प्रसंगवश: “बाबा” प्रधान देश में छल, प्रपंच और पाखंड की गिरफ्त में बहुसंख्यक समाज
यशवंत धोटे
Hathras stampede: ऐसा लगता है कि जब हम स्कूल में पढ़ा करते थे कि भारत एक कृषि प्रधान देश है जिसकी 80 फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर है लेकिन मौजूदा दौर में हम ये कह सकते है कि भारत अब बाबा प्रधान देश हो गया है। जिसकी अधिकांश आबादी इनके छल, प्रपंच और पाखण्ड की गिरफ्त में है।
विश्वास और अंधविश्वास की बढ़ती खाई ने आस्था के विमर्श को बदल दिया है। यह बात अलग है कि पिछले कुछ वर्षों में राजनीति में अपराधीकरण की बजाय राजनीति में धर्म पर बहस होने लगी है। अब राजनीति को धर्म से रसद पानी मिलने लगी है। दरअसल आज हम बात करेंगे उत्तरप्रदेश के हाथरस में हुयें सत्संग में उस हादसे की, जिसमें 125 से अधिक लोग मारे गए। जिसमें अधिकांश महिलाएं व बच्चे थे।
बाबाओं के सत्संग (Hathras stampede) में लगने वाली भीड़ से आप अंदाजा लगा सकते है कि लोग निजी जीवन में कितने हताश या निराश है। उत्तरप्रदेश से आ रही खबरों का यदि विश्लेषण करें तो इसमें दिख रहा है कि सभी निम्न-मध्यम वर्ग के लोग इसमें शामिल थे। जिस बाबा के आश्रम में यह हादसा हुआ उसका अतीत भी सामने आ गया है। पहले आरक्षक की नौकरी की फिर वीआर लेकर सत्संग कर नया स्टार्टअप शुरु किया।
पहले प्रवचन देेने लगे फिर देखा की सुनने वाले कम है और समस्या लेकर आने वाले लगातार बढ़ रहे है तो भूत भगाने वाली विधा का पाखंड शुरु किया गया। इस पाखंड से बाबा गिरी का धंधा ऐसा चमका कि अब लाखों की भीड़ एकत्रित होने लगी, भरपूर चढ़ावा आने लगा, सेवादारों के रुप में बाउंसर भर्ती होने लगे। अधिकांश बाउंसरों के पास गन लाईसेंस है। जिसकी तनखा सामान्य बाउंसर से ज्यादा होती है। बाबागिरी या सत्संग उद्योग कोई छोटा-मोटा उद्योग नहीं है।
बिना टेक्स, जीएसटी और बिना किसी सरकारी औपचारिकता से चलने वाला हजारो करोड़ के टर्नओवर वाला बिजनेस है। बाबाओं के इस पाखंड के अर्थशास्त्र (Hathras stampede) को समझने की जरूरत है। दरअसल जो बाबा बन जाते है उनके अनुयायी इनसे जुड़े हुए किसी न किसी व्यवसाय से जुड़े रहते है। एक बार के सत्संग की फीस बाबा जो भी ले, लेकिन बाय प्रोडेक्ट में लगने वाले स्टॉल और भक्तों से मिलने वाला चंदा इतना हो जाता है कि आने वाले कई दिनों तक अगले सत्संग की तैयारी की जा सकती है।
नारायण साकार हरि नाम के इस बाबा के कारनामे आना अभी बाकी है, लेकिन आस्था के साथ पाखंड का सिलसिला यहां थम जाएगा ऐसा नहीं कह सकते। जब-जब देश के किसी राज्य या देश में चुनाव आता है तो बाबाओं के सत्संग के आयोजनों की बाढ़ सी आती है। तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि राजनीतिक सभाओं में भीड़ जुटाने के लिए राजनीति दलों को न केवल आर्थिक बल्कि अन्य सहयोगी संसाधनों की दरकार होती है।
इसके बाद भी लोग नेताओं को सुनने नहीं आते, लेकिन इसी कार्यक्रम को धर्म का जामा पहना दिया जाए तो लोगों की भीड़ संभालना मुश्किल हो जाता है। बस इस नब्ज को राजनीतिक दलों ने पकड़ा है। और यही वजह है कि बाबाओं के सत्संग अब राजनीतिक दलों के लिए भीड़ आउटसोर्स करने के साधन बन गए है।