chanakya books: समय का महत्व - चाणक्य

chanakya books: समय का महत्व – चाणक्य

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chanakya books: आचार्य चाणक्य ने समय का महत्व बताते हुए कहा है कि यजमान के घर से पुरोहित दक्षिणा लेकर चला जाता है, विद्या अर्जन के बाद विद्यार्थी गुरू के द्वार से चला जाता है, उसी प्रकार से वन के जल जाने पर पशु-पक्षी वन का त्याग कर दूसरे स्थान पर चले जाते हैं। आचार्य चाणक्य का मत है कि ऐसा करने पर ही मान व सुरक्षा होती है, वरना जीवन में कष्ट ही भोगना पड़ता है।

chanakya books: मनु के अनुसार जन्म से प्रत्येक प्राणी शूद्र ही उत्पन्न होता है और यज्ञोपवीत संस्कार जिसके उपरान्त वह गुरू से शिक्षा पाने का अधिकारी हो जाता है, से वह द्विज या दूसरे बार उत्पन्न हुआ कहलाता है। मनु ने ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्गों को ही यज्ञोपवीत, वेद विद्या के अध्ययन का अधिकार दिया था। इसलिए इन तीन वर्षों के लोगों को ‘द्विज’ अथवा द्विजाति की संज्ञा प्रदान की थी। द्विजातियों-ब्राह्मणों, क्षत्रियों तथा वैश्यों-का आराध्य देव प्रत्यक्ष ज्वलनशील अग्नि है, अर्थात इन तीनों वर्गों के रोगों को अग्निपूजन अथवा यज्ञ-यज्ञादि करना चाहिए।

chanakya books: अपनी-अपनी प्रकृति, शिक्षा-दीक्षा के अनुसार सबकी श्रद्धा के केन्द्र अलग-अलग होते हैं। ब्राह्मणी प्रकृति के व्यक्ति यज्ञ द्वारा श्रद्धा व्यक्त करते हैं। संसार से विरक्त मुनियों का श्रद्धा केन्द्र उनका हृदय होता है। जो ज्ञानी नहीं होते, निराकर प्रभु पर ध्यान एकाग्र नहीं कर सकते, उनके लिए कोई मूर्ति ही श्रद्धा केन्द्र बन जाती है। वे मूर्ति पूजक बन जाते हैं। समदर्शी विद्वानों के लिए तो भगवान की प्रत्येक वस्तु श्रद्धा योग्य होती है। उन्हें सर्वत्र परमदेव की दिव्यता का आभास होता रहता है।

chanakya books: अधिकार पाकर लोभमुक्त होना और महत्वाकांक्षी न होना असम्भवकार्य है। शृंगार-प्रिय व्यक्ति का काम-वासना रहित या तपस्वी होना भी कठिन ही है। मधुरभाषी व्यक्ति वही होता है जो संयमी और विवेकशील होगा। जिस प्रकार मूर्ख मीठा नहीं बोल सकता ठीक इसी प्रकार सच को सच कहने वाला स्पष्ट वक्ता, ठग नहीं हो सकता, सच्चा व्यक्ति धोखेबाज भी नहीं हो सकता। यह अटल सत्य है

लज्जा मनुष्य की विशेषकर स्त्रियों की शोभा है, किन्तु कुछ बातों में लज्जा या संकोच करना अव्यवहारिक होता है। धन-धान्य के लेन-देन में विद्या के उपार्जन ओर संग्रह में संकोच में पड़ने के बाद व्यक्ति को पछताना पड़ सकता है। इसी प्रकार एक-दूसरे के घर में उदर-पूर्ति (खाने) में लज्जा या अनावश्यक संकोच करने से सम्बन्ध स्थिर नहीं रहते और व्यवहार चल नहीं पाता। जो व्यक्ति लज्जा या व्यर्थ का संकोच इन चीजों में करता है, वह जीवन में दुःख ही पाता है।

असन्तोष मनुष्य के दुःख का कारण है, उसके लिए घातक विष समान है। सन्तोष अमृत के समान है। सन्तोष रूपी अमृत के पीने से तृप्त हुये शान्त प्रवृत्ति के व्यक्तियों को जिस तरह असीम सुख की प्राप्ति होती है, धन के लोभ में व्यर्थ इधर-उधर भटकने वाले असन्तुष्ट लोभी व्यक्तियों को वह सुख जीवन भर प्राप्त नहीं हो सकता। अर्थात् सन्तोषी मनुष्य को मिलने वाले सुख के महत्व की लोभी या असंतुष्ट व्यक्ति कल्पना भी नहीं कर सकते।

सामाजिक व्यवहार करते हुए सबके मध्य रहना और कभी-कभी दो के मध्य समयानुसार दखल भी देना पड़ता है, किन्तु दो ब्राह्मणों के मध्य से, ब्राह्मण और अग्नि के मध्य से, पति-पत्नी के मध्य से तथा स्वामी व सेवक के मध्य से गुजरकर कभी नहीं जाना चाहिए। किसान के हल और बैल के मध्य से भी नहीं निकलना चाहिए। क्योंकि ऐसा करने से जहां अपमान होता है, वहां इनके मध्य से गुजरने वाले व्यक्ति को पीड़ा होने की सम्भावना भी रहती है

इस संसार में कुछ चीजें अथवा प्राणी ऐसे होते हैं, जिनसे दूर रहना ही श्रेयकर होता है। यहां चाणक्य ने इसी संदर्भ में कहा है कि चलती हुई बैलगाड़ी से पांच हाथ, घोड़े से दस हाथ व हाथी से सौ हाथ दूर रहना ही हितकर है। स्वभाव से नीच प्रवृत्ति के व्यक्तियों से सुरक्षित होने के लिए यदि वह देश भी छोड़ना पड़े तो छोड़ देना चाहिए। यही मनुष्य के लिए उचित है। अर्थ यह है कि दुर्जन व्यक्ति की संगति तो बिल्कुल ही छोड़ देना चाहिए।

समस्त प्राणियों को एक ही ढंग से वश में नहीं किया जा सकता। सबके लिए अलग-अलग ढंग होते हैं। जैसे हाथी को अंकुश से वश में किया जा सकता हैं, घोड़े को हाथ के चाबुक के द्वारा वश में लाया जाता है, सींग वाले पशु (बैल आदि) को हाथ में डण्डा लेकर वश में किया जाता है, परन्तु दुर्जन तो कभी वश में आता ही नहीं। दुर्जन को तो खड्ग से खत्म कर देना ही हितकर है अथवा हाथ में तलवार लेकर उसे डरा-धमकाकर सीधे मार्ग पर चलने के लिए विवश करना चाहिए

ब्राह्मण भरपेट स्वादिष्ट भोजन मिलने से प्रसन्न होते हैं। मोर बादल के गर्जन को सुनकर प्रसन्न हो जाते हैं।

साधु-सज्जन व्यक्ति दूसरों की खुशी से, उनकी सम्पन्नता से, सौभाग्य से प्रसन्न हो जाते हैं। एक मात्र दुर्जन ईर्ष्यालु प्रवृत्ति के लोग ही ऐसे होते हैं कि उन्हें दूसरों को विपत्ति में घिरा देखकर ही प्रसन्नता होती है।

अपने से अधिक शक्ति सम्पन्न शत्रु को उसके अनुकूल व्यवहार करके उसे अपना मित्र बनाना चाहिए। दुर्जन शत्रु तो अनुकूल व्यवहार करने से और बिगड़ जाता है। अतः उसके प्रतिकूल (दण्ड-भेद आदि) व्यवहार करके ही उसे वश में लाना चाहिए। अपने समान शक्ति वाले शत्रु को अवसरानुकूल कभी विनय द्वारा, कभी बल प्रयोग करके अपने वश में करना चाहिए। यही हितकर है।

किसी भी मनुष्य के लिए कुटिल प्रवृत्ति का होना ठीक नहीं है, किन्तु सीधे यानी भोले स्वभाव का होना भी ठीक नहीं है। अन्यथा कहीं भी ठगे जा सकते हैं। ठीक उसी तरह से जैसे वन के सीधे-सतर वृक्षों को मनुष्य सबसे पहले काटता है। आंधी वाले वृक्षों को नहीं काटा जाता। मनुष्य में दूसरों की ठगी से बचने के लिए कठोर और कुटिल होने का गुण भी होना चाहिए।

नर्कवासी नीच प्रवृत्ति के, प्राणियों की पहचान करने हेतु निम्न छह गुण दिये गये हैं, जो पृथ्वी पर वास करते हुए नर्कलोक से आये हुए प्राणियों में होते हैं

स्वभाव से अत्यन्त क्रोधी, सदैव कटु वचन बोलने वाले, दरिद्र (अपने कर्मों से जो दरिद्र होते हैं), अपने नातेदारों से ईर्ष्या व बैर भाव रखने वाले, नीच पुरूषों का संग करने वाले, हीन कुल (नीच प्रकृति के शूद) वालों की नौकरी करने वाले। यहां आचार्य चाणक्य का कहना है कि क्रोध, कटुवाणी, बैर, कुसंगति, दरिद्रता और नीच प्रवृत्ति के व्यक्ति की व नर्कगामी व्यक्तियों की पहचान कराने वाले लक्षण हैं जिसमें उक्त सभी लक्षण हो वह व्यक्ति जीवित वानर के समान है।

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