Defection Game : चुनावी बेला में दल-बदल का खेल
डॉ. श्रीनाथ सहाय। Defection Game : देश के जिन पांच राज्यों में फरवरी-मार्च में चुनाव होने हैं, उनमें यूपी सबसे अहम प्रदेश है। यहां से 80 सांसद और 403 विधायक चुने जाते हैं, लिहाजा उप्र के चुनाव को 2024 के आम चुनाव के लिहाज से भी अहम माना जाता है। यूपी में फिलहाल भाजपा की सरकार है। अभी तक जितने भी चुनावी विश्लेषण, आकलन और सर्वेक्षण सामने आए हैं, उनमें भाजपा की बढ़त दिखाई गई है। अलबत्ता समाजवादी पार्टी उसे तगड़ी चुनौती पेश कर रही है।
चुनाव का मौसम आया है, तो दलबदल और पालाबदल भी स्वाभाविक है। भारतीय राजनीतिक व्यवस्था की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता और दोष दल-बदल है। राज्यों की राजनीति व शासन में दल-बदल ने इतनी अस्थिरता उत्पन्न कर दी है कि संसदीय लोकतन्त्र का अस्तित्व ही खतरे में दिखाई देता है। अगस्त, 1984 में आन्ध्र प्रदेश तथा अक्टूबर, 1997 में उत्तर प्रदेश में जो कुछ हुआ, वह इसका उदाहरण है।
वैसे तो भारतीय राजनीति में सन् 1952 से ही दल-बदल की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गई थी जब मद्रास के राज्यपाल ने कांग्रेसी नेता जगोपालाचारी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया और उन्होंने 16 विधायकों को कांग्रेस में मिलाकर सरकार बनाई। परन्तु सन् 1967 के आम चुनावों के बाद से तो दल-बदल अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई। मार्च, 1967 से दिसम्बर, 1970 तक 4,000 विधायकों में से 1,400 विधायकों ने दल बदले, फलस्वरूप प्रान्तों में नई सरकारें बनती रहीं, टूटती रहीं और राष्ट्रपति शासन लागू होता रहा। कारण यह था कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् पहली बार सन् 1967 में कई राज्यों में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला।
अत: सत्ता प्राप्ति के लिए कांग्रेस तथा संविद, दोनों ने ही दल-बदल (Defection Game) को प्रोत्साहन दिया और फिर तो जैसे राजनीतिक दल-बदल को मानो राजनीतिक मान्यता ही मिल गई हो। यद्यपि दल-बदल विदेशों में भी होता है, वहां केवल विधायक के राजनीतिक विचारों में परिवर्तन व दल से मौलिक मतभेद के कारण दल-बदल होता है। भारत की तरह केवल अपने व्यक्तिगत स्वार्थ या कुर्सी पाने के लिए ‘दल-बदलÓ नहीं होता है।
पिछले दिनों योगी आदित्यनाथ की कैबिनेट में श्रम एवं रोजगार मंत्री रहे स्वामी प्रसाद मौर्य और वनमंत्री दारा सिंह चैहान का अचानक मंत्री पद से इस्तीफा देना और फिर कुछ विधायकों समेत भाजपा छोडऩे की खबर बेहद गौरतलब है, क्योंकि मौर्य को अति पिछड़ों का सबसे बड़ा नेता माना जाता है।
यकीनन इस पालाबदल से भाजपा के चुनावी समीकरणों को झटका लगा होगा! पार्टी के बड़े नेता नुकसान की भरपाई में जुटे हैं, लिहाजा कई नाराज विधायकों को मनाने की कवायद जारी है। हालांकि मौर्य का दावा है कि उनके साथ कुछ और मंत्री तथा 10-12 विधायक भाजपा छोड़ कर आ सकते हैं। इन असंतुष्ट नेताओं के सपा में शामिल होने की खबरें हैं, हालांकि औपचारिकता शेष है। कभी योगी कैबिनेट में रहे ओमप्रकाश राजभर का दावा है कि भाजपा के करीब 150 विधायक सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और उनके संपर्क में हैं।
कुछ मंत्री भी रात के अंधेरे में उनसे मुलाकात करने आते रहे हैं। उप्र में शरद पवार की पार्टी एनसीपी का कोई आधार नहीं है, फिर भी वह दावा कर रहे हैं कि 13 और विधायक भाजपा को अलविदा कह सकते हैं। बहरहाल ये तमाम बयान दबाव की राजनीति का हिस्सा हो सकते हैं, लेकिन दलबदल कोई असामान्य घटना नहीं है।
1979 में जब भजनलाल ने दलबदल कर हरियाणा की पूरी सरकार को ही बदल दिया था, तो वह दलबदल की सबसे बड़ी घटना थी। उसके बाद दलबदल विरोधी कानून संसद ने पारित किया। फिर 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने उसमें बड़ा संशोधन किया। उसके बावजूद दलबदल जारी रहा है। एडीआर की एक रपट के मुताबिक, 2016-21 के बीच 357 विधायकों ने दलबदल के बाद चुनाव लड़े। उनमें से 170 ही चुनाव जीत पाए।
दलबदल (Defection Game) करने के बाद 12 नेताओं ने लोकसभा चुनाव लड़ा, लेकिन सभी पराजित हो गए। चूंकि राज्यसभा चुनाव विधायकों की संख्या के आधार पर तय होते हैं, लिहाजा सभी 16 दलबदलू चुनाव जीत कर सांसद बन गए। खुद स्वामी प्रसाद मौर्य का दलबदल का इतिहास रहा है। 1980 में वह लोकदल के जरिए सियासत में आए, लेकिन जनता दल, बसपा और भाजपा में रहने के बाद अब वह सपा की दहलीज पर खड़े हैं।
जब 2016 में वह बसपा छोड़ कर भाजपा में आए थे, तब वह बड़ी खबर थी, क्योंकि बसपा में वह मायावती के बाद नंबर दो के स्थान पर थे और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष थे। बहरहाल उप्र चुनाव में इन दलबदलुओं के कारण भाजपा का सफाया हो जाएगा, यह बिल्कुल बचकाना और अपरिपक्व निष्कर्ष है।
दरअसल 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद दलित, पिछड़े और अति पिछड़ों के वोट बैंक भाजपा के साथ जुड़े हैं। उप्र के 2017 विधानसभा चुनावों में गैर-यादव ओबीसी के करीब 61 फीसदी वोट भाजपा के पक्ष में आए थे। यह बेहद महत्त्वपूर्ण आंकड़ा है। उप्र में जाटव दलितों का अधिकांश समर्थन आज भी मायावती और बसपा के पक्ष में है, लेकिन गैर-जाटव दलितों की पहली राजनीतिक पसंद सपा के बजाय भाजपा है।
यह जनादेश साबित करते रहे हैं। भाजपा के पक्ष में सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि उसके नेता और कार्यकर्ता अभी तक करीब 50 लाख लोगों से उनके घर-घर जाकर संपर्क कर उन्हें अपने पाले में कर चुके हैं। भाजपा-संघ ने बूथ स्तर तक की रणनीति को अंजाम देकर उसके नतीजे देख लिए हैं। सबसे बढ़कर बेरोजगारी, महंगाई, अपराध, किसान आंदोलन आदि चुनाव के मुद्दे नहीं बन पा रहे हैं।
गांव और गरीब के स्तर पर प्रधानमंत्री अन्न योजना के तहत नि:शुल्क अनाज, पेंशन, पक्के मकान, शौचालय आदि जन कल्याणकारी योजनाओं से लोग बहुत खुश हैं। संतुष्ट हैं कि कोरोना महामारी के काल में भी कमोबेश उनके घर का चूल्हा तो जल रहा है। अयोध्या, काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के बाद मथुरा के श्रीकृष्ण मंदिर के जरिए हिंदुत्व का मुद्दा भी भाजपा के पक्ष में है।
अब मुलायम सिंह यादव के समधी भी भाजपा में आ गए हैं। यद्यपि सरकार की स्थिरता एक मुद्दा है इसके लिये पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र को मजबूत करना होगा जिससे पार्टी विखंडन की घटनाओं को रोका जा सके। भारत में राजनीतिक दलों को नियंत्रित करने वाले कानून की प्रबल आवश्यकता है। इस तरह के कानून में राजनीतिक दलों को आरटीआई के तहत लाया जाना चाहिये, साथ ही पार्टी के भीतर लोकतंत्र को मजबूत करना चाहिये।