Leaders Leaving Congress : कितना बदले राजनीतिक दल, कितने बदले सिद्धांत
आलोक मेहता। Leaders Leaving Congress : पुराना गीत है -‘देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसान। चाँद न बदला सूरज न बदला, कितना बदल गया इंसान। ‘वर्तमान राजनीतिक माहौल में लोग नेताओं और राजनीतिक दलों को लेकर यह सवाल करने लगे हैं -अरे यह कितना बदल गए ? ऐसा क्या हो गया ? ये तो चाँद सितारे तोड़कर लाने जैसे सपने देखते दिखाते रहे , बड़े बड़े सिद्धांतों की बातें करते रहे , लेकिन भाई कितना बदल गए ? इन सवालों का एक ही उत्तर है – सत्ता , समाज बहुत कुछ बदलवा देता है । यों कुछ बदलाव आवश्यक और उपयोगी होते हैं और कुछ पतन की दिशा में ले जाते हैं।
सबसे पहले देश की पुरानी कांग्रेस पार्टी की स्थिति ही देखिये। इतना बुरा हाल तो कभी नहीं था, जब पचास पचास साल से जुड़े नेता कांग्रेस छोड़कर (Leaders Leaving Congress) जा रहे और पार्टी के कुछ नए नेता अल्पसंख्यक वोट की छीनाझपटी के लिए सारे सिद्धांतों विचारों की बलि देने लगे । पराकाष्ठा हिजाब विवाद पर दिखाई दी , जब कई कांग्रेसी स्कूलों सहित शिक्षा संस्थानों में हिजाब , बुर्के की अनिवार्यता को धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के रुप में निरूपित करने लगे। क्या इससे कांग्रेस को उत्तर प्रदेश के चुनाव में बड़े पैमाने पर मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन मिल सकेगा ? दस प्रतिशत भी उम्मीद करते हों , तो क्या वे देश को उन्नीसवीं सदी की तरफ ले जाने का पाप के दोषी नहीं माने जाएंगे।
सांप्रदायिक, जातीय और क्षेत्रीय संकीर्णता से लडऩे के लिए कांग्रेस के कई महान नेताओं ने आज़ादी से पहले और बाद में भी बहुत समर्पण भाव से काम किया । अपराधियों को सत्ता में आने से रोकने के अभियान चलाए । शीर्ष पदों पर पहुंचकर ईमानदारी की मिसाल बनाने वालों में राजेंद्र प्रसाद से शंकर दयाल शर्मा तक शामिल रहे । लेकिन अब राहुल गाँधी की टीम को जेल के अंदर बैठे भ्रष्ट नेता – मंत्री , सहयोगी पार्टी से परहेज नहीं साथ चाहिए। घोर कट्टरपंथी शिव सेना के साथ सत्ता की साझेदारी में सुख मिल रहा है।
पंजाब में पुराने वफादार कैप्टन अमरेंद्र सिंह को हटाकर नवजोत सिंह सिद्धू और चरणजीत चन्नी को बागडोर सौंप दी, जो पंजाबियत की ताकत, यू पी बिहारी को नहीं घुसने देने जैसे बयानों से सामाजिक और राष्ट्रीय एकता को ही नुकसान पहुँचाने लगे हैं । बार बार दलित को मुख्यमंत्री बनाने का श्रेय लेते समय भूल जाते हैं कि किसी जाति का व्यक्ति होना पर्याप्त नहीं है। केवल जगजीवन राम ही नहीं उनकी बेटी मीरा कुमार, सुशील कुमार शिंदे, बूटा सिंह जैसे कई नेता पार्टी में शीर्ष पदों पर रहे, तब भी पार्टी चुनावों में पराजित हुई। वे अपना चुनाव तक हार गए।
सात साल पहले तक सत्ता में रहते हुए राहुल गाँधी की मंडली ने क्या इतना भी सुनिश्चित किया कि अल्पसंख्यक मंत्रालय में मुस्लिम लोगों के रोजगार -कल्याण आदि के लिए बजट में तय राशि को ही पूरा खर्च किया जा सके? धर्मनिरपेक्ष विचारों वाले नेहरू या इंदिरा गाँधी की बातें पुस्तकों के रुप में न्यूनतम दामों पर सामान्य कार्यकर्ताओं या सामान्य लोगों तक पहुंचाई जा सके? तब तो सलाहकार इस तरह की किसी पुस्तकों को अधिकतम दाम और अधिकाधिक रायल्टी परिवार को दिलवाकर अपनी कुर्सी सुरक्षित करते रहे। इसलिए अब किस मुंह से अपने समर्थकों से सिद्धांतों की बात कर सकते हैं? पंजाब में कांग्रेस का विकल्प बनने की दावेदार आम आदमी पार्टी ने अपने घोषित सिद्धांतों और दावों के विपरीत हर संभव फार्मूले अपना रखे हैं।
मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार सर्वाधिक विवादास्पद नेता भगवंत मान को बना दिया । जिस प्रदेश के लिए नशा मुक्ति सबसे बड़ा मुद्दा हो , वहां क्या नशे के लिए सदा चर्चित नेता और कांग्रेस से ही निकले लोगों को विधान सभा का प्रत्याशी बनाने से क्या आम आदमी पार्टी के संरक्षक रहे अन्ना हजारे के सपने संकल्प पूरे हो सकेंगे ? यही नहीं पंजाब चुनाव से एन पहले दिल्ली में शराब के नए ठेकों पर एक के साथ एक बोतल फ्री शराब की व्यवस्था लागू करने से खजाना भरने या जनता को प्रसन्न करने का प्रयास कितना सही कहा जा सकेगा ?
इस दौर में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के बदलाव को लेकर अलग अलग प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं। भाजपा के कुछ बदले रुप और कुछ ऐतिहासिक संकल्पों को पूरा करने से प्रतिपक्ष अधिक विचलित हुआ है। सारे आरोपों और विरोधों के बावजूद यह तो तथ्य है कि भाजपा को उत्तर, पूर्व, पश्चिम और एक हद तक दक्षिण के राज्यों तक अपना प्रभाव बढ़ाने में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के जन कल्याण कार्यक्रमों से सर्वाधिक लाभ मिल रहा है। भाजपा या संघ समर्थक कुछ कट्टरपंथी संगठन या नेता अवश्य इस बात से नाराज दिखते हैं कि सरकार ‘ हिन्दू राष्ट्र ‘ बनाने के लिए सरकार पर्याप्त प्रयास नहीं कर रही है।
लेकिन राष्ट्र की जिम्मेदारी मिलने पर मोदी जैसे अनुभवी नेता इस तरह के रास्ते नहीं अपना सकते हैं । वैसे भी संघ के वरिष्ठ नेता बदलाव को अनुचित नहीं मानते हैं । राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भगवत ने सार्वजनिक रूप से यह स्वीकारा है कि ‘संघ बंद संगठन नहीं है। समय के साथ संगठन की अवधारणा और स्थिति बदलती है। संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार ने प्राम्भ से इस तरह के बदलाव का रास्ता दिखाया था।
‘अल्पसंख्यकों के मुद्दे पर भी भागवत कहते हैं कि ‘हिंदुत्व मुसलमानों के बगैर अधूरा है। ‘इस तरह प्रोफेसर राजेंद्र सिंह, सुदर्शनजी के संघ प्रमुख रहते संघ और उससे निकले भाजपा के नेताओं ने अपने रुख और नीतियों में बदलाव किए हैं। वे सभी भारतीयों के भारत में जन्म लेने के आधार पर एक संस्कृति का मानते हैं। इसीलिए मोदी जाति, धर्म, क्षेत्र के बजाय ‘सबका विकास ‘ के अपने नारे के अनुरूप पार्टी और सरकार चलाने की कोशिश कर रहे हैं। कट्टरपंथियों को यह तो स्वीकारना चाहिए कि जम्मू कश्मीर की धारा 370 समाप्त करने, तीन तलाक की रूढ़ी से मुस्लिम महिलाओं को मुक्ति दिलाने का क्रन्तिकारी कानून बनवाने में सरकार को बड़ी सफलता मिली है।
अयोध्या में अदालती फैसले के बाद मंदिर बनवाने, काशी के मंदिर प्रांगण के कायाकल्प जैसे कदम और मथुरा में भी आवश्यक सौंदर्यीकरण के इरादे बताना अपने संकल्पों को पूरा करना ही है। यह सही है कि बदलाव सम्पूर्ण राजनीति में हो रहा है। सामाजिक आर्थिक स्थितियां पूरी दुनिया की बदल रही है और शायद बदलती (Leaders Leaving Congress) ही रहेगी। इसके कुछ अच्छे परिणाम होंगे, तो कुछ कष्टदायक भी होंगे।
(लेखक आई टी वी नेटवर्क – इंडिया न्यूज़ और दैनिक आज समाज के सम्पादकीय निदेशक हैं)