प्रसंगवश: उसूलों के व्रतियों पर भारी पड़ी सत्ता की भूख
यशवंत धोटे
महाराष्ट्र की राजनीति में शनिवार को हुए घटनाक्रम से देश के राजनीति शास्त्र में एक अध्याय लिख गया। शिवसेना, एनसीपी व कांग्रेस की बैठकों के बीच भाजपा के देवेंद्र फडणवीस ने एनसीपी के अजित पवार को अपने पाले में लेकर पुन: मुख्यमंत्री की शपथ ले ली। राज्यपाल को एनसीपी के 54 विधायकों के कथित समर्थन की चिट्ठी सौंपकर भाजपा ने एक तरह से पुन: सरकार स्थािपत कर ली।
एनसीपी चीफ शरद पवार के भतीजे अजित को अब तक कही जा रही इस बगावत के बदले में उपमुख्यमंत्री पद मिला। ये वही अजित पवार हैं, जिन पर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से लेकर खुद प्रधानमंत्री मोदी भ्रष्टाचार के आरोप लगाते रहे हैं।
प्रधानमंत्री मोदी तो लोकसभा व विधानसभा चुनावों के दौरान पूरे महाराष्ट्र में शरद पवार व अजित पवार पर निशाना साधने से नहीं चूके। वर्ष 2014 में मोदी ने एनसीपी को नेचुरली करप्ट पार्टी करार दिया था। जबकि इस वर्ष संपन्न महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में मोदी ने इन दोनों नेताओं के गढ़ बारामती में ही चाचा-भतीजे की जोड़ी पर गाना गाकर इन पर करारा हमला बोला था। महाराष्ट्र के पूर्व भाजपा अध्यक्ष रावसाहेब दानवे ने तो यहां तक कह दिया था कि विदर्भ में हुए सिंचाई घोटाले को लेकर अजित पवार का जेल जाना तय है। वे जल्द ही जेल जाएंगे।
यह घोटाला उस समय का है जब अजित पवार कांग्रेस-एनसीपी की आघाड़ी सरकार में जलसंसाधन मंत्री थे। 27 नवंबर 2018 में इस घोटाले के संबंध में महाराष्ट्र एसीबी द्वारा बॉम्बे हाईकोर्ट में दायर शपथ पत्र में कहा गया है कि इस घोटाले के लिए अजित पवार जिम्मेदार हैं। वहीं महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव की घोषणा के बाद अजित पवार पर एक अन्य घोटाले का भी प्रकरण दर्ज हो गया।
इस बार उनके साथ शरद पवार पर भी प्रकरण दर्ज किया गया। ईडी ने महाराष्ट्र स्टेट कोऑपरेटिव घोटाला मामले में दानों नेताओं समेत कुल 70 लोगों पर मनी लॉिन्ड्रंग का केस दर्ज किया। मजबूरियां अपनी जगह। शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे भी चुनाव पूर्व कांग्रेस-एनसीपी को घेरने में पीछे नहीं रहे।
खैर राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलते रहता है। लेकिन उसूलों से समझौता करने का इससे बड़ा दौर शायद ही कभी देखने को मिला हो, खासकर तब जब देश बदल रहा हो। दो मित्र दलों में से एक कट्टर हिंदुत्व की छवि व सिद्धांतों वाला तो दूसरा हिंदुत्व के साथ ही भ्रष्टाचार मुक्त पारदर्शी शासन का दंभ भरने वाला। इन दोनों में से पहले वाले पर देश व महाराष्ट्र की जनता का भरोसा पहले से ही कम था कि वह दूसरे को उसकी शर्तों पर साथ देते रहेगा।
वहीं दूसरे की भी जिद थी की जो होगा वो मेरी शर्तों पर होगा। इस जिद को कायम रखते हुए सत्ता की भूख मिटाना भी जरूरी था। ऐसे में विकल्प बचा तो एक- उसूलों के व्रत का उद्यापन कर दिया जाए। शायद हुआ भी वही।
इस पूरे उलटफेर में राजनीति के महारथी कहलाने वाले शिवसेना, कांग्रेस व एनसीपी के दिग्गजों की ओर से निर्णय लेने में हो रही देर भी बड़ी वजह रही। 24 अक्टूबर को नतीजे आने के बाद आज 24 नवंबर तक कुल एक माह का समय हो जाने पर भी तीनों दलों की बैठकें ही पूरी नहीं हो सकीं।
राजनीति के महारथी यही समझते रहे कि फडणवीस का राज्यपाल से मिलकर सरकार बनाने का दावा पेश नहीं करने की बात करना और अपना स्तीफा सौंप देना ही भाजपा की अंतिम रणनीति है। शायद वे गोवा, मणिपुर व मेघालय में भाजपा के चाणक्य अमित शाह द्वारा अपनाई गई रणनीति को भूल गए, जहां सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरने के बावजूद कांग्रेस सरकार नहीं बना पाई।
महाराष्ट्र की राजनीति के सबसे बड़े पैंतरेबाज के रूप में पहचाने जाने वाले नेता ने तो यह तक कह दिया था कि अब आ जाएं भाजपा के चाणक्य (अमित शाह) और बना लें महाराष्ट्र में सरकार!
बहरहाल अब भी यह बात राज बनी हुई है कि महाराष्ट्र में परदे के पीछे क्या चल रहा है। भतीजे अजित पवार द्वारा इतनी बड़ी बगावत करने के बाद भी शरद पवार का उन्हें पार्टी से न निकाला जाना, शरद पवार की हाल ही में हुई प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात, शनिवार की प्रेस कॉन्फ्रेंस में कांग्रेस का शामिल न होना…आदि कई चीजें इसकी द्योतक हैं। वक्त ही बता सकता है- ये बगावत, धोखा या दिल्लगी।