Journalism of Dr. Ambedkar : डॉ. अंबेडकर की पत्रकारिता में निहित जन सरोकार
डॉ. अमिता। Journalism of Dr. Ambedkar : पत्रकारिता का प्रारंभ एक मिशन के तौर पर हुआ था। धीरे-धीरे यह मिशन प्रोफेशन में तब्दील होता जा रहा है। पत्रकारिता की गिरती साख और उस पर उठते सवाल के बीच यदि डॉ. अंबेडकर की पत्रकारिता का विश्लेषण करें तो हम देखते हैं कि उनकी पत्रकारिता वर्तमान परिदृश्य में भी बेहद महत्वपूर्ण प्रतीत होती है। उस दौरान पत्रकारिता को लेकर उन्होंने जो बातें कही थी, वह आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। उन्होंने जिन मूल्यों के साथ पत्रकारिता की शुरूआत की थी, वह अंत तक उन पर कायम रहे। एक तरफ वे जहां देश के दलितों, वंचितों, शोषितों, महिलाओं, आदिवासियों के लिए आवाज़ उठा रहे थे, तो दूसरी तरफ वे स्वराज, राष्ट्रवाद का मुद्दा भी उतने ही तेवर के साथ उठा रहे थे। उन्हें जब भी सत्ता में कोई खामी नजर आयी तो सरकार को भी अपनी पत्रकारिता के माध्यम से घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 1951 में ही उन्होंने कह दिया था कि पत्रकारिता अपने मूल उद्देश्य से भटककर व्यापार बन गयी है।
इसमें जन सरोकार की बातें ख़त्म होती जा रही है। अखबार पक्षपाती और पूर्वाग्रहयुक्त नजरिये से ग्रसित हैं। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि अखबारों की रिपोर्टें तथ्यों पर आधारित नहीं होती हैं और सच को ऐसे प्रस्तुत करते हैं, जिससे उनके पसंदीदा लोग सही नजर आएं और जिन्हें वे नापसंद करते हैं, उनकी गलत तस्वीर प्रस्तुत हो। अखबारों के इस तरह के बर्ताव का शिकार डॉ. अंबेडकर जैसा व्यक्तित्व भी उस समय हुआ।
अधिकांश भारतीय अखबार सदियों पुराने जातिगत, पक्षपात और वर्ग चरित्र से ग्रस्त है, जिसका अहसास बाबा साहब को वर्षों पहले ही हो गया था। पत्रों के जातिवादी चरित्र के साथ ही पत्रकारिता के व्यावसायिक स्वरूप और अनैतिक आचरण से अंबेडकर व्यथित और आक्रोशित थे। अपनी व्यथा को प्रकट करते हुए उन्होंने लिखा था कि – “भारत में पत्रकारिता पहले एक पेशा थी। अब वह एक व्यापार बन गई है। अखबार चलाने वालों को नैतिकता से उतना ही मतलब रहता है जितना कि किसी साबुन बनाने वाले को। पत्रकारिता स्वयं को जनता के जिम्मेदार सलाहकार के रूप में नहीं देखती।
भारत में पत्रकार यह नहीं मानते कि बिना किसी प्रयोजन के समाचार देना, निर्भयतापूर्वक उन लोगों की निंदा करना जो गलत रास्ते पर जा रहे हों, फिर चाहे वे कितने ही शक्तिशाली क्यों न हों, पूरे समुदाय के हितों की रक्षा करने वाली नीति को प्रतिपादित करना उनका पहला और प्राथमिक कर्तव्य है। किंतु आज व्यक्ति पूजा उनका मुख्य कर्तव्य बन गया है। भारतीय प्रेस में समाचार को सनसनीखेज बनाना, तार्किक विचारों के स्थान पर अतार्किक जुनूनी बातें लिखना और जिम्मेदार लोगों की बुद्धि को जाग्रत करने के बजाय गैर जिम्मेदार लोगों की भावनाएं भड़काना आम बात हैं।
व्यक्ति पूजा की खातिर देश के हितों की इतनी विवेकहीन बलि इसके पहले कभी नहीं दी गई। व्यक्ति पूजा कभी इतनी अंधी नहीं थी जितनी कि वह आज के भारत में है। मुझे यह कहते हुए प्रसन्नता होती है कि इसके कुछ सम्मानित अपवाद हैं, परंतु उनकी संख्या बहुत कम है और उनकी आवाज़ कभी सुनी नहीं जाती।” (बाबासाहेब, डॉ. आंबेडकर, संपूर्ण वांग्मय, खंड-1, पृ. 273) डॉ. अंबेडकर की सभी बातें जानकर ऐसा लगता है, मानो वह आज की पत्रकारिता के परिपेक्ष्य में ही बातें कर रहे हों। उनकी तमाम बातें आज की पत्रकारिता पर भी बिल्कुल सटीक बैठती है।
उन्होंने सैदव जन सरोकार की पत्रकारिता की। सत्ता के पक्ष या विपक्ष में खड़े न होकर, निष्पक्ष रूप से अपनी तटस्थता को साबित की। उन्होंने महिलाओं की शिक्षा और उन तमाम अधिकारों की बातें की जिससे उन्हें सदियों से वंचित रखा गया था। दूसरी ओर आदिवासी समाज के साथ हो रहे अन्याय का भी पुरजोर विरोध किया। उन्होंने मैकाले की शिक्षा से इतर अंग्रेजी के बजाये भारतीय भाषाओं में शिक्षा की वकालत की। साथ ही लोगों को सदैव शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो की प्रेरणा दी। वे देश के तमाम बेजुवानों की आवाज बने जो सदियों से हाशिये पर रखे गये थें।
उन्होंने अपनी पत्रकारिता के माध्यम से उन तमाम कर्तव्यों का निर्वहन किया जो देश अथवा लोकतंत्र के चौथे खंभे का दायित्व है। लेकिन आज की पत्रकारिता में जन सरोकारों का निरंतर ह्रास हो रहा है। ऐसा लगता है जैसे पत्रकारिता ने नैतिकता से हाथ पीछे खींच लिया हो। यह वर्ग चरित्र के घेरे में ऐसे घिरती जा रही है कि इससे निकल पाना असंभव सा होता जा रहा है। ऐसी स्थिति में डॉ. अंबेडकर की पत्रकारिता ठीक वैसी ही मार्गदर्शिका साबित हो सकती है, जैसे उनके द्वारा लिखित संविधान।