Good Memories : हमारे साथ रह जाएंगी कुछ यादें
विभूति नारायण राय। Good Memories : साल 2021 जाते-जाते कई खट्टी-मीठी यादें दे गया है। कुछ हम भूल जाना चाहेंगे, पर कुछ यादें रहेंगी। सबसे महत्वपूर्ण है जनसंख्या के मोर्चे पर मिली दो उपलब्धियां, जिनकी कुछ वर्षों पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, पहली बार देश में पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों की संख्या ज्यादा हो गई है, और यह भी वर्षों के प्रयास से ही संभव हुआ है कि इस महादेश की जनसंख्या के अगले कुछ दशकों में स्थिर होते-होते कम होने की स्थिति आ गई है।
कुछ वर्षों पूर्व कौन सोच सकता था कि एक घोषित समलैंगिक उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बन जाएगा या फाल्गुनी नायर नाम की कोई महिला 100 करोड़ डॉलर से अधिक कीमती यूनिकॉर्न खड़ा कर लेगी। एक ओलंपिक में सात मेडल मिलना भी अकल्पनीय (Good Memories) था। इन सारी उपलब्धियों के बीच इस वर्ष बहुत कुछ ऐसा भी घटा, जो न सिर्फ चिंताजनक और शर्मनाक था, बल्कि हमें इसलिए भी याद करना चाहिए, ताकि उनकी पुनरावृत्ति से बचा जा सके।
इस क्रम में मैं सिर्फ सभ्य समाज में जरूरी शांति-व्यवस्था के मोर्चे पर बड़ी गफलतों की तरफ ध्यान आकर्षित करूंगा। लखीमपुर खीरी में किसानों के आंदोलन से जिस तरह से निपटा गया, उससे पुलिस एक बार फिर संविधान और देश के कायदे-कानूनों की रखवाली से अधिक हाकिम-ए-वक्त की सेवा करती नजर आई। साल भर से ज्यादा वक्त से दिल्ली की सीमाओं पर धरना दे रहे किसानों और उनके खिलाफ खड़ी सरकार, दोनों का धैर्य खीरी पहुंचते-पहुंचते टूट गया, और जब वे एक-दूसरे से उलझे, तो ऐसी घटनाएं घटीं, जिनमें स्थानीय पुलिस और प्रशासन ने खुद को एक ऐसे खाने में खड़ा पाया, जहां वे सांविधानिक संस्थाएं न होकर, सत्तारूढ़ दल के औजार बनकर रह गए।
यह तो मीडिया और सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप था, जिसके कारण राजनीतिक रूप से ताकतवर लोगों को भी कुछ हद तक खरोंच लग पाई। अब भी इस प्रकरण में किसान एक केंद्रीय मंत्री के खिलाफ कार्रवाई को लेकर सड़क से संसद तक आंदोलित हैं। मुंबई में तो साल भर ऐसा कुछ होता रहा, जिसे कम-से-कम मुंबई पुलिस और नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एनसीबी) भविष्य में कभी याद नहीं करना चाहेंगे। शुरुआत हुई एक दुस्साहसी पुलिस इंस्पेक्टर सचिन वाजे की आपराधिक हरकतों से और एक चेन-प्रतिक्रिया की तरह गृह राज्यमंत्री अनिल देशमुख और कमिश्नर पुलिस परमजीत सिंह की करतूतों का भंडाफोड़ होता गया।
यह तंत्र की अंधेरी दुनिया थी, जिसके बारे में छन-छनकर जानकारियां बाहर आती जरूर थीं, पर किसी को आभास नहीं था कि राजनीति, पुलिस और अपराध का कॉकस सांस्थानिक लूट-पाट के इतने संगठित गिरोह के रूप में कार्य करता है। देश की वित्तीय राजधानी में इस गठजोड़ के कारण जो खरबों रुपये का काला धन पैदा होता है, वह विधायिका, मीडिया से लेकर न्यायपालिका तक सारी संस्थाओं को भ्रष्ट करने में समर्थ है। इसे लोकतंत्र की ताकत कहेंगे कि आधे-अधूरे मन से की गई कार्रवाई के बावजूद इस प्रहसन के कई पात्र आज जेल में हैं, पर कोई नहीं जानता कि इन सबके चलते कोई बुनियादी सुधार हो भी पाएगा या सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा।
साल के उत्तराद्र्ध में मुंबई में ही एक दूसरी शर्मनाक घटना हुई, जिसने एक बार फिर काले धन, नशे और अपराध जगत के साथ सरकारी तंत्र के रिश्तों की कुरूपता को पूरी शिद्दत से उजागर कर दिया। अब यह छिपा नहीं है कि मुंबई का फिल्म उद्योग काफी हद तक काले धन पर टिका हुआ है और यह उसे मुख्य रूप से जमीन-जायदाद के धंधों और तस्करी की दुनिया से हासिल होता है। पिछले कुछ दिनों से इसमें नशे का नया कोण जुड़ गया है। इस बार इंस्पेक्टर वाजे जैसे ही एक दूसरे अधिकारी एनसीबी के समीर वानखेड़े के कारण इस पंकिल दुनिया के दर्शन हमें हुए। वाजे जैसा ही विवादास्पद असिस्टेंट कमिश्नर वानखेड़े वर्षों से मुंबई में जमा हुआ था और उसकी हरकतों से यह भेद करना मुश्किल था कि उसे वहां नशे की तस्करी रोकने के लिए तैनात किया गया था या उगाही के लिए।
वाजे की तरह अभी तक उसके खिलाफ भी कोई कार्रवाई नहीं हुई, पर उसके शिकार युवा लड़के-लड़कियों को राहत (Good Memories) जरूर मिलने लगी है। ये दोनों मामले मुंबई के संगठित अपराध जगत, जिसमें तंत्र से जुड़े सफेदपोश और पारंपरिक अपराधी, दोनों नाभिनालबद्ध हैं, की पहुंच और संभावनाओं की स्पष्ट शिनाख्त करते हैं। देखना यह है कि क्या हमारा प्रभु वर्ग 2021 की इन घटनाओं से सबक लेकर तंत्र और अपराध के गठबंधन पर निर्णायक प्रहार करेगा?
वर्ष समाप्त होते-होते एक चिंताजनक प्रवृत्ति देश के दो हिस्सों में दिखाई दी। मैं इसलिए इन्हें रेखांकित कर रहा हूं कि राष्ट्रीय एकता और सुरक्षा के लिए खतरा होने के बावजूद दोनों मामलों में कानून-व्यवस्था लागू करने वाली संस्थाओं ने वह सब नहीं किया, जिसकी उनसे अपेक्षा की जा सकती है। पंजाब के दो अलग-अलग गुरुद्वारों में सिख धर्म प्रतीकों की कथित बेअदबी के नाम पर दो लोगों को भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला। एक स्थान पर तो ग्रंथी ने ही कह दिया कि बेअदबी का कोई मामला नहीं बनता।
और, यदि बेअदबी हुई भी, तो उससे निपटने के लिए देश में पर्याप्त कानून हैं। यह तो समझ में आता है कि पंजाब में चुनाव करीब होने के कारण राजनीतिक दलों ने अपनी जुबानें बंद रखीं, पर पुलिस ने भी भीड़ के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। अभी हाल में पाकिस्तान के सियालकोट में एक श्रीलंकाई नागरिक को इसी तरह की एक वारदात में जिंदा जला दिया गया। क्या हम भी अपने पड़ोसी के रास्ते पर चल रहे हैं?
धर्म संसद के नाम पर हरिद्वार में हाल में जो हुआ, उसकी गंभीरता का अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि अमूमन राजनीति से दूर रहने वाले सैन्य अधिकारियों ने भी इसे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताया। जो वीडियो सोशल मीडिया पर जारी हुए, वे स्तब्ध करने की हद तक अविश्वसनीय थे।
कई बार देखने के बाद यह विश्वास हुआ कि राष्ट्रीय राजधानी से बहुत दूर नहीं, एक विशाल हॉल में देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ हिंसा का खुलेआम आह्वान किया जा रहा था। ऐसे में, जो उम्मीद की जा सकती थी, उस पर हरिद्वार पुलिस विफल साबित हुई। देखना अब यह है कि भविष्य में यह अपने माथे से कलंक का टीका खुद मिटा पाएगी या यहां भी उसे न्यायिक हस्तक्षेप की जरूरत पड़ेगी?