Kisan Mahapanchayat : किसान महापंचायत की आड़ में सियासी एजेंडा |

Kisan Mahapanchayat : किसान महापंचायत की आड़ में सियासी एजेंडा

Kisan Mahapanchayat: Political agenda under the guise of Kisan Mahapanchayat

Kisan Mahapanchayat

राजेश माहेश्वरी। Kisan Mahapanchayat : तीन नये कृषि कानूनों के खिलाफ किसान पिछले लगभग नौ महीने से आंदोलनरत हैं। केंद्र सरकार से कई दौर की लंबी वार्ताओं का नतीजा भी शून्य रहा है। पिछले नौ महीने में किसान आंदोलन ने कई रंग और रूप बदले हैं। शुरूआती दौर में आंदोलन की शुरूआत पंजाब के सिख किसानों के हाथों में थी। लेकिन 26 जनवरी को लाल किले में उपद्रव और गैर काूननी हरकतों के बाद से आंदोलन की कमान यूपी के जाट किसान नेता के हाथों में है।

किसान बीच के रास्ते की बजाय तीनों नये कानूनों को वापसी की जिद पर अड़े हैं। तो वहीं केंद्र सरकार का कहना है किसानों को जिन बिंदुओं पर आपत्ति है, उसे वो बताएं। कुल मिलाकर स्थिति तनावपूर्ण बनी हुई है। और जैसे-जैसे आंदोलन लंबा खिंच रहा है, उसमें सियासत के रंग भी शामिल होते जा रहे हैं। वो अलग बात है कि किसान अपने मंच पर किसी सियासी दल को स्थान नहीं दे रहे, लेकिन किसानों के पीछे तमाम विपक्षी दल खड़े है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता।

यह खुल तथ्य है कि बीजेपी विरोधी पार्टियों के कार्यकर्ता भी आंदोलन में अलग अलग रूप में बढ़ चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं। उनके राजनीतिक बयानबाजी और नारे उनकी असली पहचान को छिपा नहीं पाती हैं। जाहिर है बीजेपी और खास तौर पर मोदी विरोधी लोगों के लिए भी किसान आंदोलन एक ऐसा प्लेटफॉर्म बनकर सामने आया है, जिसके जरिए लोग इकट्ठा होकर किसान आंदोलन की आड़ में मोदी विरोध की हवा को तेज करने में लगे हैं। किसान आंदोलन के झूले की पींग का लुत्फ उठाने में कोई पार्टी पीछे रह जाना नहीं चाहती।

राहुल गांधी ने तो ट्विटर को ही मशीनगन बना लिया है। किसान नाम की मैगजीन भरकर सरकार पर तड़ातड़ फायर कर रहे हैं। किसान महापंचायत (Kisan Mahapanchayat) को लेकर भी राहुल गांधी ने ट्विट कर अपनी मौजूदगी का एहसास किसानों को करवाया। मुजफ्फरनगर में किसान महापंचायत में जो कुछ हुआ, वो किसी से छिपा नहीं है। मंच से जो कुछ बोला गया और जो नारे लगे, उनके अर्थ सीधे तौर पर सियासी थे। महापंचायत में किसान मुद्दों और नये कृषि बिलों पर विस्तृत चर्चा की बजाय योगी और मोदी का हटाने की बातें की गई। प्रधानमंत्री मोदी और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को ‘बाहरी बताया गया।

किसान आंदोलन के मंच से टिप्पणी की गई-ये दंगे कराने वाले नेता हैं! देश की संस्थाएं बेच रहे हैं। इन्हें बेचने की अनुमति किसने दी? यह शब्दावली भी किसान की नहीं, बल्कि घोर राजनीतिक और चुनावी है। किसी अदालत का कोई गंभीर फैसला इन दोनों नेताओं के खिलाफ उपलब्ध है क्या? खासतौर पर दंगों को लेकर!

इसमें कोई दो राय नहीं है कि महापंचायत में विपक्ष की परंपरागत विरोधी बातें किसान नेताओं के मुंह से निकलीं। आंदोलन के सूत्रधार संयुक्त किसान मोर्चा ने अपने वक्तव्य में यह भी कहा है कि उप्र और उत्तराखंड मिशन की शुरुआत हो चुकी है। भाजपा को वोट नहीं देना है। वोट की चोट मारना बेहद जरूरी है। क्या अब किसान यही राजनीतिक प्रचार करेंगे? क्या इसके जरिए किसानों के मुद्दों का समाधान निकलेगा? क्या मोदी और योगी तथा उनकी भाजपा को किसान-विरोधी करार दिया जाता रहेगा?

ये कथन और सवाल किस ओर संकेत करते हैं? साफ है कि किसान का मुखौटा पहन कर, कुछ पराजित राजनीतिक चेहरे, अपना मकसद पूरा करना चाहते हैं! वे भी किसान होंगे, लेकिन उनकी तकलीफें और पीड़ा वह नहीं है, जो 86 फीसदी किसानों की हैं। किसान आंदोलन ने एक और महापंचायत का आयोजन मुजफ्फरनगर, उप्र में किया। ऐसे कई आयोजन पहले भी किए जा चुके हैं। यह किसानों और आंदोलनकारियों का संवैधानिक अधिकार है, लेकिन चिंतित सरोकार किसानों पर ही केंद्रित होने चाहिए। मोदी और योगी को गाली देकर किसान का हासिल क्या होगा?

महापंचायत (Kisan Mahapanchayat) में जो कुछ भी हुआ वो सब विपक्ष के सियासी एजेंडे को धार देने वाला था। हिंदू-मुस्लिम एकता के नाम पर तुष्टिकरण की राजनीति से लेकर, मोदी और योगी सरकार को ललकारना सियासत नहीं तो और क्या है? ऐेसे में आंदोलनकारी तथाकथित किसान नेताओं से सीधा सवाल है कि अगर राजनीति ही करनी है, और चुनाव लडऩा है तो सीधे चुनाव मैदान में कूद जाइये। आपको कौन रोक रहा है। चुनाव लडऩा आपका संवैधानिक अधिकार है। वैसे किसान नेता राकेश टिकैत कई दफा चुनाव मैदान में उतर कर अपनी फजीहत करवा चुके हैं। बदले माहौल में उन्हें अपने लिये पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बड़ा स्पेस दिखाई दे रहा है।

जिस तरह राकेश टिकैत किसान आंदोलन के नाम पर पश्चिमी बंगाल से लेकर पंजाब तक में विपक्ष के सियासी एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं, उसके चलते किसान आंदोलन सियासी आंदोलन में कब का बदल चुका है। वैसे भी किसान आंदोलन तो देश के 70 करोड़ से ज्यादा किसानों और उनके परिजनों का होना चाहिए। हकीकत यह नहीं है, क्योंकि किसानों का एक वर्ग खुले बाजार में मुनाफा कमा रहा है। वह विवादास्पद कानूनों के खिलाफ भी नहीं है। बेशक बीते 9 माह से जारी किसान आंदोलन का अब समाधान निकलना ही चाहिए। वैसे भी यह आंदोलन देशभर के किसानों का प्रतिनिधित्व नहीं करता। इसमें पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के अलावा देश के अन्य राज्यों की भागीदारी न के बराबर है।

किसानों की समस्याओं को सुनना सरकार की जिम्मेदारी है। किसानों की समस्याएं सुनीं भी जानी चाहिएं। सारा देश किसानों के साथ है। लेकिन किसान आंदोलन के नाम पर सियासत होती देख समाज में किसान आंदोलन को लेकर भिन्न मत देखने-सुनने का मिलता है। मोदी सरकार के साथ बातचीत शुरू होनी चाहिए, लेकिन कथित किसान नेता अपनी जिद तो छोड़ें। किसानों को गुमराह करने के लिए स्वामीनाथन आयोग का बहुत शोर मचाया जाता रहा है।

आयोग की रिपेार्ट में क्या-क्या सिफारिशें की गई थीं, सरकार या विशेषज्ञ उन्हें भी सार्वजनिक करें, क्योंकि मौजूदा आंदोलन उसे लेकर भी गुमराह कर रहा है। रपट में साफ उल्लेख है कि सभी फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) नहीं दिया जाना चाहिए। चर्चा इस मुद्दे पर भी होनी चाहिए कि जमीन छीन लेने का कोई भी प्रावधान कानूनों में कहां किया गया है? किसान आंदोलनकारी यह हव्वा क्यों खड़ा करते रहे हैं? किसानों को एमएसपी से ज्यादा मूल्य मिलने के तमाम लोग हिमायती हैं, और होना भी चाहिए।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *