People of Bastar : बस्तर में दर्द का समंदर
शशांक खरे। People of Bastar : दो पाटों के बीच अभिशप्त जिंदगी जीने मजबूर हैं बस्तर के लोग. शहरी इलाके को छोड़ दिया जाए तो ग्रामीण इलाकों में स्थिति अति गंभीर है. बस्तर के हालात दिनों-दिन बिगड़ते जा रहे हैं. नक्सली उत्पात जारी है. नेता और अधिकारी केवल एसी रूम में बैठकर कर नक्सलवाद से लड़ रहे हैं. वहां के हालात क्या हैं, ये तो केवल मैदान में जूझ रहे जवान जानते हैं या वहां की पीडि़त जनता. इधर, जवान गोली मार देते हैं तो उधर नक्सली. जाएं तो जाएं कहां?
ऐसा नहीं कि वर्तमान सरकार कुछ नहीं कर रही है, वर्तमान सरकार की पुख्ता रणनीति की वजह से ही नक्सली वारदातों में काफी कमी आई है. लेकिन, बीच-बीच में जो खूनी खेल चलता है, उससे जनता खौफजदा हो जाती है. इन वारदातों से कई सवाल भी पैदा होते हैं. नैसर्गिक छटा, वन और खनिज संपदा से परिपूर्ण बस्तर में नक्सलियों ने फिर अपनी घिनौनी हरकत का परिचय दिया है. आखिर कब तक चलता रहेगा, ये खूनी खेल? आम जनता ये प्रश्न शासन-प्रशासन से कर रहा है. किंतु, इसका माकूल जवाब नहीं मिल रहा है. नक्सलियों ने बुधवार 26 अप्रैल को दंतेवाड़ा जिले के समेली-अरनपुर के बीच एक कांक्रीट सडक़ को विस्फोट से उड़ा दिया. और इस घटना में वाहन से लौट रहे डीआरजी (डिस्ट्रीक्ट रिजर्व गार्ड) के दस जवान समेत वाहन चालक भी शहीद हो गया.
इस घटना ने एक बारगी यह साबित कर दिया है कि नक्सलियों की गतिविधियां थमी नहीं हैं और न ही थमने का नाम ले रही हैं. विस्फोट इतना जबर्दस्त था कि, वाहन के परखच्चे उड़ गए, वहीं विस्फोट से 8 फुट गहरा और 20 फिट चौड़ा गहरा गड्ढ़ा बन गया. बस्तर में पिछले दस सालों में 400 से अधिक शहादत हो चुकी है. इस घटना से बस्तर में लोग दहशत में हैं. पिछले साढ़े चार दशक में बस्तर में नक्सली वारदातों में ना जाने कितनी जानें गईं, ना जाने कितने बच्चे यतीम हुए, इसका केवल अनुमान लगा सकते हैं. गहराई में जाएं तो दर्द का समंदर छलक आएगा.
समस्याएं अनंत हैं, पर समाधान की एक भी किरण दिखाई नहीं देती. फिर ऐसे में बस्तर के लोग जाएं तो जाएं कहां? केवल $खयाली पुलाव पकाने से बस्तर की समस्याओं का निदान हो सकता है, तो अधिकारी-नेता उसका ब्लूप्रिंट आम आदमी के बीच पेश करें. थोथी घोषणाओं से कुछ नहीं होगा. सरकारें पहले अपना रुख स्पष्ट करें, कि वह क्या चाहती हैं. नक्सलवाद को अभयदान या उस पर प्रहार. शब्दों के जाल से मुक्त होने का वक्त आ गया है. सरकार ध्यान दे. बस्तर की फिजा में बारूद की गंध काफी पहले $खत्म हो जानी थी, किन्तु दुर्भाग्य का साया बस्तर और छत्तीसगढ़ का साथ नहीं छोड़ रहा है. सरकार बदली, बस्तर में वही गोली, वही धांय-धांय, हालात नहीं बदले.
45 सालों से नक्सलवाद का दंश झेल रहे लोगों को हर रोज सियासी घुट्टी पिलाई जा रही है। सिवाय इसके इस दिशा में कोई सार्थक नतीजे सामने नहीं आए. हाल ही मीडिया के प्रकाश में आई रिपोर्ट के मुताबिक बस्तर की भूमि रक्तपात से कांप रही है. आम आदमी यदि पुलिस का साथ दें, तो नक्सलियों के कोपभाजन का शिकार होना पड़ता है. नक्सली हत्या जैसे जघन्य अपराध को अंजाम देते हैं, ताकि जनता के बीच उनका खौफ बरकरार रहे. नक्सली हमले के बाद नक्सलियों के $खौ$फ का असर लंबे समय तक दूर-दूर तक $कायम रहता है. इससे उनके लिए रसद-पानी, पनाहगाह और फोर्स पर अटैक करने के लिए ग्रामीणों से ही मदद मिल जाती है. आम आदमी यदि नक्सलियों की ओर झुके तो पुलिस उन्हें जेलों में ठूंस देती है. दो पाटों के बीच पिसते लोग किस तरफ जाएं.
एक तरफ कुआं, एक तरफ खाई है. वहीं दूसरी ओर सरकार जो कुछ भी कर रही है, उसमें सिवाय टाइमपास के कुछ भी नहीं हो रहा है. बस्तर में नक्सलवाद की यह समस्या विकट इसलिए हो रही है, क्योंकि शासन-प्रशासन अपने-अपने ढंग से इसे परिभाषित करता है. समस्या एक, परिभाषाएं अनेक. बस इसी में यह समस्या विकट हो गई है. राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव ने इस समस्या को वटवृक्ष बना दिया है. प्रदेश की जनता नेताओं से पिछले 45 सालों से यह सुनती आ रही है, कि हम नक्सलियों को मुंहतोड़ जवाब देंगे, ईंट से ईंट बजा देंगे, नक्सली छत्तीसगढ़ में अंतिम सांसें गिन रहे हैं, आदि- इत्यादि. किंतु नक्सलियों का अंत नहीं हो रहा है. बल्कि नक्सली प्रभाव बढ़ता ही जा रहा है. नक्सलियों के समर्पण में भी आधी ह$की$कत, आधा $फसाना…यह पब्लिक सब जानती है. नक्सली दंश के दर्द को तो वे लोग ही जान सकते हैं, जो सीधे फेस कर रहे हैं. बयानबा•ाी से ना तो नक्सली समस्या का अंत हो सकता है, ना ही किसी का सुहाग वापस आ सकता है.
जिसके सिर से पिता का साया छिन गया है, उससे पूछें, उसका दर्द. पिछले साढ़े चार दशक में बस्तर में नक्सली वारदातों में ना जाने कितनी जानें गईं, ना जाने कितने बच्चे यतीम हुए, इसका केवल अनुमान लगा सकते हैं. गहराई में जाएं तो दर्द का समंदर छलक आएगा. समस्याएं अनंत हैं, पर समाधान की एक भी किरण दिखाई नहीं देती. फिर ऐसे में बस्तर के लोग जाएं तो जाएं कहां?
केवल खयाली पुलाव पकाने से बस्तर की समस्याओं का निदान (People of Bastar) हो सकता है, तो अधिकारी-नेता उसका ब्लूप्रिंट आम आदमी के बीच पेश करें. थोथी घोषणाओं से से कुछ नहीं होगा. सरकार ध्यान दे. बस्तर की फि•ाा में बारूद की गंध काफी पहले खत्म हो जानी थी, किन्तु दुर्भाग्य का साया बस्तर और छत्तीसगढ़ का साथ नहीं छोड़ रहा है. सरकार बदली, बस्तर में वही गोली, वही धांय-धांय, हालात नहीं बदले. शब्दों के जाल से मुक्त होने का वक्त आ गया है. अन्यथा लाशें बिछती रहेंगीं।