ़ाया जाता है। एक तरफ कुआँ और एक तरफ खाई के बीच डोलता हुआ बच्चा आखिर जाए, तो जाए कहाँ?

शिक्षा के मायने तब ही पूरे हो सकते हैं, जब कोई विषय विशेष जिस भाव और अर्थ के साथ पढ़ाया जाए, वह उसी भाव और अर्थ के साथ समझा और सीखा भी जाए।

शिक्षा स्वत: तो है नहीं, जो सिर्फ पढ़ा देने भर मात्र से बच्चों को समझ आ जाए। यहाँ बड़ा प्रश्न उठता है कि इस कमी का आकलन किसका हो? बच्चे का, शिक्षक का या फिर पूरी की पूरी शिक्षा प्रणाली का?

भारत देश में प्रारंभिक शिक्षा को संविधान के तहत मूलभूत अधिकार (शिक्षा का अधिकार, 2009) घोषित किया गया है, यानि सभी 6 से लेकर 14 वर्ष के बच्चों को बिना किसी भेदभाव के अच्छी शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है।

नेशनल अचीवमेंट सर्वे (एनएएस) और एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (एएसईआर) यह स्पष्ट करते हैं कि बच्चे अपनी उम्र और कक्षा के अनुसार सीख ही नहीं पाते हैं। प्राथमिक स्कूलों में 10 करोड़ से भी अधिक बच्चे पढ़ रहे हैं।

बेहद चौंकाने वाले आँकड़ें उपरोक्त रिपोर्ट से सामने आए हैं कि इनमें से लगभग 55 फीसद बच्चे दस साल की उम्र में अपनी भाषा के अक्षर, शब्द या वाक्य ठीक से पढ़ भी नहीं पाते, लिखना तो बहुत दूर की बात है।

वल्र्ड बैंक में इसे लर्निंग पॉवर्टी कहा जाता है और यह बेहद दुर्भाग्य की बात है कि हमारा देश भी इसी श्रेणी में आता है। मैं फिर वही सवाल करता हूँ कि इसका जिम्मेदार कौन है, बच्चे, शिक्षक (Teachers are teaching, but are the children also learning?) या शिक्षा प्रणाली?

फिर एक सवाल यह भी है कि क्या सभी बच्चे समान रूप से सीख पा रहे हैं? राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अनुसार, तीसरी कक्षा की पढ़ाई पूरी होने तक सभी बच्चों को पढऩे, लिखने और सामान्य गणित के कौशल आ जाने चाहिए।

एक तथ्य यह भी है कि इंसान के मस्तिष्क का 85-90त्न विकास इसी उम्र (0-5) में होता है। और इस उम्र में जिन बच्चों को उचित शिक्षा नहीं मिलती, उनकी बुनियाद पूरे जीवन ही कमजोर बनी रहती है।

इस उम्र में, उन्हें जो भी सिखाया जाता है, उन्हें कंठस्थ हो जाता है।
हमारे देश की शिक्षा प्रणाली बच्चों को शिक्षा के अवसर दे तो रही है, लेकिन 50 फीसद से भी अधिक बच्चों को कॉन्सेप्ट्स ही क्लियर नहीं हैं।

ऐसे में, शिक्षकों को चाहिए कि वे एक-एक बच्चे का आकलन करें और उन कमियों को दूर करें, जो लगातार उनमें दिखाई दे रही है। बच्चों के उन कठिन बिंदुओं पर ध्यान दें, जो उन्हें समझ नहीं आते।

अपने पढ़ाने के तरीके में बदलाव लाएँ। डाँटने-मारने से बचें, बच्चों से घुल-मिलकर रहें, ताकि कोई भी बिंदु समझ न आने पर वे बिना किसी डर या झिझक से खुलकर आपसे पूछ सकें। शासन को भी चाहिए कि ऐसे सिलेबस बनाएँ, जो बच्चों को आसानी से समझ आ सकें और उसे पढऩे में उनकी रूचि बनी रहे, न कि उसे देख उनका मन पढ़ाई से ही कतराने लगे।
भारत की शिक्षा प्रणाली विराट, विस्तृत और विविध है।

बतौर उदाहरण बात करें, तो बिहार की सरकारी प्राथमिक शिक्षा के अंतर्गत 63 हज़ार स्कूल आते हैं, जिनमें लगभग 1 करोड़ बच्चे और 2.5 लाख शिक्षक (Teachers are teaching, but are the children also learning?) शामिल हैं। गौर करने वाली बात है कि यह संख्या कई पश्चिमी देशों की जनसंख्या से भी अधिक है। यह सिर्फ एक राज्य की बात है, पूरे देश की बात करेंगे, तो आँकड़ें खुद ही आपस में उलझ जाएँगे।

क्या इतनी व्यापक शिक्षा प्रणाली में सुधार लाना वास्तव में उतना सरल है, जितना प्रतीत होता है? दो से तीन दशकों के प्रयासों का परिणाम है कि अधिकांश बच्चों का स्कूलों में नामांकन है, लेकिन इसके बावजूद सिर्फ 55-60 प्रतिशत बच्चे ही नियमित रूप से स्कूल जाते हैं।

शिक्षा प्रणाली में जरुरी बदलाव और सुधार यदि अब भी नहीं किए गए, तो हमारा देश आगे बढऩे के बजाए कई वर्ष पीछे जाने को मजबूर हो जाएगा। यह पूरे देश के लिए चिन्ता का विषय है कि आज़ादी के 75 वर्षों के बाद भी हम ‘गुणवत्तापूर्ण शिक्षाÓ के लक्ष्य की ओर थोड़ा भी आगे नहीं बढ़े हैं और बात कर रहे हैं वर्ष 2030 में इसे हासिल करने की।

सवाल है कि जो अब तक हासिल नहीं हो सका है, क्या वह आने वाले महज़ कुछ सालों में हासिल हो जाएगा? और हो भी जाएगा, तो कैसे?

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