हिंदी के खिलाफ बिल: तमिलनाडु सरकार को क्यों लेना पड़ा यू-टर्न?

Bill against Hindi: Why did the Tamil Nadu government have to take a U-turn?

Bill against Hindi

महेन्द्र तिवारी

Bill against Hindi: तमिलनाडु में हिंदी के खिलाफ राजनीतिक और सामाजिक आंदोलन लंबे समय से राज्य की पहचानों और सांस्कृतिक स्वायत्तता का प्रतीक बनकर सामने आया है। हाल के घटनाक्रम में डीएमके नेतृत्व वाली तमिलनाडु सरकार ने राज्य में हिंदी फिल्मों, हिंदी गानों और सार्वजनिक होर्डिंग्स तथा बोड्र्स पर प्रतिबंध लगाने के उद्देश्य से एक नया विधेयक लाने की घोषणा की थी। इस प्रस्तावित बिल ने राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर बड़ी बहस और तीखी प्रतिक्रिया को जन्म दिया।
मुख्यमंत्री एमकेस्टालिन और उनकी सरकार का तर्क था कि यह कदम तमिल भाषा और तमिल संस्कृति की रक्षा के लिए जरूरी है, जबकि विपक्ष और कानूनी विश्लेषकों ने इसे संविधान के विरुद्ध और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आघात बताकर विरोध जताया।

बिल के मसौदे में यह स्पष्ट किया गया था कि पूरे तमिलनाडु में सार्वजनिक स्थानों, सिनेमाघरों, मीडिया, विज्ञापन होर्डिंग्स, और गानों में हिंदी के प्रयोग पर रोक होगी। डीएमके नेताओं का कहना था कि हिंदी का ‘थोपना तिरस्कारपूर्ण और तमिल आत्मसम्मान के विपरीत है। राज्य सरकार ने केंद्र शासन, खासकर भाजपा पर ये आरोप लगाए हैं कि त्रिभाषाफॉर्मूला और नई शिक्षा नीति के तहत हिंदी को दक्षिण भारत में जबरन लागू किया जा रहा है। इसी साल राज्य बजट के लोगो में भी भारतीय रुपया चिन्ह ‘? की जगह तमिल अक्षर ‘?? रखा गया था, जिसे तमिल पहचान और भाषा सम्मान का प्रतीक बताया गया।
हालांकि, सरकार द्वारा घोषणा के तुरंत बाद जबरदस्त राजनीतिक और कानूनी प्रतिक्रिया सामने आई। सरकारी सूत्रों के अनुसार, विधेयक पेश करने से पहले एक आपात कानूनी बैठक हुई, जिसमें तमिलनाडु बार और विभिन्न संवैधानिक विशेषज्ञों के सुझाव लिए गए। कई विशेषज्ञों ने चेतावनी दी कि विधेयक भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 343-351 (संघ की भाषाएँ) के तहत असंवैधानिक साबित हो सकता है। विपक्षी बीजेपी और तमिल फिल्म इंडस्ट्री के प्रतिनिधियों ने तर्क दिया कि यह कदम सिर्फ राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल हो रहा है और व्यापार, लोकप्रिय संस्कृति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नकारात्मक असर डालेगा। भाजपा नेता ने इसे मूर्खतापूर्ण और बेतुका बताया तथा इसे राज्य-स्तरीय भावना भड़काने वाला बताया।

जनता और फिल्मी समुदाय ने सोशल मीडिया और सार्वजनिक प्रसार माध्यमों पर इसकी आलोचना की। कई लोगों ने तमिलनाडु की भाषा नीति का समर्थन किया, लेकिन हिंदी के पूर्ण बहिष्कार को अनुपयुक्त और संकीर्ण सोच बताया। ऐसा माहौल बना कि तमिल पहचान की रक्षा और भाषाईबहुलता का संतुलन साधना एक मुश्किल राजनीतिक चुनौती है। साथ ही, यह भी आरोप लगे कि डीएमकेसरकार यह विवाद ऐसे समय ला रही है जब प्रशासन पर निवेश और रोजगार के कई अहम मसले लंबित हैं। विरोधियों ने इसे ध्यान भटकाने का हथकंडा करार दिया।

इन सारे दबावों के बीच सरकार को अपने फैसले की समीक्षा करनी पड़ी। 15 अक्टूबर को प्रस्तावित विधेयक को विधानसभा में रखने से पहले ही स्थगित कर दिया गया। एक बार फिर, सरकार ने बयान दिया कि वह संविधान की सीमा में रहकर ही कोई फैसला लेगी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा व्यापारिक-अधिकारों का सम्मान करेगी। राज्य के वरिष्ठ नेता ने कहा कि डीएमके हिंदी भाषा या उत्तर भारतीय संस्कृति का विरोध नहीं करता, बल्कि उसका विरोध उस प्रक्रिया से है जिसमें एक भाषा को जबरदस्ती थोपने का प्रयास हो। सामाजिक और कानूनी बहस के बाद प्रदेश सरकार ने बिल को फिलहाल स्थगित करने का निर्णय लिया।

तमिलनाडु की यह घटना भाषाई-सांस्कृतिक संवेदनशीलता, संविधान की रक्षा, कारोबार के व्यापक हित और जनभावना की जटिलता को फिर सामने लाती है। केंद्र सरकार के साथ राज्य का रिश्ता लंबे समय से भाषाई नीतियों के विवाद की वजह से तनावपूर्ण रहा है। दक्षिण भारत में खासकर तमिलनाडु ने हिंदी के “थोपे जाने” का दशकों से विरोध किया है, और यह मुद्दा सिर्फ स्कूलों या कार्यालयों की भाषा तक सीमित नहीं, बल्कि तमिल अस्मिता के रक्षार्थ व्यापक सामाजिक संघर्ष का हिस्सा बन चुका है। वर्तमान दौर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ सांस्कृतिक विविधता और क्षेत्रीय पहचान के बीच संतुलन बनाए रखना किसी भी प्रशासन के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। सार्वजनिक दबाव, व्यापारिक हित और कानूनी दायरे की टकराहट ने इस बार भी सरकार को कदम पीछे हटाने पर मजबूर कर दिया।

तमिलनाडु की राजनीतिक पार्टियों के लिए भाषाई मुद्दा न केवल सत्ता की राजनीति का हथियार बना रहा है बल्कि यह क्षेत्रीय अस्मिता के प्रहरी की भूमिका अपना चुका है। विरोधी गुट सरकार के फैसले को ‘राजनीतिक स्टंटÓ बताते हैं, तो समर्थक इसे तमिल स्वाभिमान की रक्षा के तौर पर प्रस्तुत करते हैं। सरकारी बयान के अनुसार, भविष्य में भी अगर हिंदी को अनिवार्य रूप से थोपने के प्रयास होंगे तो राज्य कानून के दायरे में रहकर कदम उठाएगा। फिलहाल जनता, व्यापारिक समुदाय, फिल्म उद्योग, और राजनीतिक दल इस विषय पर सतर्क हैं। तमिलनाडु में हिंदी विरोधी विधेयक का स्थगन संविधान, व्यापार और सामाजिक जटिलताओं को ध्यान में रखकर लिया गया निर्णय है, जो आने वाले समय में राज्य की भाषा नीति और केंद्र-राज्य संबंधों की दिशा को भी प्रभावित करेगा।