Hasdeo Aranya : हसदेव अरण्य को लेकर हुई प्रेस कॉंफ्रेंस, कहा – अरण्य नष्ट हुए तो आदिवासियों का भविष्य खतरे में

Hasdeo Aranya : हसदेव अरण्य को लेकर हुई प्रेस कॉंफ्रेंस, कहा – अरण्य नष्ट हुए तो आदिवासियों का भविष्य खतरे में

Hasdeo Aranya,

दिल्ली, नवप्रदेश। फ्रेंड्स ऑफ हसदेव अरण्य (Hasdeo Aranya) ने दिल्ली के प्रेस क्लब में प्रेस कॉंफ्रेंस रखी गई। इस वार्ता में हसदेव अरण्य नष्ट होने का मुद्दा उठा। और सरकार पर अरण्य को नष्ट करने का आरोप लगाया और कहा कि इससे आदिवासियों का क्या होगा। अगर अरण्य इसी तरह धीरे-धीरे नष्ट होता चला गया तो आदिवासियों की जीविका का क्या होगा। अब यह मुद्दा अंतर्राष्ट्रीय बन चुका है।

इस वार्ता को छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के नेता आलोक शुक्ला, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर अपर्वार्वानदं, पर्यावरण शोधकर्ता कांची कोहली, पीयूसीएल की कविता श्रीवास्तव समस्त आदिवासी समूह के डॉ. जितेंद्र मीणा, अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव और संयुक्त किसान मोर्चा के नेता हन्नान मोल्ला और एनएपीएम के नेता राजेंद्र रवि ने संबोधित किया। 

प्रेस कांफ्रेंस को संचालित करते हुए कविता श्रीवास्तव ने बताया कि राज्य सरकार लगातार हसदेव जंगलों (Hasdeo Aranya) में कोयला खनन शुरू करने के लिए दबाव बना रही है। उसका कहना है कि राज्य से कोयले की आपूर्ति बंद होने से पूरी तरह से ब्लैकआउट हो जाएगा। इसलिए बिजली का उत्पादन करने की जरूरत है।

इससे नागरिकों में दहशत और भय पैदा हो रहा है। राजस्थान सरकार बिजली की कमी पर शोर मचा रही है, जबकि बिजली पर उनकी अपनी नीतियां बताती हैं कि कोयले से मिलने वाली बिजली लंबे समय तक नहीं चल सकती है और इसलिए नए नवीकरणीय तरीकों से बिजली पैदा करने की आवश्यकता है। अपनी नीति के बावजूद राज्य सरकार उनकी बिजली की जरूरतों को कोयला स्रोतों से पूरा करने पर जोर दे रही है, जिसके लिए हसदेव के जंगलों पर दबाव डाला जा रहा है।

आलोक शुक्ला ने विस्तार से बताया कि प्राचीन हसदेव जंगलों (Hasdeo Aranya) खनन क्यों नहीं होना चाहिए और उन्होंने स्थानीय समुदायों द्वारा दर्ज किए जा रहे विरोध पर भी प्रकाश डाला, जिनके संवैधानिक अधिकारों का बार-बार उल्लंघन किया गया है।

हसदेव अरण्य की ग्राम सभाओं के एक दशक के लंबे विरोध के बावजूद, छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा दो खनन परियोजनाओं को एक साथ मंजूरी दी गई है, जिसके बारे में स्थानीय ग्रामीणों ने नकली/जाली ग्राम सभा आयोजित करने का गंभीर आरोप लगाया है और इस प्रस्ताव को रद्द करने तथा प्रशासन के दबाव में, पहले वितरित वन अधिकार पत्रकों को निरस्त करने की तथा अवैध भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही को रद्द करने की मांग की है।

ये ग्रामीण पिछले 3 साल से इस फर्जी ग्राम सभा मामले की जांच की मांग कर रहे हैं और यहां तक ​​कि 300 किलोमीटर की पदयात्रा (फुट-मार्च) के बाद मुख्यमंत्री और राज्यपाल से भी मुलाकात कर जांच की मांग की है।

उन्होंने बताया कि इस लंबित जांच के बावजूद खनन को ताजा मंजूरी दे दी गई है। उन्होंने कहा कि हसदेव के पर्यावरण को बचाने के लिए राज्य सरकार ने 2021 में भी अपनी रिपोर्ट में इस बात पर सहमति जताई है कि यहां खनन नहीं किया जाना चाहिए। यहां के आदिवासियों को संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं, क्योंकि हसदेव क्षेत्र 5वीं अनुसूची के अंतर्गत आता है।

इसके अलावा उन्होंने साझा किया कि 6,500 एकड़ से अधिक सुंदर प्राचीन जंगलों में 4.5 लाख से अधिक पेड़ काटे जाने की संभावना है। अब, यहां तक ​​कि पर्यावरणविदों, युवाओं और नागरिक समाज द्वारा व्यापक विरोध के बावजूद, खबर है कि एक तीसरी खनन परियोजना – केते एक्सटेंशन – को मंजूरी दी जा रही है,

जिससे कई लाख और पेड़ गिर रहे हैं। कुल मिलाकर, इन परियोजनाओं को अडानी को लाभदायक बनाने के लिए मंजूरी दी जा रही है, बावजूद इसके कि ये परियोजनाएं इस समृद्ध, प्राचीन पारिस्थितिकी तंत्र पर कहर ढा सकती हैं।

कांची कोहली ने इस बात पर जोर दिया कि यह मुद्दा सिर्फ हसदेव वनों के बारे में नहीं है या स्थानीय क्षेत्र तक सीमित नहीं है, बल्कि एक राष्ट्रीय और वैश्विक मुद्दा है, खासकर पर्यावरण विनाश और आसन्न जलवायु संकट के दृष्टिकोण से।

यह एक राजनीतिक मुद्दा भी है। सरकार ने यह स्वीकार किया है कि यह क्षेत्र महत्वपूर्ण हाथी उपस्थिति को चिह्नित करता है, और साथ ही एक लेमरू हाथी रिजर्व का भी प्रस्ताव है, जबकि दूसरी ओर, मंजूरी के समय मंत्रालयों और विभागों ने उद्धृत किया है कि हाथी की उपस्थिति कम और दुर्लभ है।

खनन परियोजनाओं के कारण पानी, जंगल, स्थानीय आदिवासी लोगों, उनकी आजीविका और पारंपरिक-सांस्कृतिक प्रथाओं पर गंभीर प्रभावों का आंकलन करने के लिए सरकार द्वारा कोई प्रासंगिक शोध नहीं किया गया है। उन्होंने कहा कि हसदेव खनन को सभी कानूनी मंजूरी प्राप्त हो सकती है, लेकिन यह कभी भी पर्यावरणीय और सामाजिक वैधता प्राप्त करने में सक्षम नहीं होगा।

हसदेव में विरोध कर रहे स्थानीय समुदायों के प्रति एकजुटता दिखाते हुए हन्नान मोल्ला ने आवाज उठाई कि हसदेव में खनन के खिलाफ लड़ाई एक दशक से चल रही है और आने वाले कई दशकों तक चल सकती है।

सबका मनोबल बढ़ाते हुए उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि हम इस लड़ाई को कैसे नहीं हार सकते, क्योंकि अगर हम हार गए तो न केवल हम हारेंगे बल्कि हम हमारे प्राकृतिक और संवैधानिक अधिकार भी खो देंगे, पर्यावरण और अंततः मानवता, सब भी एक साथ हारेंगे। जल, जंगल और भूमि सीमित हैं, उनका दोबारा जन्म नहीं होगा।

भूमि अधिकार आंदोलन पहले रायपुर में और उसके बाद दिल्ली में अधिवेशन आयोजित करेगा तथा राष्ट्रीय स्तर पर हसदेव के मुद्दे और ऐसे अन्य आंदोलनों/मामलों को उजागर करेगा, जहां विकास परियोजनाओं के नाम पर भूमि अधिग्रहण बलपूर्वक/अवैध रूप से किया जा रहा है।

राजेंद्र रवि ने टिप्पणी की कि कैसे दोनों राज्यों (छत्तीसगढ़ और राजस्थान) की कांग्रेस सरकार हसदेव में खनन के लिए जिम्मेदार है। कांग्रेस अडानी की मदद करने का आरोप भाजपा पर लगाती हैं, लेकिन यहां कांग्रेस का पाखंड साफ नजर आता है।

कृषि विरोधी कानूनों के खिलाफ दिल्ली के चारों कोनों में किसानों का प्रदर्शन तो बस एक शुरूआत थी, केंद्र सरकार को हराने के लिए अब ऐसे संघर्षों और विरोधों को व्यापक स्तर पर आगे बढ़ाने की जरूरत है।

अपने जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिए लोगों के विरोध के बारे में जनता की सार्वजनिक शिक्षा की आवश्यकता पर जोर देते हुए, प्रो. अपूर्वानंद ने अपने बयान में कहा कि पहला, हसदेव का मुद्दा स्थानीय मुद्दा नहीं है।

दूसरा, भले ही यह स्थानीय मुद्दा हो, हमें इसके स्थान की परवाह किए बिना इसके साथ जुड़ने की आवश्यकता है। अगर राहुल गांधी कहते हैं कि वह इस तरह की खनन नीति से सहमत नहीं हैं तो उन्हें इस पर कुछ कार्रवाई करनी होगी। अगर ऑस्ट्रेलियाई आज तक अदानी का विरोध कर सकते हैं, तो हमें भी करना चाहिए।

हमारा कर्तव्य अब अधिक से अधिक लोगों को इस मुद्दे के बारे में जागरूक करना और स्थानीय समुदायों द्वारा चल रहे विरोध के साथ एकजुटता को मजबूत करना है।

डॉ जितेंद्र मीणा ने भूमि, जंगलों और आदिवासियों के बीच के जटिल संबंधों के बारे में बात की, जो अद्वितीय और अन्योन्याश्रित है और जहां कोई भी दूसरे के बिना जीवित/अस्तित्व में नहीं रह सकता है।

पूरी दुनिया में सरकारें ‘विकास’ के नाम पर आदिवासियों की जमीन पर कब्जा करने के लिए जानी जाती हैं। उनका कहना है कि अंग्रेजों के जमाने से ही आदिवासियों के पढ़े-लिखे न होने का हवाला देकर और उन्हें आधुनिक बनाने के नाम पर उनके जंगल, उनकी जमीन बार-बार छीनी जा रही है।

आदिवासी अभी तक अपने जल-जंगल-जमीन की रक्षा के लिए अथक संघर्ष कर रहे हैं। विरोध कर रहे स्थानीय समुदायों के प्रति एकजुटता दिखाते हुए, उन्होंने सभी आंदोलनों को एक साथ आने और आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ने की आवश्यकता पर जोर दिया।

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