क्वाड 2.0 : भारतीय वर्चस्वता बढ़ाने में कितना मददगार
कुमार रमेश
Quad 2. 0 the context of India explained : अक्टूबर का महीना और 1962 का साल। यही वो समय था जब चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने भारत पर हमला 38000 वर्ग किमी जमीन पर कब्जा कर लिया था। आधी सदी बाद, आज फिर से वही समय आया है जब विकसित होती अर्थव्यवस्थाओं के बीच तनाव चरम पर है, और सैन्य तथा राजनयिक रिश्तों में थोड़ी सी भी ढील तनाव को युद्ध के आखिरी विकल्प में बदल देगा।
इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि एलएसी पर चीन ने 60000 सैनिकों के अलावा एचक्यू 9 एयर डिफेंस मिसाइल सिस्टम तैनात कर रखा है, और एयर स्ट्रिप्स के अलावा 14 स्थानों पर स्थायी बेस भी बना रहे हैं। यह पूरी तरह साफ है कि चीनी सेना वापस जाने के मूड में नहीं।
दूसरी तरफ भारत भी अपनी तैयारियों को फास्ट फॉरवर्ड बढ़ाते हुए लगातार 35 दिनों में 10 खतरनाक और न्यूक्लियर शक्ति से लैस हाइपरसोनिक, ब्रह्मोस, शौर्य, एंटी रेडार, पृथ्वी-2, स्मार्ट टॉरपीडो और निर्भय जैसे मिसाइलों का टेस्ट कर चुका है। चूंकि यह परिस्थितियां असामान्य हैं इसलिए आज विश्वभर के देश चीन की आक्रामकता से परेशान होकर एक मंच पर आने लगे हैं, ताकि देशों की संप्रभुता और भविष्य की रक्षा तकनीकों से चीन की निर्भरता हटाई जा सके। इसी के साथ दुनियां में एक नए शीत युद्ध की भी शुरुआत हो चुकी है, जिसमें हार किसी की भी हो लेकिन वैश्विक परिदृश्य यकीनन बहुपक्षीय हो जाएगी।
इस दौर में चीन को रोकने के लिए जिस संगठन की रूपरेखा निर्धारित की जा रही है, वह कोई नया नहीं है। इसकी नींव तो 2007 में ही जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे की सोच द्वारा तैयार कर ली गई थी। लेकिन चीन के डर और दबाव में यह कभी अपने मुकाम तक नहीं पहुंच पाया।
चूंकि आज की दुनिया वैश्विक महामारी की चपेट में है और अर्थव्यवस्था चौपट, इसी कमजोरी का फायदा उठाकर राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने दशकों बाद सख्त आक्रमकता दिखाते हुए ना सिर्फ हांगकांग की स्वायत्तता खत्म कर दी बल्कि किर्गिस्तान,भूटान, ताइवान, जापान से भी सीमा विवाद छेड़ दिया है। इसीलिए फिर एक बार यह क्वॉडिलेटराल सिक्योरिटी डायलॉग अपने 2.0 अवतार में वापस आया है जो न सिर्फ पूर्ण रूप से एंटी-चाइना है बल्कि प्रो-डेमोक्रेसी, प्रो-फ्ऱी नेविगेशन और प्रो-कोऑपरेटिव भी है।
आज क्वाड की चर्चा और महत्ता दुनिया की उस सबसे मजबूत सैन्य संगठन नाटो से की जा रही है, जिसकी स्थापना पहले शीत युद्ध के दौर में अमेरिका द्वारा सोवियत यूनियन को घेरने के लिए किया गया था। उसका परिणाम यह रहा कि प्रत्यक्ष युद्ध लड़े बिना ही सोवियत यूनियन को 15 भागों में तोड़ दिया गया।
दशकों बाद आज फिर से अर्थव्यवस्था एवं मिलिट्री वर्चस्वता ने अमेरिका-चीन के बीच दूसरे शीत युद्ध का प्रारंभ करा दिया है। ऐसे में दोनों देश दुनियाभर के देशों को अपने-अपने खेमों में लाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि विरोधी सरकार की सैन्य सत्ता को कमजोर किया जा सकें। क्वाड की संरचना को आज इसी परिपेक्ष्य में मूर्त रूप दिया जा रहा है ताकि हिन्द-प्रशान्त महासागर क्षेत्र में बेल्ट एंड रोड परियोजना, दक्षिणी चीन सागर, 5जी टेक्नोलॉजी, रेयर अर्थ एलिमेंट्स और साईबर सिक्योरिटी से चीन के एकाधिकार को खत्म किया जा सके।
लेकिन सवाल यह है कि यदि निकट भविष्य में भारत का चीन के साथ युद्ध हो गया, तो यह चतुर्भुज सुरक्षा संवाद भारत के सहयोग में आएगा या नहीं। और यदि आएगा तो किस हद तक। चूंकि यह संगठन समुद्र के बीच मुक्त और खुले नविगेशन की नींव पर आधारित है, ऐसे में यह जानना इसलिए महत्वपूर्ण है कि जमीन और सीमा संबंधी विवादों में यह संगठन कोई सैन्य सहायता कर पाएगा या नहीं, यह जानने के बाद ही इसकी परिकल्पना सार्थक होगी।
हाल ही में चीनी मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स ने अपने लेख में भारत को बहलाने को कोशिश की थी कि वह अमेरिका के झांसे में ना आये, क्योंकि युद्ध के समय वह भारत के सहयोग के लिए नहीं आएगा। और जब तक वो मदद के लिए पहुंचेंगे, तक तक खेल खत्म हो चुका होगा। निश्चित रूप से ये धमकियां परिभाषित करती हैं कि चीन एलएसी से पीछे नहीं हटना चाहता। दरअसल, चीन अच्छी तरह जानता है कि ट्रंप प्रशासन कैसे काम करता है, और यह कितना अविश्वसनीय है।
इसलिए मेरा अनुमान है कि अगर सैन्य झड़प या सीमा पर युद्ध होता है तो अमरीका खुले तौर पर भारत के साथ जुड़ेगा, इसकी संभावना बहुत कम है। मैं मानता हूं कि भारत को अमरीका के साथ अच्छे संबंध रखने की आवश्यकता ज़रूर है, लेकिन इसे चीन के ख़िलाफ़ निर्देशित नहीं किया जाना चाहिए। इस संदर्भ में भारत को पाकिस्तान और इराक के पिछले अनुभवों से सबक सीखना चाहिए, कि अमरीका कभी भी किसी का विश्वास-योग्य सहयोगी नहीं रहा है और राष्ट्रपति ट्रंप के शासन में यह अधिक स्पष्ट हो गया है।
भारत को क्वाड में अमेरिका से सर्विलांस के अलावा अन्य कोई मदद नहीं मिल सकेगा, इसीलिए भारत आखिरी बचे फ़ाउन्डेशनल एग्रीमेंट बेका को जल्द से जल्द साइन कर लेना चाहता है। रही बात दक्षिणी चीन सागर में वियतनाम, फिलीपींस, मलेशिया, इंडोनेशिया की, ताइवान में मिडियन लाइन की, जापान में सेनकाकू द्वीपसमूह की; किर्गिस्तान में पूरे पामीर पठार के सुरक्षा की, तो यकीनन यह सब क्वाड की मजबूती पर निर्भर करता है, जो एक दशक से पहले संभव नहीं हो पाएगा। हाल ही में चीन ने एकतरफा कार्रवाई कर हांगकांग को पूर्णत: कब्जा लिया, लेकिन कोई चीन का कुछ नहीं बिगाड़ पाया।
ऑस्ट्रेलिया में तो चीन ने उसके इंटरनल पॉलिसी और पॉलिटिक्स में इस हद तक घुसपैठ कर दी, कि ऑस्ट्रेलिया को इससे बचने के लिए एंटी-इंटरफ्रेंस लॉ बनाना पड़ा। आज स्थिति यह है, कि छोटे छोटे देशों की बदौलत अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों की जांच को भी चीन विफल कर दे रहा है लेकिन कोई कुछ नहीं कर पा रहा। क्वाड की प्रासंगिकता को जानना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि भारत पहले से ही अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान के साथ स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप से बंधा हुआ है।
इसके अलावा शंघाई सहयोग संगठन, आरआईसी और ब्रिक्स जैसे संगठनों में चीन के साथ है और राजनयिक वार्ता के द्वारा एलएसी विवाद सुलझाने की कोशिश में लगा हुआ है। फिर एक ऐसे संगठन को पुनर्जीवित क्यों किया का रहा जिसका अभी तक कोई स्ट्रक्चर और मुख्यालय तक नहीं है। हाल ही में भारत को साथ लेकर अमेरिका ने जी7 जैसे विकसित समूह के विस्तार और ब्रिटेन ने डी10 बनाने की बात कही है। इस चर्चा ने चीनी आक्रामकता को और भड़का दिया क्योंकि यह योजना राष्ट्रपति शी जिनपिंग के सपनों के प्रतिकूल साबित हुआ।
भारत से विवाद के बीच एक चर्चा इस संदर्भ में भी होनी चाहिए कि चीन द्वारा यह आक्रामकता कहीं क्वाड की वजह से तो नहीं। क्योंकि जैसे-जैसे भारत-अमेरिका करीब आ रहे हैं, चीन को दरकिनार होने और एशिया में मजबूत प्रतिद्वंदी मिलने का डर सता रहा है। एक महत्वपूर्ण प्रश्न ये भी है कि जब भारत-चीन के साथ विभिन्न संगठनों में साथ है तो फिर चीन ने भारत के साथ यह आक्रामकता क्यों दिखाई और इन सभी संगठनों ने विवाद खत्म करने के लिए क्या भूमिका निभाया।
निष्कर्ष की बात करें तो इन 15 दिनों में जैसे जैसे अमेरिकी चुनाव नजदीक आएंगे, युद्ध की संभावना अपने पूरे उफ़ान पर रहेगी। क्योंकि चीन युद्ध के जरिए भारत को उसकी औकात दिखाना चाहता है ताकि भारत अपने नक्शे से अक्साई चीन को हटाए और एशिया में चीन की बराबरी पर खड़ा होने से पहले सोचे, इसलिए यह अमेरिकी चुनाव ही भारत और विश्व की दिशा निर्धारित करेगा।
अगर ट्रंप पुन: जीते तो ना सिर्फ चीन पर महामारी फैलाने का वैश्विक दबाव आएगा बल्कि राष्ट्रपति शी जिनपिंग की जीवनपर्यंत सत्ता भी खतरे में पड़ जाएगी। रही बात क्वाड की, तो उसे भी 5 सालों के भीतर संस्थागत बनाकर चीन विरोधी देशों दक्षिण कोरिया, वियतनाम, फिलीपींस और इंडोनेशिया को शामिल किया जा सकता है, ताकि इस शीत युद्ध में क्वाड का सैन्यीकरण किया हा सके। बहरहाल, वर्तमान परिपेक्ष्य में क्वाड तो कोई समाधान नहीं है लेकिन भविष्य में भारत के वर्चस्व को हिंद महासागर में बढ़ाने के लिए यह सबसे बड़ी भूमिका निभाएगा।
फिलहाल डर इस बात का भी है कि हांगकांग के संदर्भ में विश्व बिरादरी को धोखा देने के बाद, यदि चीन ने ताइवान पर भी कब्जे कर लिया, तो विश्व शक्तियां कैसा रिएक्शन देंगी। क्योंकि विडंबना यह है कि जब शीत युद्ध प्रारंभिक अवस्था में है तब चीन के विरुद्ध कोई कुछ नहीं कर पा रहा। तो उस वक्त उसे हराकर तिब्बत, हांगकांग, ताइवान, शिंजियांग जैसे देश आज़ाद कैसे होंगे, जब चीन 2050 में सबसे आधुनिक और शक्तिशाली मिलिट्री बन चुका होगा?