National Tribal Dance Festival : आदिवासी लोक संस्कृति को सहेजने का प्रयास…
National Tribal Dance Festival : डॉ. संजय शुक्ला। छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा आदिवासी लोकनृत्य एवं संस्कृति को राष्ट्रीय एवं अंर्तराष्ट्रीय मानचित्र पर पहचान दिलाने के उद्देश्य से आगामी 28 से 30 अक्टूबर तक राजधानी रायपुर में तीन दिवसीय ”राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव” का आगाज किया जा रहा हैै। इस महोत्सव में 7 देशों और 27 राज्यों के 1000 से भी ज्यादा आदिवासी कलाकार शामिल होंगे।
आदिवासी संस्कृति और अस्मिता के प्रतीक इस तीन दिवसीय आयोजन का शुभारंभ एक अन्य आदिवासी बहुल राज्य झारखंड के अदिवासी मुख्यमंत्री श्री हेमंत सोरेन करेंगे। नि:संदेह ऐसे आयोजनों से आदिवासी लोककलाओं एवं संस्कृति को संरक्षण और संवर्धन मिलेगा। गौरतलब है कि आदिवासी बहुल छत्तीसगढ़ राज्य की पहचान उसकी सदियों पुरानी आदिवासी संस्कृति और परंपरा भी है। बस्तर से लेकर सरगुजा तक साल-सागौन से घिरी जंगलों में बसने वाले आदिवासियों का परंपरागत नृत्यों से आत्मीय लगाव रहा है।
वस्तुत: आदिवासी सहज, सरल और उन्मुक्त जीवन जीने वाला समुदाय है जो अपनी सांस्कृतिक विरासत और परंपराओं के प्रति गहरी आस्था रखता है। देश का आदिवासी समाज वास्तव में एक ऐसा समाज है जिनकी पहचान सदियों पुरानी भाषा, लोककला, गीत और संगीत, संस्कृति, धार्मिक प्रथाएं, रीति-रिवाज, शिल्पकला, भित्ती चित्र, चित्रकला और अनेक परंपराएं रही हैं। आदिवासी नृत्य और संगीत के बेहद शौकीन होते हैं तथा वे इसे भगवान की देन मानते हैं, लोकनृत्यों से आदिवासी समाज का सदियों से आत्मीय जुड़ाव रहा है।
देश के विभिन्न जनजाति क्षेत्रों में निवासरत आदिवासी समुदायों के नृत्यों का सिंहावलोकन करें तो बिहार में सरहुल, उड़ीसा में गरूड़ वाहन, दलखई, मध्यप्रदेश में गोंचो, सुआ, छत्तीसगढ़ में सैला, बाईसन हॉर्न, करमा, नागालैण्ड में बम्बू नृत्य, रेंगमा प्रमुख है। इसी प्रकार जनजातीय समुदायों के बैगा समुदाय में तपड़ी, सैला, भुंईया, गोंड़ समुदाय में डंडरिया, गोंचो, नवरानी, कोइसाबड़ी, भील समुदाय में दगला और पाली प्रमुख हैं। देश के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले जनजातीयों के कबीला नृत्य और कबीला संगीत आदिवासी संस्कृति की पहचान है। गौरतलब है कि जनजातीय समुदाय धार्मिक नृत्यों को देवता से आर्शिवाद प्राप्त करने तथा प्राकृतिक आपदा व महामारी जैसी विपत्ति से बचाव के लिए करते हैं इसमें सुआ, दशेरा, दोहा और सुमरन प्रमुख है।
सामाजिक कार्यक्रमों तथा विभिन्न अनुष्ठानों (National Tribal Dance Festival) में होने वाले नृत्यों में करमा, चेरिया, सुआ, रीना, सैला, बिलमा, सुरहुल, डंडरिया, दलखई, जदुर, धूर्मा, रेंगमा, माघा, पालि, गोमचो और तापड़ी लोकप्रिय हैं। बहरहाल इस आयोजन के परिप्रेक्ष्य में यह भी विचारणीय है कि आदिवासियों की सदियों पुरानी आदिवासी कला और संस्कृति अब क्षरण के दौर से गुजर रही है। दरअसल आधुनिक सभ्यता और विकास की अंधी दौड़ हमारी पुरानी चीजों को लगातार निगल रही है जिसकी चपेट में आदिवासी संस्कृति और लोककलाएं भी आने लगी हैं और वे अब मशीनी सभ्यता की भेंट चढ़ रही हैं। विगत दशकों में बढ़ते शहरीकरण और व्यवसायीकरण के चलते आदिवासी कला में परिवर्तन आने लगा है फलस्वरूप आदिवासियों का सामाजिक और आर्थिक ढांचा टूट रहा है।
आधुनिक संस्कृति की भीड़ में आदिवासी संस्कृति, लोककला और परंपराएं लुप्त होने लगी हैं। आदिवासी लोककला और संस्कृति के ह्रास के लिए प्रमुख कारण जनजातीय सामाजिक व्यवस्था, नक्सलवाद, शहरीकरण, आधुनिक सभ्यता का फैलाव और महंगाई है। नयी पीढ़ी शिक्षा और रोजगार के लिए शहरों का रूख कर रहा है हालांॅकि यह उनकी मजबूरी और आवश्यकता भी है। आधुनिक शहरी परिवेश में आदिवासियों की नयी पीढ़ी शहरी और पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण कर रहा है और अपनी परंपरगत सांस्कृति विरासत और लोककलाओं से विमुख होने लगा है। आदिवासियों की नयी पीढ़ी को ध्यान रखना होगा कि उनकी संस्कृति उन्हें विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष और सामान्य परिस्थितियों में समानता की प्रेरणा देता है।
दुखदायी यह भी है कि आदिवासी अपनी संस्कृति और परंपरा को पूंजीवादी विकास के चंगुल से बचाने के जुगत में है क्योंकि यह उसके अस्मिता और अस्तित्व से जुड़ा मसला है। माओवाद तथा अलगाववाद हिंसा से प्रभावित राज्यों में आदिवासी नक्सली तथा चरमपंथियों व सुरक्षाबलों के बीच दो पाटों में पिस रहे हैं। नक्सलियों तथा सुरक्षाबलों व पुलिस के दहशत के चलते बस्तर के अंदरूनी इलाकों में लोकनृत्यों के आयोजन में बड़ी तेजी से कमी आ रही है। इन क्षेत्रों में बसे आदिवासियों की माने तो गांवों में अब यदा-कदा ही लोकनृत्यों का आयोजन हो रहा है फलत: नर्तक दलों की संख्या लगातार घट रही है।
नक्सलियों और सुरक्षाबलों के भय और दबाव के चलते बड़ी संख्या में आदिवासियों का पलायन अन्य राज्यों की ओर हो रहा है इस जद्दोजहद से भी जनजातीय कला और परंपराओं का क्षरण हो रहा है। महंगाई ने भी आदिवासी पारंपरिक लोकनृत्यों के कमर तोडऩे में कोई कसर नहीं छोड़ी है। नृत्यों के परिधान और साजो समान आदिवासियों की आर्थिक क्षमता की तुलना में महंगे होने लगे हैं परिणामस्वरूप आदिवासी तबका इस विधा से दूर हो रहा है।
विचारणीय है कि जनजातियों की संस्कृति पर सबसे बड़ा हमला कार्पोरेट जगत और सरकारों द्वारा किया जा रहा है। आदिवासी सीधे तौर पर जल, जंगल और जमीन से जुड़े हुए हैं उनके हर परंपराओं में पेड़ों की अनिवार्यता है। आधुनिक विकास की भूख के चलते जंगलों व पहाड़ों को लगातार उजाड़ा और खोदा जा रहा है। इन परिस्थितियों में भी आदिवासी संस्कृति एवं लोककलाओं का क्षरण तेजी से जारी है। किसी समाज के लिए उसकी भाषा, संस्कृति, लोककला और परंपरा अमूल्य विरासत और पहचान होती है।
बुद्धिजीवों तथा समाजशास्त्रियों का मानना है कि जो जनजातियां नाचती-गाती नहीं है उनकी संस्कृति मर जाती है, आदिवासी संस्कृति और लोककला (National Tribal Dance Festival) हमें प्रकृति संरक्षण और जैव विविधता की सीख देती है इसलिए सरकार और समाज की जवाबदेही है कि वह देश के जनजातीय समुदायों के लोककलाओं और संस्कृति के संरक्षण तथा प्रोत्साहन के प्रति दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति और प्रतिबद्धता प्रदर्शित करें क्योंकि लोककला है तो आदिवासी है।