Character of Taliban : क्या तालिबान का चरित्र बदल रहा है?

Character of Taliban : क्या तालिबान का चरित्र बदल रहा है?

Character of Taliban: Is the character of Taliban changing?

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नीरज मनजीत : Character of Taliban : इक्कीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों की बात है। अफग़़ानिस्तान के हालात पर एक रिपोर्ट तैयार करने गए यूरोप के एक पत्रकार ने तालिबानी लीडर से पूछा, “इस नयी सदी में क्या अब भी आप सोचते हैं कि पृथ्वी चपटी है ?” जवाब बेहद दिलचस्प था,”भाई साहब, फ़रिश्तों की बनाई हमारी पृथ्वी तश्तरी की तरह गोल और चपटी ही है।

साइंसदाँ और तुम्हारी किताबें दुनियावी बातें बोलती हैं, जबकि हमारी पाक़ पुस्तक शाश्वत बातें कहती है। हम ना तो दुनियावी बातों में फँसने वाले हैं और ना ही अपने बच्चों को फँसने देंगे।” फिर वह ठहाका मारकर हँस पड़ा और एक बड़े वैज्ञानिक रहस्योद्घाटन कर देने के अंदाज़ से उसने कहा,” भाई मेरे, पृथ्वी अगर गेंद की तरह गोल होती तो क्या समुंदरों का पानी पाताल में गिर नहीं जाता ?” जवाब इतना लाजवाब कर देने वाला था कि उस पत्रकार से कुछ कहते नहीं बना।

आज अफग़़ानिस्तान पर कब्ज़ा करने के बाद तालिबानी (Character of Taliban) अगर यह कह रहे हैं कि वे पुरानी बातें छोड़कर आगे बढऩा चाहते हैं, तो उन पर भरोसा करने के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं है। वे कह रहे हैं कि उनके राज में बच्चियों की पढ़ाई जारी रहेगी, औरतों को काम करने की आज़ादी मिलेगी और युवा मनचाहा रोजग़ार पा सकेंगे। अगर वे अपने निज़ाम में इतना भी कर पाते हैं, तो हम उम्मीद रख सकते हैं कि अफग़़ानिस्तान में कभी लोकतंत्र भी आएगा।

अफग़़ानिस्तान के निज़ाम पर तालिबान की वापसी इस सदी की सबसे बड़ी घटनाओं में एक है। अफग़़ानिस्तान पिछले चार दशकों से दो महाशक्तियों- अमेरिका और नाटो तथा सोवियत संघ और चीन- की भयावह रस्साकशी का केन्द्र बना हुआ है। इस रस्साकशी की वजह से जहाँ हजारों अफग़़ान बाशिंदों को जान गंवानी पड़ी, वहीं अमेरिका और रूस ने भी सैकड़ों सैनिकों की जान के साथ-साथ अरबों-खरबों रुपए गँवाए हैं। पिछली सदी के अस्सी के दशक में शीतयुद्ध काल में सोवियत फौजों ने जब अफग़़ान सत्ता में दख़ल दिया, तो अमेरिका और नाटो देशों ने साम्यवाद को रोकने की नीति के तहत वहाँ मुजाहिदीन लड़ाकों को बढ़ावा दिया, उन्हें खड़ा किया और पाला पोसा।

इसी के बाद वहाँ खूनखराबे और दहशतगर्दी का जो दौर शुरू हुआ, वह कब तक जारी रहेगा, यह कोई नहीं जानता। मुजाहिदीन से ही टूटकर तालिबान पैदा हुआ है और हमने वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर सदी का सबसे बड़ा आतंकी हमला देखा। इस हमले के जिम्मेदार आतंकी संगठन अल कायदा का केन्द्र अफग़़ानिस्तान ही था और इस हमले का प्रतिशोध लेने अमेरिका ने वहां अपनी फौजें उतार दीं। नाटो देशों ने इस क़दम का इस्तक़बाल किया और अगले बीस वर्षों तक अमेरिकी फ़ौज तथा अमेरिका के समर्थन से बनी सरकार के साथ तालिबान की खूंरेज़ लड़ाई चलती रही।

याद कीजिए कि सदी की शुरुआत में मुंबई पर हमले सहित भारत ने भी कई आतंकी हमले झेले हैं। इन हमलों के पीछे भी कहीं न कहीं अफग़़ानिस्तान में हो रही उथल-पुथल के लिए जिम्मेदार ताकतों का हाथ था। पिछले पखवाड़े तक तो तालिबान को अपरोक्ष रूप से ही रूस, चीन और पाकिस्तान की शह हासिल थी, किंतु अफग़़ानिस्तान पर कब्ज़े के बाद रूस चीन पाकिस्तान की तिकड़ी खुलकर तालिबान के समर्थन में उतर आई है। कालांतर में उनके साथ और कई देश आ सकते हैं।

यह विश्व राजनीति की साफ़-साफ उलटबांसी ही है कि सैद्धांतिक-वैचारिक रूप से विलोम पर खड़े होने के बावजूद ये सभी देश घोर कट्टरपंथी-उग्रवादी दहशतगर्द संगठनों के साथ भी खड़े हो जाते हैं। वजह सिर्फ अमेरिका विरोध ही है। हालांकि संयुक्त राष्ट्र सहित कई देशों ने तालिबानी निज़ाम की खि़लाफ़त की है, पर उनकी आवाज़ में कोई दम नहीं है। संयुक्त राष्ट्र की बैठकें औपचारिकता के अलावा कुछ नहीं होतीं। और फिर बाक़ी देश क्योंकर अफग़़ानिस्तान में टांग फंसाना चाहेंगे। ज़ाहिर है कि अब तालिबान को अफग़़ानिस्तान से बेदखल करना नामुमकिन है।

अफग़़ानिस्तान में तालिबानी (Character of Taliban) हुक़ूमत की वापसी को अधिकांश देश अमेरिका की पराजय के रूप में देख रहे हैं। एक हद तक बात सही भी है। हालाँकि राष्ट्रपति जो बाइडेन इसे अपनी हार ना मानकर तालिबानियों पर भरोसा तोडऩे का इल्ज़ाम लगा रहे हैं। यह सच है कि तालिबानियों ने अमेरिकी आर्मी को भरोसा दिलाया था कि वे अफग़़ान सत्ता में कोई दख़ल नहीं देंगे और अफग़़ान राष्ट्रपति अशरफ़ गनी की सरकार को उनसे कोई ख़तरा नहीं होगा। पर अमेरिकी भी यह जानते थे कि तालिबान कभी भी अपने वादे से मुकर सकते हैं।

दरअसल व्हाइट हाउस हर क़ीमत पर अफग़़ानिस्तान से पीछा छुड़ाना चाहता था। उनके लिए यह इसलिए भी जरूरी था, क्योंकि अमेरिकी जनता ही अफग़़ानिस्तान में अरबों डॉलर और सेना को झोंकने का विरोध कर रही थी। अमेरिकियों और नाटो को यह अंदाज़ा नहीं था कि अशरफ़ गनी की सरकार और अफग़़ान आर्मी इतनी कमज़ोर साबित होगी कि थोड़े से तालिबानियों के सामने ताश के पत्तों की तरह उड़ जाएगी। ज़ाहिर है कि इस आसान विजय के बाद तालिबान और अमेरिका के विरोधी देशों का हौसला सातवें आसमान पर है।

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