Burqa Issue : क्योंकि बनाई जाती हैं औरतें
विभूति नारायण राय। Burqa Issue : पिछले दिनों मुझे एक बड़ी दिलचस्प तस्वीर दिखाई दी। उत्तर भारत की एक जुझारू, और मुस्लिम महिलाओं के मोर्चे पर निरंतर सक्रिय सदस्या ने बुरके में अपना फ़ोटो साझा किया। उन्होंने कहा कि कर्नाटक के हालिया विवाद में बुरका पहनने वाली महिलाओं से अपनी यकजेहती जाहिर करने के लिए वह बुरका पहने अपनी यह छवि प्रसारित कर रही हैं। मैंने उनसे निवेदन किया कि सिर्फ फोटो शूट के लिए बुरका पहनने की जगह उन्हें आइंदा शहर में निकलते समय हमेशा परदे में रहना चाहिए।
स्वाभाविक ही था कि यह मनोरंजक सुझाव खारिज हो गया। मुझे याद आया कि इस बहादुर महिला ने तो अपने निकाह के मौके पर इस्लामी पितृ-सत्ता के परखचे उड़ा दिए थे। फिर ऐसा कैसे हुआ कि वह खुद को नख से शिख तक हिजाब में ढककर तस्वीर खिंचवाने की सोच भी पाईं? यह तो कुछ ऐसा हुआ, जैसे 19वीं शताब्दी के पूर्वाद्र्ध में जबलपुर की एक स्त्री को सती होने से बचाने के क्रम में अंग्रेज मजिस्ट्रेट को सबसे बड़ा झटका तब लगा, जब खुद सती होने वाली स्त्री ने इस अमानवीय प्रथा के पक्ष में तर्क देने शुरू कर दिए। इसी तरह, बहुत से संगठनों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने, जो ईरान या अफगानिस्तान में औरतों को जबर्दस्ती परदे में रखने के खिलाफ खड़े दिखते थे, कर्नाटक विवाद में उससे उलट रुख अपनाया है।
हमें यह याद रखना होगा कि औरत का शरीर पितृ-सत्तात्मक समाज के लिए सबसे बड़ी चुनौती रहा है। इस शरीर को काबू में रखने के लिए यह समाज कई तरह के नियंत्रण लगाता है और उनमें कपड़े-लत्ते सबसे प्रभावी औजार हैं। वह क्या पहनेगी और कैसे पहनेगी, इसी से उसकी यौनिकता तय होती है। पितृ-सत्ता को धर्मों से वैधता मिलती है और इसीलिए हर धर्म स्त्री के लिए एक दोयम दरजे के मुकाम की कल्पना करता है। दुनिया के तीनों बड़े धर्मों- ईसाई, इस्लाम और हिंदू, ने अपने-अपने तरीके से औरत पर पाबंदियां लगाने की कोशिश की है।
यह अलग बात है कि इनमें सबसे कम लचीला होने के कारण इस्लाम को अन्य दो के मुकाबले समय के अनुसार बदलने में सबसे अधिक दिक्कत आती रही है। यह भी सही है कि समय का बहाव किसी के रोके नहीं रुकता और परिवर्तन तो होते ही रहेंगे। सऊदी अरब का अपेक्षाकृत कट्टर समाज इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जहां देर से ही सही, औरतों को ड्राइविंग या बिना किसी मर्द रिश्तेदार के अकेले यात्रा करने जैसे वे सभी अधिकार मिलने लगे हैं, जो दुनिया के दूसरे हिस्सों में सहज स्वाभाविक रूप से काफी पहले स्वीकार कर लिए गए थे।
कर्नाटक में पिछले दिनों जो कुछ हुआ, उसने एक खास तरह का विमर्श पैदा किया है। बावजूद इसके कि राज्य के तंत्र पर हावी हिंदुत्ववादी शक्तियों ने किसी नेकनीयती से यह विवाद नहीं खड़ा किया, पर इससे उपजी बहस ने कुछ महत्वपूर्ण सवालों की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित किया है। यह कहने की जरूरत नहीं है कि जो संगठन हिजाब विरोधी (Burqa Issue) मुहिम चला रहे थे, वे वैलेंटाइन डे पर पार्कों में हिंदू जोड़ों की पिटाई जैसी तमाम हरकतें भी करते दिखते हैं, इसलिए किसी के मन में भ्रम नहीं होना चाहिए कि वे महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने के समर्थक हैं। इस आंदोलन के पीछे जो राजनीति है, उसे न भुलाते हुए भी हम उस दिलचस्प बहस को नजरंदाज नहीं कर सकते, जो खुद प्रभावित समुदाय के अंदर चल रही है।
मुंबई फिल्म उद्योग में कम समय के लिए ही सही, पर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने वाली जायरा वसीम और अमेरिकी सुपर मॉडल बेला हदीद ने हिजाब का समर्थन किया है। जायरा ने पिछले दिनों सफलता की ओर अग्रसर अपने फिल्मी करियर को इसलिए छोड़ दिया था कि यह उनके इस्लामी अकीदे के खिलाफ था और बेला हदीद शॉट्र्स पहनने वाली ऐसी मॉडल हैं, जिनका मानना है कि यह अधिकार औरत के पास होना चाहिए कि वह परदा करेगी या नहीं? दोनों सोच में कुछ झोल हैं।
जायरा वसीम भूल गईं कि कुरान में औरतों के साथ मर्दों पर भी पोशाक को लेकर कुछ पाबंदियां लगाई गई हैं और धर्मगुरु आमतौर से उनकी चर्चा नहीं करते। ट्विटर के जरिये वह ला महरम (ऐसे पुरुष, जिनसे वैवाहिक संबंध निषिद्ध नहीं हैं) से जो संवाद कर रही हैं, वह भी कट्टरपंथी भाष्य के अनुसार हराम है। द सेकेंड सेक्स की रचयिता और स्त्री विमर्श की सबसे बड़ी पुरोधा सिमोन द बुआ के अनुसार, औरत पैदा नहीं होती, बनाई जाती है। बेला हदीद जिन औरतों के चुनाव की आजादी की बात कर रही हैं, वे इसी बनाए जाने की प्रक्रिया से गुजरती हैं और परिवार व समुदाय का मूल्यबोध उनकी अंतरचेतना का इस हद तक अविभाज्य अंग बनता जाता है कि वे पूरी ईमानदारी से मानने लगती हैं कि परदा उन्हें दुनियावी व धार्मिक अर्थों में ‘अच्छा’ बनने में मदद करेगा।
औरत कैसे बनाई जाती है, इसका उदाहरण हम भारतीय समाज में करोड़ों महिलाओं की सोच में तलाश सकते हैं, जो कहीं बहुत गहरे इस यकीन में मुब्तिला हैं कि वे अपने परिवार के पुरुष सदस्यों से हर मामले में हीन हैं। हिजाब का समर्थन कर रही औरतों के बारे में कोई बात करते समय हमें सिमोन द बुआ की राय याद रखनी चाहिए, तभी किसी तर्कसंगत नतीजे पर पहुंच सकेंगे।
विमर्श में रेखांकित करने वाला तथ्य यह है कि औरत क्या पहने, इसका फैसला उसी के ऊपर छोड़ दिया जाना चाहिए। यदि किसी धर्म को अधिकार नहीं है कि वह उसे परदे में रहने का आदेश दे, तो राज्य को भी आमतौर से इस फैसले से बचना चाहिए कि वह कहां-क्या पहने। धर्म और राज्य, दोनों को उन आधुनिक और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने वाले मूल्यों का समर्थन करना होगा, जिन्हें मानवता ने हजारों साल की यात्रा के दौरान हासिल किया है।
कई कारणों से धर्म के मन मे हिचकिचाहट होगी और तब उम्मीद की जा सकती है कि राज्य अपने धर्मनिरपेक्ष रवैये से इस शून्य को भर सकेगा। दुर्भाग्य से, कर्नाटक में राज्य एक खास एजेंडे पर चलता दिखा। मुस्लिम महिलाओं को यह विश्वास नहीं दिलाया जा सका कि हिजाब हटाने (Burqa Issue) के पीछे कोई धार्मिक दुर्भावना नहीं है। ऐसा न होने पर पूरी संभावना है कि वे धर्म के अतिरेक विमर्श में विश्वास करने लगें।