Controversy : फिर सवालों के घेरे में राजद्रोह कानून
डॉ. ओ.पी. त्रिपाठी। Controversy : महाराष्ट्र में हनुमान चालीसा पढऩे को लेकर ऐसा विवाद हुआ कि महाराष्ट्र के अमरावती से निर्दलीय सांसद नवनीत राणा और उनके विधायक पति को जेल जाना पड़ा। महाराष्ट्र सरकार के इस कदम पर भाजपा ने सवाल खड़ा किया है कि हनुमान चालीसा का पाठ करना कब से राजद्रोह हो गया? वैसे, राजद्रोह के आरोप का यह कोई पहला मामला नहीं है। हाल के वर्षों में कई लोगों पर राजद्रोह के आरोप लगे तो काफी विवाद हुआ। आम लोगों पर केस की जानकारी तो सबको नहीं हुई लेकिन जब राजनीतिक हस्तियों पर आरोप लगे तो हंगामा हो गया। महाराष्ट्र ही नहीं, पूरे देश में इस बात की चर्चा है कि आखिर राजनीतिक विरोध का मामला राजद्रोह तक कैसे पहुंच गया?
बहरहाल अदालती जिरह और मामले अब अदालतें ही तय करेंगी, लेकिन हमारा सवाल अलग है कि क्या एक निर्वाचित सांसद को ‘देशद्रोही’ करार दिया जा सकता है? यदि सांसद ही ‘राजद्रोही’ है, तो फिर संसद में क्यों है? मुंबई पुलिस ने राणा दंपति के खिलाफ ‘राजद्रोह’ का केस भी धारा 124-ए के तहत दर्ज किया है। पुलिस ने यह केस अलग से दर्ज किया है। साफ है कि मुख्यमंत्री दफ्तर से आदेश मिले होंगे, तो ‘देशद्रोह’ भी चस्पा कर दिया गया।
एक सांसद हमारे गणतंत्र के बुनियादी स्तंभ ‘विधायिका’ का अंतरंग हिस्सा होता है। वह कानून-निर्माता है। क्या नवनीत राणा ने महाराष्ट्र और देश की संप्रभुता, एकता, अखंडता और व्यवस्था को खंडित किया है? सवाल यह भी गंभीर है कि क्या ‘हनुमान चालीसा’ के पाठन की बात कहना ही ‘देशद्रोह’ है? यदि ऐसा है, तो एक राजनीतिक के तौर पर उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्रियों को ‘चप्पल’ मारने तक के बयान दे चुके हैं। अब सवाल उठ रहे हैं कि क्या बयानबाजी पर राजद्रोह के आरोप लगना ठीक है?
इस पर अक्सर बहस होती रहती है कि अंग्रेजों के समय के कानून की आज के समय में क्या जरूरत है। भाजपा ने महाराष्ट्र सरकार में शिवसेना की सहयोगी कांग्रेस पर हमला करते हुए कहा है कि 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस ने वादा किया था कि अगर वह सत्ता में आएगी तो राजद्रोह के कानून को समाप्त कर देगी। भाजपा प्रवक्ता ने तंज कसते हुए कहा कि कांग्रेस राज्य सरकार का हिस्सा है और आज भी उसी कानून का इस्तेमाल कर रही है। शिवसैनिक न जाने कितने हुड़दंग सार्वजनिक जीवन में मचा चुके हैं! क्या उन्हें भी ‘राजद्रोही’ करार दे देना चाहिए? बीते दिनों देश के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस रमन्ना जेल में पुलिस की ज्यादतियों पर टिप्पणी कर चुके हैं।
भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए में राजद्रोह को परिभाषित (Controversy) किया गया है। भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए के अनुसार, कोई भी व्यक्ति अगर अपने शब्दों बोलने या लिखने से या फिर अपने इशारों या अपने स्पष्ट व्यवहार से नफरत या निंदा की कोशिश या भारत की विधि-व्यवस्था द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ असंतोषध्रोष व्यक्त या जागृत करता है, और दोषी पाया जाता है, तो उस पर (आजीवन कारावास) और जुर्माने की सजा लागू होगी।
यह अंग्रेजों के समय का कानून है। 1870 में इसे लागू किया गया था। तब बरतानिया हुकूमत के खिलाफ बोलने या काम करने के आरोप में राजद्रोह लग जाता था। केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 124-ए के बारे में कहा था कि इस प्रावधान का इस्तेमाल अव्यवस्था पैदा करने की मंशा या प्रवृत्ति, या कानून और व्यवस्था की गड़बड़ी, या हिंसा के लिए उकसाने वाले कार्यों’ तक सीमित होना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एन.वी. रमण की अध्यक्षता वाली पीठ कह चुकी है कि यह महात्मा गांधी, तिलक को चुप कराने के लिए अंग्रेजों की ओर से इस्तेमाल किया गया एक औपनिवेशिक कानून है। आजादी के 75 साल बाद भी क्या यह जरूरी है? कोर्ट ने इसके दुरुपयोग को लेकर चिंता जताई है लेकिन इस्तेमाल अब भी जारी है। संसद में बताया गया था कि साल 2020 में राजद्रोह के 70 से अधिक मामले सामने आए। 2019 में राजद्रोह के 93 मामले दर्ज किए गए जिनमें 96 लोगों को गिरफ्तार किया गया।
2020 में हार्दिक पटेल को राजद्रोह मामले में गिरफ्तार किया गया था। उन्हें तीन दिन जेल में रहना पड़ा और फिर उन्हें जमानत मिली। हार्दिक पटेल के खिलाफ पाटीदार आरक्षण रैली के बाद हिंसा के मामले में दायर राजद्रोह के मामले में गैर जमानती वारंट जारी किया गया था। मामला 2015 का था, तब रैली के बाद राज्य में तोडफ़ोड़ और हिंसा हुई थी। पुलिस ने चार्जशीट में हार्दिक पर हिंसा फैलाने और चुनी हुई सरकार को गिराने का षड्यंत्र करने का आरोप लगाया था।
पिछले साल मई में आंध्र प्रदेश पुलिस ने दो तेलुगू न्यूज चैनलों- टीवी 5 और एबीएन चैनल के खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा दायर किया था। इन चैनलों पर आरोप है कि उन पर प्रसारित कार्यक्रमों के दौरान लोक सभा सांसद रघुराम कृष्णम राजू ने राज्य सरकार और मुख्यमंत्री वाई एस जगनमोहन रेड्डी की आलोचना की थी।
गौर करने वाली बात यह है कि 1962 के अदालत के फैसले में कहा गया था कि राजद्रोह कानून का इस्तेमाल केवल विशेष परिस्थिति में ही किया जा सकता है खासकर जब देश की सुरक्षा और संप्रभुता खतरे में हो। हालांकि अक्सर ऐसे आरोप लगते रहते हैं कि इस कानून का इस्तेमाल सरकार विरोधी राजनीतिक पार्टियों के नेताओं को खामोश करने के लिए करती है, जिससे वे सरकार के खिलाफ गुस्सा या असंतोष जाहिर न कर सकें। नवनीत राणा के केस में भी यही कहा जा रहा है। पिछले एक दशक में 405 राजद्रोह के केस दर्ज किए गए हैं।
पिछले 8 सालों का रेकॉर्ड देखिए तो मात्र तीन प्रतिशत मामलों में ही आरोप सिद्ध हो पाए। इससे जनता में यही संदेश गया है कि संबंधित राज्य के अधिकारी और पुलिस इस राजद्रोह कानून का इस्तेमाल लोगों में भय का माहौल बनाने और सरकार के खिलाफ अंसतोष को कुचलने के लिए करते हैं। यह एक तरह से सियासत में ‘बदलापुर’ की तरह लगता है।
इस अंग्रेजी कानून के विरोधी (Controversy) स्वतंत्रता सेनानी, नेता, लेखक, शिक्षाविद के.एम. मुंशी ने कहा था कि ऐसे कानून भारत के लोकतंत्र पर बहुत बड़ा खतरा हैं। उनका कहना था कि किसी भी लोकतंत्र की सफलता का राज उसकी सरकार की आलोचना में है। उनकी कोशिशों से संविधान से राजद्रोह शब्द को हटाया गया लेकिन आजाद भारत की पहली सरकार ने पहले संशोधन के बाद ही फिर से देश में लागू कर दिया।