Development for All : समान नागरिक संहिता के बिना कैसे संभव सबका विकास?
आलोक मेहता। विकास में सबसे बड़ी बाधा क्या है ? राजनेता, अफसर, विदेशी, जाति, धर्म ? नहीं। सबसे बड़ी बाधा है कानून, क्योंकि हमारा महान देश भारत में निराला है, जहाँ सबके लिए कानून समान नहीं हैं । अमेरिका ही नहीं कट्टरपंथी पाकिस्तान, इंडोनेशिया , तुर्की, मिश्र जैसे देशों में समान नागरिक कानून व्यवस्था है। लेकिन भारत में आज़ादी के ७4 साल बाद भी इस मुद्दे पर बहस , विधि आयोग, सरकार, संसद केवल विचार विमर्श कर रही है कि़ समान नागरिक संहिता को क़ानूनी रूप कैसे दिया जाए।
विश्व में ऐसा कौनसा समाज होगा , जिसके नाम पर ठेकेदारी करने वाले मुट्ठी भर लोग बच्चों की अच्छी पढाई का विरोध करते हों, बाल विवाह को श्रेष्ठ मानते हों , किसी भी कानून – अदालत – सरकार से ऊपर मानते हों ? सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस संविधान के आधार पर सब शपथ लेते हैं , जिसके बल पर रोजी – रोटी – कपड़ा – मकान लेते हैं , उस संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 44 में लिखे प्रावधान का पालन अब तक नहीं कर रहे हैं । इसमें स्पष्ट लिखा है समान नागरिक कानून लागू करना हमारा लक्ष्य है। अब उत्तराखंड सरकार ने समान नागरिक आचार संहिता का प्रारुप तैयार करने के लिए पूर्व न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया है। लेकिन तत्काल कुछ नेताओं और संगठनों ने विरोध में आवाज उठा दी है।
निश्चित रूप से आज़ादी से पहले संविधान निर्माता और बाद के प्रारम्भिक वर्षों में भी शीर्ष नेताओं ने यही माना होगा कि कुछ वर्ष बाद संविधान के सभी प्रावधानों को लागू कर दिया जाएगा। उनके इस विश्वास को निहित स्वार्थी नेताओं , संगठनों और कुछ विध्वसकारी तत्वों ने तोड़ा है । नाम महात्मा गाँधी का लेते रहे , लेकिन धर्म और जाति के नाम पर जन सामान्य को भ्रमित कर अँधेरे की गुफाओं में ठेलते रहे । सत्तर वर्षों में दो पीढिय़ां निकल चुकी । आबादी के साथ साधन सुविधाएं बढ़ती गई। वसुधेव कुटुंबकम (Development for All) की बात सही माने में सार्थक हो रही है।
विश्व समुदाय ही नहीं ग्लोबल विलेज की बात हो रही है। केवल जर्मनी का एकीकरण नहीं हुआ, सोवियत रूस, चीन, अफ्रीका तक बहुत बदल चुके। उन देशों में नाम भले ही कम्युनिस्ट पार्टी रह गए हों , लेकिन नियम कानून व्यवस्था और जन जीवन पूरी तरह उदार और पूंजीवादियों से भी एक कदम आगे रहने वाली व्यवस्था लागू हो गई ।भारत ने परमाणु शक्ति सहित हर क्षेत्र में क्रन्तिकारी बदलाव कर लिया। भारत में राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, सेनाध्यक्ष से बड़ा कोई पद है, जो अल्पसंख्यक समाज के सबसे गरीब कहे जा सकने वाले परिवार के व्यक्ति को नहीं मिला ? लेकिन कुछ कट्टरपंथी संगठन, राजनीतिक दल और उनके नेता अल्पसंख्यक समुदाय के साथ सम्पूर्ण देश को अठारहवीं शताब्दी में धकेलने की कोशिश करते रहते हैं।
अब मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को ही लीजिये। यह कोई संवैधानिक संस्था नहीं है। देश के हजारों असली या नकली एन जी ओ यानी गैर सरकारी संगठन है। वह उन नियमों – कानूनों को समाज पर लादने में लगा रहता है, जो ईरान, पाकिस्तान, सऊदी अरब देशों तक में नहीं लागू हैं। फिर भी ऐसे संगठन को राहुल गाँधी की पार्टी के कागजी नेता तरजीह देते हैं। दाक्षिण भारत के ओवेसी और मुस्लिम लीगी नेताओं को चुनाव में कितने वोट और सीटें मिलती हैं ? मनमोहन सिंह और सलमान खुर्शीद के सत्ता काल में अल्प संख्यक मंत्रालय के लिए कागज पर सैकड़ों करोड़ के बजट का प्रावधान किया जाता गया, लेकिन उसका बीस – तीस प्रतिशत भी उन गरीब लोगों पर खर्च नहीं किया गया । ऐसी हालत में यदि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार सम्पूर्ण समाज के विकास के लक्ष्य को पूरा करने के लिए करोड़ों अल्प संख्यको को भी मुफ्त अनाज, शौचालय, मकान, रसोई गैस, शिक्षा, चिकित्सा, कौशल विकास की सुविधाएं देने की कोशिश कर रही है, तो विरोध क्यों होना चाहिए ?
ब्रिटैन, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा जैसे लोकतंत्रक देशों में अल्पसंख्यक समुदाय की अच्छी खासी आबादी है, सरकारों में मंत्री, लंदन में मेयर ब्रिटिश पाकिस्तानी मूल के मुस्लिम नेता सादिक अमन खान हैं, लेकिन वहां तो शरीअत के नियम कानून लागू नहीं कराये जा रहे हैं। दुनिया में मुस्लिम महिलाऐं डॉक्टर, इंजीनियर , पॉयलट तक बन रही हैं और भारत के कठमुल्ला लड़कियों की शिक्षा को हिजाब बुर्के में प्रतिबंधित करने में जुटे हैं। वे क्या समाज और धर्म के नाम पर धोखा और कुठाराघात नहीं कर रहे हैं ? मुस्लिम, सिख, ईसाई अपनी धार्मिक आस्था के अनुसार प्रार्थना-अर्चना करते ही हैं, उनके दैनंदिन जीवन पर किसी नेता या संगठन का अधिकार कैसे हो सकता है ? आअश्चर्य की बात यह है कि भाजपा ने भी अब तक ऐसे कट्टरपंथी तत्वों पर कठोर कार्रवाई नहीं की।
समान नागरिक संहिता तैयार करने के लिए विधि आयोग को जिम्मेदारी दी गई लेकिन वर्षों तक विचार विमर्श के बावजूद उसने गोल मोल सी अंतरिम रिपोर्ट दे दी। राज्य सभा में किरोड़ीमल मीणा ने गैर सरकारी विधयेक पेश करने की कोशिश की, लेकिन कांग्रेस सहित कुछ दलों ने उस पर चर्चा तक नहीं होने दी। एक दशक पहले संविधान संशोधन आयोग भी बना था। लेकिन वोट की राजनीति ने बड़े बदलाव नहीं होने दिए। विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के लिए समयबद्ध कार्यक्रम बन सकता है , सड़क या अन्य निर्माण कार्यों पर अनुबंध की समय सीमा के अनुसार काम न होने पर जुर्माना हो सकता है, तो देश के हर नागरिक के लिए समान कानून का वायदा या जिम्मेदारी सँभालने वालों के लिए भी समय सीमा का प्रावधान क्यों नहीं होना चाहिए ?
इसमें कोई शक नहीं कि समान नागरिक संहिता बनने की लम्बी संवैधानिक प्रक्रिया से पहले देश में समान शिक्षा और स्वास्थ्य नीतियां लागू करने के प्रयास होने चाहिए। भाषाएं विभिन्न हो सकती हैं , लेकिन पाठ्यक्रम, पुस्तकें एक जैसी क्यों नहीं हो सकती हैं ? संघीय ढांचे के नाम पर राज्य सरकारें ही नहीं शैक्षणिक संस्थान तक अलग अलग शिक्षा देने की कोशिश कर रहे हैं। अनावश्यक विवाद उठ रहे हैं। इसी तरह स्वास्थ्य नीति, योजना, सुविधाओं के मुद्दों पर भी मनमानी की जा रही है।
विश्व में (Development for All) अनूठी कही जा सकने वाली आयुष्मान स्वास्थ्य योजना पर दिल्ली और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों को आपत्ति है। गरीब नागरिक को पांच लाख रुपयों का स्वास्थ्य बीमा देने में राजनैतिक पूर्वाग्रह और अड़ंगा लगा दिया गया। दिल्ली में यदि मोहल्ला क्लिनिक की सुविधा को बड़ा आदर्श होने का दावा किया जा रहा है। लेकिन इसके रहते हुए भी आयुष्मान बीमा का लाभ क्यों नहीं दिया जाना चाहिए। मोहल्ला क्लिनिक तो प्राथमिक चिकित्सा केंद्र की तरह है।