संस्कृत से ही भारतीय संस्कृति की रक्षा संभव: डॉ. संजय शुक्ला
देश (Country) में प्रतिवर्ष श्रावण पूर्णिमा तिथि (Shravan poornima date) को राष्ट्रीय संस्कृत दिवस (National Sanskrit Day) के रूप में मनाया (celebrated) जाता है। इस वर्ष यह अवसर संस्कृत भाषा के लिए नयी उम्मीदें लेकर आया है। गत सप्ताह केंद्र सरकार द्वारा घोषित नयी शिक्षा नीति 2020 अंतर्गत प्राथमिक स्कूल में त्रिभाषा फार्मूला में संस्कृत के साथ तीन भाषाओं को शामिल किया गया है तथा अब यह भाषा हर स्तर मेंं उपलब्ध होगा।
बहरहाल भाषा किसी देश की बौद्धिक संपदा और धरोहर होती है, प्राचीन भारत में देश की पहचान संस्कृत भाषा से रही है। अतीत में शिक्षा, धर्म, वेदों-पुराणों, अध्यात्म, दर्शन, साहित्य, विज्ञान,अर्थतंत्र, गणित, ज्ञान-विज्ञान, चिकित्सा-औषधि, योग, अभियांत्रिकी, खगोलशास्त्र, ज्योतिष, प्रशासन, परंपरा, रस्म-रिवाज, प्रशासन और न्याय व्यवस्था का माध्यम संस्कृत ही रहा है। भारत बल्कि दुनिया की सबसे प्राचीन चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद के आचार्यों ने सभी संहिता ग्रंथों की रचना संस्कृत भाषा में ही की थी।
यह अतिश्योक्ति नहीं होगी कि संस्कृत दुनिया की सबसे समृद्ध भाषा है जिसने देश और दुनिया की कई भाषाओं को जन्म दिया है । यह भाषा व्यक्ति में दिव्य व्यक्तित्व और नैतिक मूल्यों का प्रादुर्भाव कर उसमें आत्मचेतना, आत्मबल, बुद्धि और सात्विकता की बढ़ोतरी करता है, इसलिए इसे ‘देववाणी’ या ‘सुरवाणी’ भी कहते हैं। संस्कृत भाषा मानसिक तनाव और अवसाद से भी उबारता है, इस भाषा के आध्यात्मिक मंत्रों, श्लोकों व भजनों के उच्चारण और श्रवण से मानसिक राहत मिलती है और साकारात्मक भाव पैदा होता है। गौरतलब है कि यह भाषा आधुनिक विज्ञान के कसौटी पर भी शत प्रतिशत खरा साबित हुयी है।
संस्कृत का रिश्ता भारत की उस अनूठी संस्कृति, परंपरा और संस्कारों से रही है जिसके मूल में वसुधैव कुटुम्बकम की भावना है जो आज के दौर में सबसे ज्यादा प्रासंगिक है। बहरहाल आधुनिक विकास और विचार की आंधी ने देश की पुरानी सभ्यता और संस्कृति के साथ – साथ संस्कृत को भी हाशिये पर ढकेलने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
आलम यह है कि आज का अभिभावक और छात्र इस भाषा को पिछड़ेपन की दुरूह भाषा समझने लगे हैं। ऐसा नहीं है कि देश में संस्कृत भाषा के संरक्षण और संवर्धन के लिए केंद्र और राज्य सरकारों ने कोई प्रयास नही किया है।संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल 22 भाषाओं मेंं संस्कृत को भी स्थान दिया गया है, जिसके तहत इस भाषा को संंसदीय परंपराओं सहित अन्य संस्थाओं में संवैधानिक मान्यता है।
इसके अलावा कई राज्यों में संस्कृत आयोग व विद्यामंडल गठित हैं और राजकीय सम्मान की भी व्यवस्था है परंतु यह प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं।उक्त परिस्थितियाँ साबित करती है कि भारत की सदियों पुरानी बौद्धिक संपदा, संस्कृति, साहित्य और परंपराओं के माध्यम रही इस भाषा के अवनति के लिए हमारी प्रशासनिक और सामाजिक व्यवस्था ही जिम्मेदार है।
दरअसल संस्कृत की उपेक्षा के लिये देश की शिक्षा व्यवस्था जिम्मेदार रही है जो अंग्रेजीदां नौकरशाहों के हाथों की कठपुतली है। पूर्व मेंं प्राथमिक शिक्षा में जहाँ संस्कृत का समावेश नहीं है वहीं माध्यमिक शिक्षा में त्रिभाषा फार्मूला में यह भाषा हिंदी और अंग्रेजी के बाद कौशल विकास भाषा के रूप में भी स्वीकार नहीं था। बहरहाल नयी शिक्षा नीति से आस बंधी है कि अब संस्कृत भाषा के साथ न्याय होगा लेकिन राह अभी भी मुश्किलों भरा है।
गौरतलब है कि स्कूलों में इस विषय के पारंगत और अनुभवी शिक्षकों का भारी टोटा है आलम यह है कि हिंदी और अन्य विषयों के शिक्षक इस विषय की पढ़ाई कराकर औपचारिकता निर्वहन कर रहे हैं। फलस्वरूप आज की पीढ़ी में इस भाषा के प्रति रुचि नहीं है, वे ऐन केन प्रकारेण इस विषय में पास होकर अपना पीछा छुड़ाने की मानसिकता में रहते हैं। प्राथमिक शिक्षा में संस्कृत की उपेक्षा का परिणाम उच्च शिक्षा से संबंधित कालेजों में परिलक्षित हो रहा है, कालेजों मेंं भी संस्कृत के विशेषज्ञ शिक्षकों की भारी कमी है।
गौरतलब है कि देश मेंं एक दर्जन से ज्यादा संस्कृत विश्वविद्यालय हैं वहीं अनेक कालेजों मेंं इस भाषा के विभाग हैं लेकिन यहाँ भी शिक्षकों और अन्य संसाधनों जैसे पुस्तकालय में ग्रंथों, पुस्तकों व साहित्य सहित अन्य कमियाँ हैं फलस्वरूप अध्ययन और शोध गतिविधियां प्रभावित हो रही हैं।प्रदेश के राजधानी रायपुर स्थित इकलौते सरकारी संस्कृत कालेज में संस्कृत भाषा के विशिष्ट पाठ्यक्रम बीए और एमए क्लासिक्स उपाधि की पढ़ाई की व्यवस्था है जो शास्त्री और आचार्य के समतुल्य है यह पाठ्यक्रम देश में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में भी संचालित है।छात्रों की घटती रुचि के कारण इस कालेज में छात्रों का दाखिला लगातार कम हो रहा है।
संस्कृत भाषा के शिक्षण और परीक्षा व्यवस्था में हिंदी भाषा को शामिल करने से भी इस भाषा के गुणवत्ता और शिक्षकों की दक्षता में गिरावट आयी है। आलम यह है कि हिंदी या अन्य विषयों के विशेषज्ञता प्राप्त शिक्षक संस्कृत का भी अध्यापन करता है। कुछ अर्सा पहले संस्कृत विषय के परीक्षार्थियों द्वारा प्रश्नों का उत्तर हिंदी मे देने तथा इस भाषा के उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन गैर संस्कृत भाषा शिक्षकों द्वारा किए जाने का मामला प्रकाश मे आया था। उम्मीद है परिस्थितियाँ बदलेंगी और शिक्षा और परीक्षा के स्तर मेंं गुणात्मक सुधार परिलक्षित होगा।
बहरहाल आज शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य अच्छी नौकरी हासिल करना हो तब संस्कृत भाषा में रोजगार के अनेक अवसर मौजूद हैं। संघ लोक सेवा आयोग के सिविल सेवा परीक्षाओं में संस्कृत भाषा को शामिल किया गया है। इस लिहाज से संस्कृत के शिक्षण और कोचिंग व्यवसाय में संभावनाएं हैं। धार्मिक कर्मकांड, पौरोहित्य, वैदिक प्रवचन, सैद्धांतिक ज्योतिषी, यज्ञ, अनुष्ठान, पंचांग गणना और जन्म कुण्डली निर्माण क्षेत्र में भी रोजगार की संभावनाएं लगातार बढ़ रही है।
आयुर्वेद कालेजों, उच्च शिक्षा से संबंधित विश्वविद्यालयों व कालेजों , स्कूलों में संस्कृत शिक्षकों के रूप में नियुक्ति के अवसर उपलब्ध हैं।आकाशवाणी और दूरदर्शन में समाचार वाचक और अनुवादक के रूप में संभावनाएं हैं। आश्चर्यजनक है कि भारत में जहाँ लोगों का संस्कृत से जुड़ाव खत्म हो रहा है वहीं विदेशों में इसके प्रति रूझान बढ़ा है। जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन ,अमेरिका, इटली, स्वीटजरलैंड सहित अनेक यूरोपीय व पश्चिमी देशों मेंं प्रसिद्ध संस्कृत साहित्य अभिज्ञान शाकुंतलम, भर्तृहरि और श्रीमद् भागवत सहित अनेक वेदों का स्थानीय भाषा मेंं अनुवाद, संस्कृत व्याकरण और भाषा मेंं शोध हो रहे हैं। जर्मनी की 14 विश्वविद्यालयों मे संस्कृत की पढाई हो रही है वहीं अनेक देशों मे समर क्लास लग रही है।
विचारणीय है कि दुनिया के कई देशों के यूनिवर्सिटी और कालेजों विद्वानों और आधुनिक भाषाविदों ने संस्कृत को पूर्ण वैज्ञानिक माना है। अमरीकी अंतरिक्ष सेंटर नासा ने संस्कृत को कम्प्यूटर और अंतरिक्ष विज्ञान के लिये कारगर माना है। यह ऐसी भाषा है जिसका अर्थ और अनुवाद अंतरिक्ष में भी नहीं बदलता जबकि अंग्रेजी सहित सभी भाषाएं इस मानक में सटीक नहीं है।
नासा अपने वैज्ञानिकों को इस भाषा के अध्ययन और प्रशिक्षण के लिए भारत के संस्कृत विद्वानों की सेवाएं ले रहा है। बहरहाल सरकार और समाज को संस्कृत के प्रति जारी उपेक्षात्मक रवैये को त्याग कर इस भाषा के संरक्षण और संवर्धन की दिशा में आगे बढऩा होगा क्योंकि यह देश की अस्मिता और संस्कृति से जुड़ा है। वर्तमान परिवेश में जारी नैतिक मूल्यों के अवमूल्यन और अपसंस्कृति के बढ़ते प्रभाव के दृष्टिगत संस्कृत को शिक्षाप्रणाली के मुख्य धारा में शामिल किया जाना राष्ट्रहित में है।
लेखक शासकीय आयुर्वेद कालेज, रायपुर में सहायक प्राध्यापक हैं। 94252 13277