छत्तीसगढ़ : किसान आंदोलनों की दशा और दिशा : डॉ. संजय शुक्ला
केन्द्र सरकार द्वारा संसद के पिछले सत्र में तीन कृषि विधेयक पारित किए जाने के विरोध में पंजाब और हरियाणा के किसानों का उग्र आंदोलन अब थमने के कगार पर है। गौरतलब है कि जहांॅ केन्द्र सरकार इस विधेयक को ऐतिहासिक बताते हुए कृषि क्षेत्र में सुधार का दावा कर रही है तो कांग्रेस सहित अनेक विपक्षी दल इसे किसानों के साथ छलावा बता रहे हैं।
छत्तीसगढ़ के भूपेश बघेल सरकार ने केन्द्र सरकार के इस कृषि विधेयक को किसान विरोधी बताते हुए राज्य के किसानों के लिए नया कानून बनाने की घोषणा की है। दरअसल आज किसानों के सामने सबसे बड़ी चुनौती उनके फसलों का वाजिब दाम मिलना है। नये केन्द्रीय किसान कानून से देश के किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी), मंडी व्यवस्था (एपीएमसी) और कॉंटेऊक्ट खेती के बारे में सरकार से सशंकित है।
विचारणीय है कि सरकार द्वारा हर साल गेहंूॅ, धान, दाल सहित 23 फसलों के लिए एमएसपी की घोषणा है लेकिन किसान केवल धान व गेहूंॅ ही इस दर पर बेच पाते हैं। वर्ष 2014 में बनी शांता कुमार कमेटी ने अपने रिपोर्ट में कहा था कि देश के महज छ: फीसदी किसान ही एमएसपी पर अपना फसल बेच पाते हैं यानि 94 फीसदी किसान बाजार पर ही निर्भर है जहांॅ उन्हें एमएसपी से कम दाम पर अपना उपज बेचना पड़ता है। इस लिहाज से किसान संगठनों की मांग है कि सरकार ऐसा कानून बनाए जिसमें एम.एस.पी. से कम पर खरीदी न हो, हालांॅकि यह कानून अभी दूर की कौड़ी है।
बहरहाल इन किसान आंदोलनों के पृष्ठभूमि में यह विचार लाजिमी है कि आखिरकार इन आंदोलनों से किसानों को हासिल क्या हुआ है? किसानों का आंदोलन सियासत की भेंट क्यों चढ़ जाती है? यदि बीते सभी किसान आंदोलनों का विश्लेषण करें तो अमूमन सभी आंदोलन सरकार के आश्वासन के झुनझुने में बेनतीजा ही खत्म हो गए। गौरतलब है कि देश में किसान आंदोलनों का इतिहास बहुत पुराना है 18 वीं सदी से लेकर आजादी के आंदोलन के दरमियान अनेक किसान आंदोलन हुए जिसमें महात्मा गांधी, सरदार वल्लभ भाई पटेल सहित अनेक सत्याग्रहियों ने किसानों को अंग्रेजी शोषण से बचाने के लिए आंदोलन चलाया था।
अखिल भारतीय स्तर पर किसान आंदोलन का जनक स्वामी सहजानंद सरस्वती को माना जाता है जिन्होंने 1936 में अखिल भारतीय किसान सभा का गठन कर किसानों के शोषण के खिलाफ संघर्ष किया। हालॉंकि उपरोक्त आंदोलनों के पृष्ठभूमि में अंग्रेजी हूकूमत और जमींदारी प्रथा का विरोध ही प्रमुख था।
स्वतंत्र भारत में अनेक ऐसे नेता हुए जिनकी पृष्ठभूमि किसान नेता की रही जिसमें प्रमुख सरदार वल्लभ भाई पटेल, चैधरी चरण सिंह, चैधरी देवीलाल, स्वामी इंद्रवेश, प्रकाश सिंह बादल, बलदेव राम मिर्धा, नाथूराम मिर्धा, कुंभाराम आर्य, शरद अनंतराव तोशी एवं अजीत सिंह है। कालांतर में इनमें से कई किसान नेता किसी न किसी राजनीतिक दल से जुड़कर सत्ता के शिखर पर पहुंॅचे लेकिन इसके बावजूद किसान और कृषि की दशा व दिशा में कोई सुधार नहीं आया। छत्तीसगढ़ में हुए किसान आंदोलनों पर नजर डालें तो यह अंचल भी किसान आंदालेनों से अछूता नहीं रहा है आजादी के बाद सन् 1952 में स्व.खूबचंद बघेल ने किसानों के समस्याओं पर किसानों आंदोलन चलाया था जिसमें उनके समकालीन माटी पुत्रों ने सहभागिता दर्ज की थी।
इसी प्रकार आदिवासी किसानों के जल, जंगल और जमीन की हक के लिए राजनांदगांव जिले के मोहला-मानपुर के लाल श्यामसिंह ने आदिवासी किसान आंदोलन का आगाज किया था। सन् 1975 में अकाल की विभीषिका के समय राज्य सरकार द्वारा घोषित अनिवार्य लेव्ही नीति के विरोध में छ.ग. खेतिहर संघ के बैनर तले स्व.जीवनलाल साव, स्व.रामलाल चंद्राकर एवं स्व.भूषण लाल चंद्रनाहू जैसे किसान नेताओं ने किसान आंदोलन चलाया था जिसके तहत ”छत्तीसगढ़ बंदÓÓ भी हुआ इस आंदोलन में अंचल के आनंद मिश्रा, यशवंत राव मेघावाले तथा चंद्रशेखर साहू सहित अनेक नेताओं ने हिस्सा लिया हालांॅकि इस आंदोलन को भी पूर्व रूपेण गैर राजनीतिक करार नहीं दिया जा सकता।
दूसरी ओर देश में महेन्द्र सिंह टिकैत ही ऐसे किसान नेता हुए जिनकी छवि पूर्णरूपेण गैर राजनीतिक रही तथा उनकी पश्चिमी उत्तरप्रदेश सहित हरियाणा के जाटों में अच्छी-खासी पैठ रही है। टिकैत के नेतृत्व में भारतीय किसान यूनियन के झंडे तले उत्तर प्रदेश एवं देष के अन्य हिस्सों में अनेक किसान आंदोलन हुए जो पूर्णरूपेण गैर राजनीतिक थे तथा इन आंदोलनों के सामने सरकार को भी झुकना पड़ा था। आज आवश्यकता ऐसे ही किसान नेता की है जो किसानों के आंदोलन को नयी दिशा दे सके।
बहरहाल अब तक देश एवं प्रदेश में हुए किसान आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में यह प्रश्न बार-बार पैदा होता है कि जिस देश में कृषि एवं कृषि रोजगार से जुड़े लोगों की आबादी 60 फीसदी से ज्यादा है वहांॅ के किसान अपनी मॉंगो व समस्याओं के निपटारे के लिए राजनीतिक दलों के दामन थामने के लिए क्यों मजबूर है? देश की आजादी के 70 वर्षों बाद भी किसान बिरादरी इतना सक्षम और सशक्त क्यों नहीं हो पाया कि वह अपने बल पर देश व राज्य में एक सर्वमान्य गैर राजनीतिक किसान संगठन खड़ा कर सके? जबकि उद्योग, व्यवसाय से लेकर दिहाड़ी मजदूरों व फुटपाथ पर गुमटी लगाने वालों के भी मजबूत व गैर राजनीतिक स्वतंत्र संगठन है।
इसका उत्तर शायद देश की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियां ही है जिसके चलते किसान न तो संगठनात्मक रूप से मजबूत हो पाया और न वैचारिक रूप से जागृत हो पाया है। किसान आंदोलनों के बेअसर होने और दूरलक्षी प्रभाव नहीं पडऩे का प्रमुख कारण राजनीतिक और आर्थिक है। दरअसल देश में बड़े मझोले और छोटे जोत वाले किसान है जिनकी अपनी जरूरतें हैं अपनी मजबूरियांॅ है जिसके कारण किसान आंदोलन राजनीति पर स्थायी प्रभाव नहीं डाल पा रही है। चुनावी राजनीति वाले लोकतंत्र में वोट बैंक की प्रमुख भूमिका होती है लेकिन किसान संगठन ऐसे किसी भी भूमिका में नहीं है कि वे अपने दम पर चुनावों को प्रभावित कर सके बल्कि यह राजनीतिक दलों पर निर्भर कर रहा है कि वह किन लुभावने वादों के दम पर किसानों का वोट हथियाते हैं।
मतलब साफ है कि राजनीतिक दल किसानों को अपने पक्ष में वोट डालने के लिए मजबूर करते हैं न कि किसान सियासी दलों को मजबूर कर पा रहे हैं। विडंबना है कि किसान कर्जमाफी, बोनस, समर्थन मूल्य में मामूली बढ़ोतरी जैसे तत्कालिक लाभ को प्राथमिकता देने में लगे हैं। इन परिस्थितियों में अहम सवाल यह है कि क्या इन मामूली राहतों से देश का किसान और किसानी मजबूत हो सकेगा? क्या ऐसी कदमों से खेती लाभ का सौदा बन पाएगा? क्या ऐसी आर्थिक मदद से किसान परिवारों का आर्थिक व सामाजिक विकास संभव हो सकेगा?
क्या इन राहतों से किसानों की आत्महत्या रूक पाएगी? इन प्रश्नों का जवाब किसान और किसान संगठनों को ही ढूंॅढना होना होगा। आत्मनिर्भर भारत के लिए सबसे पहले किसान को आत्मनिर्भर व आत्मविश्वासी बनाना होगा तभी नया भारत का सपना साकार हो सकेगा।
(लेखक शासकीय आयुर्वेद महाविद्यालय, रायपुर में सहायक प्राध्यापक हैं। मोबा. नं. 94252-13277)