Central Deputation : केंद्र और राज्यों को साथ काम करने की आवश्यकता
बी के चतुर्वेदी। Central Deputation : हाल में मीडिया में ऐसी कई रिपोर्टें आयीं हैं, जिसमें केंद्र सरकार के विभिन्न स्तरों पर आईएएस अधिकारियों की कमी को पूरा करने के लिए आईएएस सेवा नियमों में संशोधन के भारत सरकार के प्रस्तावित कदम को लेकर कई राज्य सरकारों की गंभीर चिंताओं का जिक्र है।
वर्तमान व्यवस्था के तहत, राज्यों से अधिकारी स्वेच्छा से केंद्रीय प्रतिनियुक्ति का विकल्प चुनते हैं। केंद्र इन अधिकारियों में से रिक्त पदों के लिए या निकट भविष्य में रिक्त होने वाले पदों के लिए चयन करता है। ऐसा करते समय केंद्र, अधिकारी के पिछले अनुभव के आधार पर उसकी उपयुक्तता पर विचार करता है। एक बार चयन को अंतिम रूप देने के बाद, राज्य सरकार से संबंधित अधिकारी को कार्यमुक्त करने का अनुरोध करते हुए आदेश जारी किए जाते हैं।
प्रत्येक राज्य का एक निश्चित कोटा होता है, जिससे ज्यादा उसके अधिकारियों को केंद्र द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता है।पिछले दशक में, केंद्रीय प्रतिनियुक्ति का विकल्प चुनने वाले अधिकारियों की संख्या में क्रमिक गिरावट आई है। 60 के दशक में जहां अवर सचिव स्तर पर भी कई आईएएस अधिकारी होते थे, वहीं वर्तमान में केंद्र सरकार के लिए संयुक्त सचिव स्तर पर भी पर्याप्त संख्या में अधिकारियों का मिलना मुश्किल होता जा रहा है।
आमतौर पर, राज्यों की कुल संवर्ग संख्या में से लगभग 25 से 30 प्रतिशत अधिकारी केंद्रीय प्रतिनियुक्ति (Central Deputation) पर हुआ करते थे। वर्तमान में विभिन्न केंद्रीय मंत्रालयों में 10 प्रतिशत से भी कम अधिकारी कार्यरत हैं। कुछ रिपोर्टों के अनुसार उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा, तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों में यह संख्या 8 से 15 प्रतिशत के बीच है। केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर जाने के लिए पहले अधिकारियों में एक आकर्षण हुआ करता था। इसे अधिकारी की योग्यता के रूप में देखा जाता था।
चयन प्रक्रिया कठिन थी। केंद्रीय प्रतिनियुक्ति के लिए अधिकारियों की इस अनुपलब्धता का एक कारण करीब डेढ़ दशक पहले के कुछ वर्षों में अधिकारियों की अपर्याप्त भर्ती थी। लेकिन एक महत्वपूर्ण कारण है- राज्यों के पास तुलनात्मक रूप से बेहतर सेवा शर्तें हैं। हालांकि नियमों में किसी भी बदलाव के पहले यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि केंद्र और राज्यों में अधिकारियों की कमी में संतुलन रहे।
यदि राज्य में अधिकारियों की कमी है, तो केंद्र को इसे स्वीकार करना चाहिए और वर्ष की शुरुआत में राज्य के साथ एक उचित व्यवस्था करनी चाहिए। राज्यों पर भी इसी तरह की जिम्मेदारी है। नियमों में प्रस्तावित बदलावों को उपरोक्त आधार पर स्पष्ट रूप से गलत नहीं ठहराया जा सकता। इसका उद्देश्य एक किस्म की विसंगति को दूर करना है। राज्यों की संवर्ग संख्या निर्धारित करते समय उच्च स्तर के कर्तव्य वाले लगभग 40 प्रतिशत पद केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति के लिए रखे जाते हैं।
इसलिए केन्द्र की जरूरतों को पूरा करने के लिए एक निश्चित संख्या में पदों को रखे जाने के बारे में राज्यों के लिए नियुक्ति और स्वीकृत पदों की प्रक्रिया से संबंधित एक अंतर्निहित प्रावधान है। अतीत में हुई अपर्याप्त भर्तियों को देखते हुए नियमों में प्रस्तावित बदलाव केंद्र और राज्यों के बीच इस कमी को समान रूप से साझा करने का प्रावधान करता है।
चूंकि रिक्तियों को समय पर भरे जाने की जरूरत होती है, इसलिए समय-सीमा से जुड़ा एक सुझाव भी है जिसके भीतर राज्यों को जवाब देना चाहिए और प्रतिनियुक्ति के लिए चयनित अधिकारी को कार्यमुक्त करना चाहिए। हालांकि, राज्यों की भी कई चिंताएं हैं जिन पर ध्यान देने की जरूरत है। यह स्पष्ट रूप से समझना होगा कि राज्यों के साथ चर्चा के दौरान जब वे उन अधिकारियों की सूची देते हैं जिन्हें वे केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति (Central Deputation) के लिए भेजना चाहते हैं, तो यह विशुद्ध रूप से राज्यों का प्रस्ताव होगा।
यह प्रस्ताव राज्य की अपनी जरूरतों को ध्यान में रखकर होगा और फिर अतीत में हुई भर्ती में कमी को समान रूप से साझा करते हुए केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति के लिए नामों की पेशकश की जायेगी। केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति के लिए भेजे जाने वाले अधिकारियों की सूची तैयार करने में केन्द्र की कोई भूमिका नहीं होगी।
केन्द्र अगर किसी अधिकारी को चाहता है, तो वह राज्य को इस आशय सुझाव देगा। यदि दोनों सहमत होते हैं, तो उक्त अधिकारी को केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति पर रखा जाएगा। यदि राज्य प्रतिनियुक्ति के लिए उस अधिकारी के नाम का सुझाव नहीं देना चाहता है, तो संवर्ग नियमों के तहत इस संबंध में शक्ति होने के बावजूद केन्द्र राज्य के विचारों का सम्मान करेगा।
अतीत के अनुभवों से यह पता चलता है कि केन्द्र द्वारा अपनी शक्तियों का ऐसा प्रयोग प्रतिकूल साबित होता है। संवर्ग प्रबंधन के संदर्भ में इसके नतीजे अच्छे नहीं होते हैं। केंद्र सरकार को यह समझना होगा कि संवर्ग प्रबंधन की उत्कृपष्टत सफ लता सुनिश्चित करने हेतु उप सचिव और निदेशक स्तर के अधिकारियों के लिए कार्य परिस्थितियों को बेहतर करना अत्यंित आवश्यरक है।
यदि बड़ी संख्या में अधिकारी अपनी इच्छा व्यक्त करते हैं और केंद्रीय प्रतिनियुक्ति का विकल्प चुनते हैं, तो राज्यों पर संबंधित नामों की पेशकश करने का दबाव होगा। वहीं, दूसरी ओर यदि केवल कुछ ही अधिकारी केंद्रीय प्रतिनियुक्ति का विकल्प चुनते हैं, तो राज्य सरकार संबंधित अधिकारियों को दिल्ली जाने का विकल्प चुनने के लिए विवश करेगी। इस स्तर के कई अधिकारियों को दिल्ली में अपने बच्चों की शिक्षा, आवागमन और काफ की महंगे जीवनयापन जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इन मुद्दों को अवश्यक ही सुलझाना होगा।
दिल्ली में प्रतिनियुक्ति की अवधि के दौरान प्रतिनियुक्ति भत्ता देना एक अच्छान विकल्प हो सकता है। विशेष स्कूलों जैसे कि संस्कृति और अन्य प्रतिष्ठित संस्थानों में दाखिला सुनिश्चित करके उन्हें अपने बच्चों की अच्छी शिक्षा का भरोसा दिलाया जा सकता है। ये प्रतिष्ठित संस्थान इस मुद्दे पर डीओपीटी के साथ उचित समझौता कर सकते हैं।
राज्यों को भी इस मुद्दे पर विरोधात्मक या प्रतिकूल नजरिए से नहीं, बल्कि सकारात्मक सोच के साथ गौर करना होगा, जिसके तहत केंद्र और राज्य दोनों की ही जरूरतों में उचित सामंजस्यत बैठाना और पूरा करना है। प्रस्तावित संशोधन के तहत केवल संबंधित अधिकारियों की कमी को पूरा करने और जहां आवश्यक हो इसे साझा करने की एक व्यधवस्थाो सुझाई गई है। इसके साथ ही केंद्र सरकार को चाहिए कि वह केंद्रीय सत्ता के दुरुपयोग को लेकर राज्यों की आशंकाओं को दूर करे।
आने वाले वर्षों में केंद्र में डीएस और निदेशक के स्तर पर उच्च अधिकारियों की कमी होगी। अत: केंद्र सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र के वरिष्ठ अधिकारियों के जरिए इनमें से कुछ कमी को पूरा करने पर विचार करना चाहिए। दरअसल, इनमें से कई वरिष्ठ अधिकारी अत्येंत काबिल हैं और वे दो वर्षों तक सचिवीय कार्य की आवश्यकताओं को बखूबी पूरा कर सकते हैं।