और राज्यों में शुरू एनआरसी का खेल, पश्चिम बंगाल बनता दिख रहा अखाड़ा
नदीम
सियासत (politics) में कामयाबी (success) का एक उसूल (principle) माना जाता है कि आपको कोई न कोई मुद्दा (issue) गर्म (hot) रखना ही होगा, वरना फिजा में पसरी ठंढ आपको एक दायरे तक सीमित कर देती है। मोदी-शाह युग (modi shah era) की शुरुआत के बाद बीजेपी ने कामयाबी (success) के इस फंडे को ही अपना रास्ता बनाने का फैसला किया। 2014 से लेकर 2019 तक बीजेपी की कामयाबी की जो कहानी है, वह इसी रास्ते से आगे बढ़ी है और आगे भी उसके इसी तरह बढऩे की गुंजाइश दिख रही है।
खैर यहां बात हो रही है एनआरसी (nrc) यानी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर की। बीजेपी (bjp) ने इस वक्त इसे सबसे बड़ा सियासी एजेंडा (political agenda) बना दिया है और उसकी कामयाबी यह कही जा सकती है कि इस मुद्दे पर भी उसने एक बार फिर विपक्ष को बैकफुट पर धकेल दिया है। विपक्ष यह नहीं समझ पा रहा है कि इस मुद्दे पर उसका स्टैंड क्या हो? देश की सुरक्षा के मद्देनजर एनआरसी (nrc) के कांसेप्ट पर किसी को कोई ऐतराज भी नहीं होना चाहिए। लेकिन हुआ यह कि इसके जरिए संदेश निकला कि यह अभियान मुसलमानों से उनकी नागरिकता का सबूत मांगने का जरिया है। फिर क्या था, धर्म आधारित राजनीति को एक नई धार मिल गई। या यों कहें कि यह मुद्दा धार्मिक आधार पर गोलबंदी का नया जरिया बन गया है।
असम (assam) में जिस एनआरसी (nrc) के लिए इतनी लंबी-चौड़ी मशक्कत की गई, उसका कोई नतीजा नहीं निकला और न निकट भविष्य में निकलने की कोई उम्मीद है। लेकिन असम के बाद जो राज्य एनआरसी का सबसे बड़ा अखाड़ा (battle field) बनता दिख रहा है, वह है वेस्ट बंगाल (west bengal । चार दिन पहले केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह बंगाल में थे। वहां उन्होंने दो टूक कहा कि बंगाल में भी
एनआरसी (nrc) लाया जाएगा लेकिन उससे पहले सिटिजन बिल लाकर दूसरे देशों से आने वाले हिंदू शरणार्थियों को भारत की नागरिकता दी जाएगी ताकि एनआरसी बनने के वक्त उन्हें भारतीय नागरिक का दर्जा मिल सके। उनके इस बयान के बाद वहां की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के लिए मुश्किल यह आन पड़ी है कि अगर वह इस बिल का विरोध करती हैं तो हिंदुओं की नाराजगी का खतरा उन्हें हो सकता है, और अगर मुसलमानों के लिए किसी रियायत की मांग करती हैं तो वह बांग्लादेशी घुसपैठियों के साथ खड़ी दिखेंगी।
अगर ममता चुप रहना चाहें तो सियासत इसकी इजाजत नहीं देती। सियासत में आपको अपना कोई एक पाला तो चुनना ही होता है। यूपी में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर अभी नहीं बना है, लेकिन यूपी ने उससे पहले ही पुलिस की मदद से बांग्लादेशी घुसपैठियों को बाहर करने का अभियान शुरू करने का फैसला किया है। राज्य के पुलिस प्रमुख का बयान है कि ‘जो बांग्लादेशी और विदेशी नागरिक यहां गैरकानूनी रूप से रह रहे हैं, उनको चिह्नित किया जाएगा और उनके दस्तावेजों की जांच होगी। अगर उनके दस्तावेज गलत पाए गए तो उन्हें प्रत्यर्पित किया जाएगा।’
यूपी की पॉलिटिक्स बीजेपी के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। 2014 में राज्य की 80 में 73 लोकसभा सीटें जीतने के बाद ही बीजेपी के लिए दिल्ली की सत्ता नजदीक हुई थी और 2017 में करीब दो दशक बाद बड़े बहुमत से राज्य की सत्ता में उसकी वापसी मुमकिन हुई थी। 2017 के विधानसभा चुनाव के लिए बीजेपी का पूरा चुनाव अभियान एसपी-बीएसपी की सरकारों द्वारा धार्मिक आधार पर किए गए भेदभाव के खिलाफ था।
बहुमत मिलने के बाद मुख्यमंत्री के रूप में योगी के चयन के पीछे भी बीजेपी ने उनके वस्त्रों के गेरुए रंग के जरिये एक खास संदेश देने की कोशिश थी। 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजे बताते हैं कि योगी को लेकर बीजेपी का प्रयोग कामयाब रहा है। राज्य में इसी महीने 11 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव होने हैं। उससे पहले बांग्लादेशी घुसपैठियों के खिलाफ पुलिस अभियान चलाकर योगी सरकार यह साबित करना चाहती है कि वह अपने ‘एजेंडे’ से जुदा नहीं है।
एनआरसी बनाने की बात सरकार भी कर ही चुकी है। पार्टी लगातार इस बात पर जोर दे रही है कि ‘देश की सुरक्षा की अनदेखी किसी भी कीमत पर नहीं होने दी जाएगी। यूपी को किसी भी सूरत में बांग्लादेशी घुसपैठियों की शरणस्थली नहीं बनने दिया जाएगा।’ विपक्ष के लिए यहां भी मुश्किल है। वह सरकार के फैसले के साथ खड़ा नहीं हो सकता और विरोध करके खुद को ‘राष्ट्रवाद’ की कसौटी पर कसे जाने का मौका दे देगा।
यों भी बीजेपी के नेता राज्य के मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी को अक्सर ‘नमाजवादी पार्टी’ बताकर तंज कसने का मौका नहीं चूकते। बात सिर्फ असम, बंगाल या यूपी तक ही सीमित नहीं है। बीजेपी शासित छह अन्य राज्यों ने भी अपने यहां एनआरसी की वकालत की है। दिल्ली में बीजेपी की सरकार तो नहीं है लेकिन पार्टी के नेताओं ने दिल्ली में एनआरसी लागू किए जाने की मांग की है।
विपक्ष के लिए इस मुद्दे पर बड़ी चुनौती धार्मिक आधार पर गोलबंदी से पार पाने की है। इसी कोशिश में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और एसपी अध्यक्ष अखिलेश यादव एनआरसी के पक्ष या विपक्ष में खड़े दिखने के बजाए अपने-अपने राज्य में बीजेपी के चेहरों को घेर रहे हैं।
बीजेपी की तरफ से जब दिल्ली में एनआरसी (nrc) की मांग उठी तो अरविंद केजरीवाल की पहली प्रतिक्रिया यह आई कि ‘अगर एनआरसी दिल्ली में लागू हो गया, तो सबसे पहले मनोज तिवारी को दिल्ली छोडऩी पड़ेगी।’ वहीं अखिलेश यादव ने कहा कि एनआरसी बनते ही योगी आदित्यनाथ को यूपी से बेदखल होना पड़ेगा। हालांकि यह बात दीगर है कि एनआरसी बनने के बावजूद किसी भी राज्य से दूसरे राज्य के लोगों को बेदखल नहीं किया जाना है।
बहरहाल, राजनीति में कई बार मुद्दों (issue) को बेअसर (ineffective) करने के लिए मुद्दों से भटकाव जरूरी हो जाता है। देखने वाली बात यह होगी कि इसमें कितनी कामयाबी मिलती है। इतना तय है कि अमित शाह ने पॉलिटिक्स को ‘फुलटाइम जॉब’ बना दिया है और विपक्ष को उनसे मुकाबिल होने के लिए अपनी प्लानिंग में बदलाव करना ही होगा।